11 से 16 मई 1857, इन पांच दिनों में दिल्ली में जो हुआ वह इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना चाहिए। इतिहास प्रसिद्ध नगर और देश की राजधानी दिल्ली को विदेशी दासता से मुक्त करवाने का घटनाक्रम इन पांच दिनों में घटित हुआ। 16 मई का दिन समाप्त होते होते ब्रिटिशों का नामोनिशान इस नगर से मिट गया था। मुक्ति के इस महाप्रयास की एक अद्भुत विशेषता थी कि आम समाज ने ही इसका नेतृत्व किया, आम समाज ने ही इसमें भाग लिया और आम समाज ने ही इसका अनुसरण किया। लोक शक्ति के उदय का ऐसा अनन्य घटनाक्रम इन पांच दिनों में देखने को मिलता है।
दिल्ली के स्वतंत्र होने और हिन्दुस्थान के प्रमुख नगरों से स्वतंत्रता के समाचार प्राप्त होने पर सारे हिंदुस्थान में देश के नाम एक घोषणा पत्र प्रसारित किया गया और उसमें स्पष्टता से घोषित किया गया – ‘अब विदेशियों के साम्राज्य और फिरंगियों की राज्यसत्ता का अंत हो चुका है और सारा देश अब स्वतंत्र और परदासता से मुक्त हो गया है।’ दिल्ली अंग्रेजों से स्वतंत्र हुई, यह अंग्रेजों के लिए एक बड़ा कष्टदायक विषय था। पुनः यदि दिल्ली अंग्रेजों के अधीन नहीं आएगी तो भारत पर हमारा आधिपत्य कैसे बना रहेगा, यह बात अंग्रेज अधिकारियों और सेना अफसरों के मन को कचोट रही थी। इस ऊहापोह में दिल्ली को पुनः परतंत्र करने की योजना बनने लगी। उधर स्वतंत्रता को स्थायी बनाए रखना है तो दिल्ली की स्वतंत्रता बनाए रखनी है, इसकी योजना और विचार क्रांतिकारी संगठन कर रहा था। दिल्ली स्वतंत्र रहे अथवा दिल्ली परतंत्र हो जाए, इन दोनों बातों के मध्य ‘दिल्ली लड़ती है’।
ब्रिटिश सेना अधिकारियों का आकलन था कि दिल्ली को पुनः जीतने के लिए एक दिन पर्याप्त रहेगा। इतना आसान है तो प्रतीक्षा क्यों करनी, यह सोचकर अंग्रेजी सेना ने दिल्ली के बाहर डेरा डाल दिया। 12 जून प्रातः 2 बजे दिल्ली पर हमला करेंगे और 12 जून की रात्रि में दिल्ली के राजमहल को विजयी कर वहीं विश्राम करेंगे, ऐसी योजना अंग्रेजी सेना के कमांडर ने अपने अधिकारियों के साथ मिल कर बनाई। परन्तु यह क्या! प्रातः दो बजे अंग्रेजी सेना मैदान में एकत्र हुई और सेना का एक हिस्सा ही गायब है। यह देखकर हमला स्थगित किया गया। पुनः अंग्रेजी सेना युद्ध परिषद की बैठक, चर्चा, 14 जून को हमला करेंगे, ऐसा निश्चित हुआ। हमला फिर स्थगित, यह क्रम कई दिन तक ऐसे ही चलता रहा। इसी दौरान 12 जून से लगातार क्रांतिकारियों की छोटी-छोटी टोलियां निकलती और अंग्रेजी सेना पर हमला कर कुछ-कुछ अंग्रेज सैनिकों को मारकर बिना कोई अपनी क्षति होते हुए वापिस दिल्ली में आ जाती।
23 जून 1857, प्लासी के युद्ध के 100 वर्ष, जिस दिन के बाद भारत में अंग्रेजी दासता प्रारम्भ हो गई, इस दिन इन सौ वर्षों को स्मरण करते हुए क्रांतिकारियों की आंखों में क्रोध की ज्वाला भभक उठी। इस दिन अंग्रेजी सेना के साथ भारतीयों का भयंकर युद्ध हुआ। इस दिन के बारे में मेजर रीड लिखता है- “मेरे सारे स्थानों पर विद्रोहियों ने बड़ी दृढ़ता से लड़ाई लड़ी, इससे अधिक पराक्रम से कोई नहीं लड़ सकता। राइफलधारी सिपाहियों पर, मार्गदर्शकों पर और खास मेरे पास के आदमियों पर उन्होंने बार-बार हमले किए और एक बार तो मुझे लगा कि आज हम हार गए”। युद्ध में लड़ते एक अंग्रेज अधिकारी द्वारा ऐसे शब्द लिखना, क्रांतिकारियों के हमले कितने प्रखर हुए होंगे, इसका प्रमाण है।
आसपास से क्रांतिकारियों के दल दिल्ली में एकत्र हो रहे थे और यह संख्या प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी। दिल्ली में अस्त्र-शस्त्र बनाने का कार्य भी चल रहा था, इसलिए इसकी भी कमी क्रांतिकारियों को नहीं थी। जो क्रांति दल आता, अपने साथ अंग्रेजों से लूटे हुए खजाने को भी साथ लेकर आता, अतः धन का भी कोई अभाव नहीं था। 15 जुलाई तक आते-आते दिल्ली में क्रांतिकारियों की संख्या लगभग 20000 हो गई थी और इस कार्य में दिल्ली की आम जनता का तो साथ था ही। अंग्रेजी सेना जो कि 7000 तक संख्या में पहुंच गई थी, के साथ जो भी युद्ध होता, उसमें अंग्रेज सैनिक मरते तो अंग्रेजी सेना के खेमे में निराशा छा जाती। क्रांतिकारी बलिदान होते तो अगले दिन और अधिक उत्साह व जोश से हमला करने को प्रवृत्त होते।
जिस दिल्ली को जीतने के लिए अंग्रेजों के प्रारंभिक विचार ये थे कि एक दिन से अधिक नहीं लगेगा, उस दिल्ली को जीतना तो दूर, उसमें प्रवेश करने के लिए एक महीने तक चले छोटे-बड़े युद्धों के प्रयास के बावजूद अंग्रेजी सेना को निराशा हाथ लगी। दिल्ली को जीतने के लिए अंग्रेजी सेना के दो कमांडर प्रधान सेनापति बर्नार्ड व चेंबरलेन दिल्ली में प्रवेश की बजाए जमीन में दबाए गए और तीसरे सेनापति रीड ने डरकर स्वयं कमांडर पद से इस्तीफा दे दिया। चौथे सेनापति ब्रिगेडियर जनरल विलसन की स्थिति विचित्र बनी हुई थी। देश भर से अंग्रेज अधिकारी उसकी थू-थू कर रहे थे और अलग-अलग टिप्पणी कर रहे थे- “घेरा डालने वाले ही घेरे में फंस गए हैं”। अंग्रेजी सेना के खेमे में चर्चा चल रही थी कि दिल्ली को जीतना तो दूर, प्रवेश करना भी दूभर हो गया है। अब आगे बढ़ने की बजाए पीछे हटना ही ठीक होगा। ऐसी हास्यास्पद स्थिति उस समय अंग्रेजी सेना की हो गई थी। हिन्दुस्थान की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए दिल्ली लड़ती है और दिल्ली लड़ती है…
(लेखक विद्या भारती दिल्ली प्रान्त के संगठन मंत्री और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य हैं।)
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