योग द्वारा न केवल आयुष्य और आरोग्यता प्राप्त की जा सकती है, अपितु मोक्ष भी प्राप्त किया जा सकता है
हमारे पूर्वज ऋषि-मनीषियों ने जीवन में संपूर्णता के अनेक सूत्र -मार्ग दिए हैं, जिनमें आत्मकल्याण के साथ वृहत्तर लोकोपकारी वृत्तियां भी सम्मिलित हैं। जीवन की सिद्धि, समाधान और संपूर्णता के लिए सुझाए गए अनेक मार्गों में से एक प्रमुख मार्ग योग भी है। योग भारत की दिव्य दैवीय संपदा का अभिन्न अंग और संसार के योग-क्षेम निमित्त भारतीय संस्कृति का अमूर्त उपहार है।
यह संस्कृत भाषा की ‘युज’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-युक्त करना, मिलाना अथवा जोड़ना। शरीर पर नियंत्रण, मन पर अनुशासन एवं समग्र आत्मिक शक्तियों के एक साध्य में संयोजन के अनन्तर उपार्जित दिव्यता, एकाग्रता और परमानुभूति ही योग का परम लक्ष्य है। दूसरे शब्दों में यौगिक क्रियाओं के अवलंबन द्वारा आत्म-चेतना को ब्रह्माण्ड की परम चेतना व सार्वभौमिक सत्ता के साथ जोड़ देना। इस संयुक्तता के बाद उपार्जित विराटता ही योग की फलश्रुति है।
आज योग विज्ञान की सर्वत्र लोकप्रियता देखकर मन आह्लादित है। भारत वर्ष में तो अत्यंत प्राचीन काल से योग किया जाता रहा है किंतु हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री आदरणीय नरेंद्र मोदी जी के प्रयासों से आज योग विश्व के कोने-कोने तक पहुंच गया है।
कोरोना काल में योग, आयुर्वेद और हमारी जीवनशैली की संपूर्ण विश्व में स्वीकृति बढ़ी है। जब संपूर्ण विश्व का चिकित्सा विज्ञान कोरोना के समक्ष नत-मस्तक था उस समय हमारी आहार पद्धति, अध्यात्मिक मूल्य, योग, आयुर्वेद आदि ही मानवता की ढाल बने।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के पुरुषार्थ और सद्प्रयासों के फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र ने 21 जून को आधिकारिक रूप से विश्व योग दिवस के रूप में स्वीकृति दी है।
वर्तमान में योग विज्ञान का जो स्वरूप लोकप्रिय है, वह व्यायाम -आसान, प्राणायाम और प्रत्याहार के द्वारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की उपलब्धियों पर केंद्रित है। किन्तु आसन-प्राणायाम और प्रत्याहार आदि में योग विज्ञान की विराटता को समेटा नहीं जा सकता। योगशास्त्र का वृहत्तर स्वरूप तो जीवन की पूर्णता -सिद्धि और समाधान में निहित है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार क्रमश: योग के अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसलिए योग का क्षेत्र केवल आसन और शारीरिक अभ्यासों तक सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है तथापि, वर्तमान समय में प्रचलित आसन और व्यायाम पद्धतियों द्वारा स्वास्थ्य सुधार, असाध्य रोगों के उपचार एवं प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाई जा सकती है।
यौगिक क्रियाओं का अवलंबन लेकर स्वस्थ, खुशहाल और शांतिपूर्ण जीवन,आंतरिक व बाह्य समृद्धि के साथ जीवन के परम लक्ष्य की सिद्धि भी सहज ही सुलभ है। महर्षि पतंजलि द्वारा विरचित ‘पातंजल योगसूत्र’ को योग का सबसे प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है किन्तु महर्षि पतंजलि के पहले भी योग का अस्तित्व और विस्तार था। संसार के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में भी योगाभ्यास और विविध यौगिक क्रियाओं का उल्लेख मिलता है। इसलिए योग की विधा उतनी ही प्राचीन है जितनी यह संपूर्ण सृष्टि। विधाता ने सृष्टि की रचना भी यौगिक क्रियाओं के अवलंबन और समायोजन से ही की थी।
नियमित योगाभ्यास और यौगिक क्रियाओं के अवलंबन द्वारा शरीर एवं मन की व्याधियों के उपचार के साथ ही आत्मबल का विकास भी होता है और आत्मबल संपन्न व्यक्ति ही सर्वत्र जय प्राप्त करता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पांच प्रकार के क्लेश होते हैं, इन सबसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र उपाय उन्होंने योग को ही माना है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार क्रमश: योग के अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसलिए योग का क्षेत्र केवल आसन और शारीरिक अभ्यासों तक सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है तथापि, वर्तमान समय में प्रचलित आसन और व्यायाम पद्धतियों द्वारा स्वास्थ्य सुधार, असाध्य रोगों के उपचार एवं प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाई जा सकती है। किसी समर्थ व्यक्ति से योगाभ्यास सीखकर उनका उपयोग समाज हित में किया जाए तो यौगिक विधियां अत्यंत प्रभावी और असरकारक सिद्ध हो सकती हैं।
(लेखक जूनापीठाधीश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर हैं)
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