सनातन संस्कृति, संस्कार और संवेदनाओं के संरक्षक स्वामी सत्यमित्रानंद जी

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—स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज

आर्षविद्या के प्रखर स्वर, समन्वय मंत्र के प्रसारक, प्रस्थानत्रयी की सारितामृत धारा श्रीमत्परमहंस, परिव्राजकाचार्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ अनन्तश्रीविभूषित ब्रह्मलीन पूज्यपाद गुरुदेव श्री स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज अध्यात्म जगत की शिखरस्थ और दिव्य सत्ता हैं।
ब्रह्मलीन पूज्य गुरुदेव के विराट-लोकोपकारी व्यक्तित्व को शब्दों की परिधि में समाहित करना अत्यन्त दुरूह व दुष्कर है। मानवीय चर्म चक्षु संकुचित-सीमित और स्थूल परक हैं। प्रायः मन-बुद्धि और प्रकृति की परिधि के आसपास रहकर भौतिकीय और जात्यिक अनुभव ही हो पाते हैं, किन्तु करुणा-कृपावन्त गुरुसत्ता के अनुग्रह से हमें वे दिव्य चक्षु प्राप्त होते हैं, जिनके द्वारा हम विराट परमात्म तत्व को अनुभूत कर सकें। अतएव, विराट ऐश्वर्य सम्पन्न परमात्मा के सहज साक्षात्कार का निमित्त है-गुरु कृपा!

विश्वभर के अनेक साधक प्रायः मुझसे यह प्रश्न करते हैं कि गुरु के कृपा पात्र बनने की क्या योग्यता है? मैं उनसे यह कहना चाहता हूँ कि शिष्यत्व की साकारता का मूल श्रद्धा है। श्रद्धा में निहित अनन्त सामर्थ्य ही शिष्य के लिए गुरु कृपा का आरम्भिक हेतु अथवा साधन बनती है।
श्रद्धा-विश्वास परायण शिष्य के लिए गुरु अदृश्य किरणों की भाँति शिष्य की मानस ऊर्जा को संवेदित-संचालित करता हुआ उसकी आध्यत्मिक उत्कण्ठा को नवीन स्वर प्रदान करता है। परमात्मा-प्रकृति, नियंता-नियति, विधि और व्यवस्था ने अपनी पारमार्थिक सत्ता व सद्प्रवृत्तियों का निवेश कर ब्रह्मलीन पूज्य गुरुदेव को अद्भुत मानव शिल्पी के रूप में प्रतिस्थापित किया। मैं स्वयं और इस राष्ट्र की अनेक आध्यात्मिक विभूतियाँ उनके अद्भुत शिल्प-सृजन का ही फलादेश हैं। गुरु और परमात्मा उभय रूप में अभेद सत्ता हैं।

ब्रह्मलीन पूज्य गुरुदेव का स्वर मात्र प्रवचनों की श्रृंखला नहीं वरन् जैव-जगत् के उद्धार के प्रति प्रतिबद्धता का उद्घोष है। उन्होंने अपने जीवन काल में साधनहीन, उपेक्षित, वन-बन्धुओं-गिरिवासियों के उत्थान का बीड़ा उठाया। पूज्य गुरुदेव जी कहा करते थे कि पारमार्थिक प्रयत्न ही परमात्मा की अनन्तता को अभिव्यक्त करते हैं। अपने ‘नर सेवा-नारायण सेवा’ के संकल्प की साकारता हेतु वो “शंकराचार्य” पद से सहज विरक्त हो गए। अपने भारत भ्रमण के समय पूज्य गुरुदेव देशवासियों के मध्य आपसी संघर्ष और वैमनस्य और मानवता के कारुणिक पक्षों से अत्यन्त द्रवीभूत हुए। संभवतः उसी कालखण्ड में उन्होंने परस्पर एकात्मता और समन्वय की आवश्यकता को अनुभूत किया होगा।

पूज्य गुरुदेव ने 65 देशों की यात्राएँ कीं। भारत सरकार ने उन्हें “पद्मविभूषण” से अलंकृत किया। मठ-आश्रमों के विस्तार की जगह गुरुदेव का ध्यान संस्कार केन्द्र बनाने में अधिक था। उनके द्वारा बनाया गया विश्वप्रसिद्ध “भारत माता मंदिर” भारतीय धर्म-संस्कृति और जीवन के उच्चतम प्रतिमानों का समग्र शिल्प कहा जा सकता है। देवालय किसी देवता को अर्पित होते हैं, पर इस मंदिर में भारत के इतिहास के जाज्वल्यमान नक्षत्र प्रकाशित हो रहे हैं। गंगा के तट “सप्त सरोवर” पर सन् 1983 में इस भव्य वास्तु ने आकार ग्रहण किया। इस आठ तल के मंदिर में प्रथमतः रेत से बने हुए भारत के मानचित्र के दर्शन होते हैं, जो लाल नीली रोशनी से सजाया गया है। पहली तल पर भारतमाता की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। दूसरी तल पर वीर वीरांगनाएँ तथा तीसरे तल में मातृ मंदिर नारी शक्ति को समर्पित है। चतुर्थ तल पर संतों स्वनाम—धन्य गुरुओं के दर्शन होते हैं। पंचम तल विभिन्न धर्मों की झाँकियों, इतिहास और भारत के भौगोलिक सौंदर्य का दर्पण है। छठें तल पर शक्ति मंदिर में देवियाँ विराजमान हैं। सातवीं तल पर भगवान विष्णु के 10 अवतारों का साक्षात् दर्शन किया जा सकता है। आठवाँ तल प्रकृति, अध्यात्म एवं पर्यावरण के साथ भगवान शिव को निवेदित है।

एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन के प्रस्तोता इस मन्दिर में नित्य, भारत वीरों की आराधना की जाती है। इस मन्दिर से हिमालय, सप्त सरोवर एवं हरिद्वार नगरी के विहंगम दृश्य का आनन्द भी लिया जा सकता है।

भारत माता मन्दिर के अतिरिक्त “समन्वय सेवा ट्रस्ट” पूज्य गुरुदेव का एक गौरवशाली प्रणयन है। इसके अन्तर्गत वेद विद्यालय, दिव्यांग कुष्ठजन सेवा, दृष्टिहीनों की सेवा, शहीद परिवार सेवा, सफाईकर्मी सेवा, वृद्धाश्रम, छात्रावास, चल चिकित्सालय, वनवासी सेवा, समन्वय पुरस्कार प्रकाशन, निःशुल्क अन्नक्षेत्र, फिजियोथेरापी सेन्टर, चिकित्सा वाहन आदि उपक्रम सफलतापूर्वक संचालित किए जा रहे हैं।

आध्यात्मिक जगत के उच्चतम प्रतिमान, भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों के सबल संपोषक, भारत और विश्व में भारतीय संस्कृति के “वैज्ञानिक अध्यात्मवाद” के प्रवक्ता, प्रसारक एवं प्रचारक पूज्य गुरुदेव का सम्पूर्ण जीवन हम सभी के लिए एक आदर्श है। उन्होंने अपनी आध्यात्मिक आभा से राष्ट्र निर्माण के स्वर को आकाशगामी ऊँचाई प्रदान की।
श्रीराम मन्दिर निर्माण के क्षेत्र में भी उनकी भूमिका स्वर्णाक्षरों से लिखी जाएगी। वे सर्वकालिक रूप से न केवल हम अनुचरों के लिए अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए प्रेरक और वन्दनीय सत्पुरुष थे।

अपने किसी पारमार्थिक संकल्प की सिद्धि व समष्टि के कल्याणार्थ परमात्मा ही अपनी विभूतियों के साथ अवतरित होता है, ब्रह्मलीन गुरुदेव हमारे लिए वही नश्वर-अविनाशी और सर्वव्यापक परमात्म तत्त्व हैं, जिसका किसी भी काल में क्षय नही होता !!
मेरा यह जीवन और उसकी सम्पूर्ण उपलब्धियाँ पूज्य गुरुदेव भगवान की ही करुणा और कृपा का प्रसाद है।

(लेखक जूनापीठाधीश्वर आचार्यमहामण्डलेश्वर और समन्वय सेवा ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं)

 

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