श्रद्धांजलि : बाबा योगेंद्र – सरस्वती के सच्चे साधक
संस्कार भारती के संरक्षक बाबा योगेंद्र जी ज्ञान की देवी सरस्वती के सच्चे साधक थे। उनका पूरा जीवन कला और कलाकारों को समर्पित रहा। उन्होंने कला जगत में भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति को बढ़ाने में अतुलनीय योगदान दिया
बाबा योगेंद्र भले ही शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी कला के माध्यम से वे सदैव विद्यमान रहेंगे। (यह चित्र संस्कार भारती के अध्यक्ष श्री वासुदेव कामत ने बनाया है।)
गत 10 जून को बाबा योगेंद्र इस धरा से चल बसे। बाबा, यह शब्द मुंह पर आते ही एक विराट व्यक्तित्व आंखों के सामने आ जाता है जिसके सम्मुख शीश श्रद्धा से स्वत: ही झुक जाता है। 98 वर्ष का प्रभु-प्रदत्त सुदीर्घ जीवन, 77 वर्ष संघ के प्रचारक, 41 वर्ष संस्कार भारती के संस्थापक सदस्य से लेकर संरक्षक के रूप में, देह की पूर्ण विश्रांति तक पद्मश्री योगेंद्र जी की अनथक, अविरत साधना हर किसी के लिए प्रेरणादायी है। उत्तर प्रदेश में बस्ती जनपद के गांधीनगर में 7 जनवरी, 1924 को बाबू विजय बहादुर (वकील साहब) के पुत्र के रूप में जन्मे, गोरखपुर में पढ़ाई के दौरान स्वयंसेवक बने, 1945 में संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री नानाजी देशमुख की प्रेरणा से पूर्णकालिक प्रचारक बने योगेंद्र जी गोरखपुर, प्रयाग, बरेली, बदायूं तथा सीतापुर में प्रचारक रहे। वे एक उच्च कोटि के चित्रकार भी थे। संघ कार्य में अति व्यस्त रहने के बावजूद उनके मन में एक सुप्त कलाकार सदैव मचलता रहता था।
तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप उन्होंने अनेक ज्वलंत विषयों पर चित्र प्रदर्शनियों की शृंखला प्रारंभ की। देश-विभाजन की त्रासदी पर उनके द्वारा निर्मित एक अत्यंत मार्मिक चित्र प्रदर्शनी, जिस किसी ने भी देखी, अपने आंसू नहीं रोक पाया। 1857 के स्वाधीनता संग्राम की अमर गाथा, देश विभाजन, जलता कश्मीर, मां की पुकार, संकट में गो माता तथा भारत की विश्व को देन जैसी प्रदर्शनियों को देश तथा विदेशों में भी अत्यंत लोकप्रियता मिली।
1981 में कला क्षेत्र में राष्ट्रभाव जागरण, कलाओं और कलासाधकों के संरक्षण एवं संवर्धन के उद्देश्य से संस्कार भारती का गठन हुआ तो बाबा योगेंद्र की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें संगठन मंत्री का दायित्व सौंपा गया। फिर क्या था, बाबा ने साधनों की चिंता किए बिना कलाकारों और कार्यकर्ताओं को अपने अथक प्रवास और विशुद्ध प्रेम के बल पर जोड़ना प्रारंभ कर दिया, और देखते ही देखते देशभर में संस्कार भारती की सैकड़ों इकाइयां गठित होती चली गर्इं। ‘कला मिट्टी में प्राण फूंकती है’, यह उनका प्रसिद्ध ध्येय वाक्य था। योगेंद्र जी ने प्रारंभ से ही हर स्तर पर कलाकारों को जोड़ने का प्रयास किया, चाहे स्थापित कलाकार हों अथवा नवोदित, बाबा का स्नेह-प्रसाद सभी को समान रूप से प्राप्त था। अपने सादगीपूर्ण, सरल, सौम्य स्वभाव से उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया। कार्य की आवश्यकता को समझते हुए उन्होंने एक चित्रकार की अपनी पहचान को संगठन के स्वरूप में सहज विलीन कर दिया। बाबा सबके, सब बाबा के, ऐसा अटूट संबंध; आत्मीयता इतनी कि प्रत्येक छोटे-बड़े कार्यकर्ता और कलाकार के सुख-दु:ख में सदा सहभागी होते और हर व्यक्ति को लगता कि मैं ही बाबा के सर्वाधिक निकट हूं।
संगठन के किसी भी निर्णय अथवा व्यक्तिगत व्यवहार से कार्यकर्ता और कलाकार के मन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, इसका आभास बाबा को बिना किसी के बताए कैसे हो जाता होगा, यह उनकी अति संवेदनशीलता का परिचय कराता है। संपूर्ण देश में अपने प्रवास दर प्रवास, कार्यकर्ताओं से मिलते तो उनके गत प्रवास का वर्णन आकाशवाणी के किसी आंखों देखे हाल से कम नहीं होता। कार्य की स्थिति और संपर्कित बंधु, भगिनी की योग्यताओं और उपलब्धियों का नाम सहित ऐसा सजीव चित्रण सुनने को मिलता कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते। हस्तलेखन ऐसा कि जैसे कागज पर मोती बिखेर दिए हों, उनके पत्र सभी सहेज कर रखना चाहते हैं। अपने जीवन काल में उन्हें पद्मश्री सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया परंतु उसका लेश मात्र भी अभिमान बाबा के जीवन में कभी प्रकट नहीं हुआ। बाबा योगेंद्र ने अपने व्यवहार तथा आचरण से सबको यह सिखाया कि निरंतर प्रवास तथा सतत संवाद द्वारा ही संगठन का विकास और विस्तार संभव है। सुनते हैं कि जीवन भले ही छोटा हो परंतु सार्थक होना चाहिए परंतु जीवन सुदीर्घ भी हो और उतना ही सार्थक भी, यह बाबा योगेंद्र जी ने अपने जीवन यज्ञ द्वारा हमें बताया।
(लेखक संस्कार भारती, दिल्ली प्रांत के संगठन मंत्री रहे हैं)
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