आपातकाल पर बहुत सारी पुस्तकें हैं। इनमें अधिकतर पुस्तकें अंग्रेजी में हैं, लेकिन हिंदी में भी बहुत अच्छी पुस्तकें आने लगी हैं। इनमें एक है- ‘इमरजेंसी का कहर और सेंसर का जहर।’
आपातकाल पर बहुत सारी पुस्तकें हैं। इनमें अधिकतर पुस्तकें अंग्रेजी में हैं, लेकिन हिंदी में भी बहुत अच्छी पुस्तकें आने लगी हैं। इनमें एक है- ‘इमरजेंसी का कहर और सेंसर का जहर।’ इसके लेखक हैं देश के जाने-माने पत्रकार और आपातकाल में जेल जाने वाले बलबीर दत्त। पुस्तक में आपातकाल की आड़ में किए गए काले कारनामों और करतूतोें को बहुत ही विस्तार से बताया गया है। विशेषकर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया को किस तरह से दबाया गया, उसे जानने के लिए पुस्तक में पर्याप्त सामग्री है। यही नहीं, लेखक ने उन पत्रकारों की भी पोल खोली है, जिन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के गुणगान में सारी हदें पार कर दी थीं।
पुस्तक में एक अध्याय है- ‘…ताकि सनद रहे।’ इसमें इंदिरा गांधी और उनके छोटे पुत्र संजय गांधी के अहंकारपूर्ण बयानों के अलावा, उनके कुछ दरबारियों के साथ ही कुछ विरोधी नेताओं के बयान हैं। उन बयानों को पढ़कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उन दिनों इंदिरा के ‘दरबारी’ किस तरह की चापलूसी करते थे। वरिष्ठ कांगे्रसी नेता य ावंत राव चह्वाण का एक बयान देखिए, ‘‘जो इंदिरा के साथ बीतता है, वही भारत के साथ बीतता है और जो कुछ भारत पर गुजरता है, वही कुछ इंदिरा पर गुजरता है।’’ तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो संजय गांधी की तुलना शंकराचार्य से कर दी थी। उन्होंने कहा था, ‘‘संजय गांधी हमारे नए शंकराचार्य और विवेकानंद हैं।’’ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सीताराम केसरी ने कहा था, ‘‘संजय गांधी भारत के युवा ह्दय सम्राट हैं और उनके हाथों में अगले 50 वर्ष के लिए देश का भविष्य सुरक्षित है।’’ इन्हीं सीताराम केसरी को सोनिया गांधी ने बेइज्जत करके कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया था और खुद अध्यक्ष बनी थीं और आज भी वही इस पद पर हैं। मार्च, 1977 में एक चुनावी भाषण में संजय ने कहा था, ‘‘विपक्ष के नेता कीड़ों की तरह हैं, जिन्हें कुचल देना चाहिए।’’ उनके इस बयान पर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह परिवार अपने विरोधियों को किस रूप में देखता रहा है।
‘इमरजेंसी के रोचक प्रसंग, विचित्र प्रसंग’ शीर्षक अध्याय 32 उपशीर्षकों में बंटा हुआ है। इसमें पहला है-‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद-जिंदाबाद के कारण जेल।’ इसमें बताया गया है कि आपातकाल के विरोध में कुछ अखबारों ने संपादकीय का स्थान रिक्त छोड़ दिया था। इनमें ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘फाइनेंशियल एक्सप्रेस’, ‘अमर उजाला’, ‘नई दुनिया’, ‘दैनिक जागरण’, ‘रांची एक्सप्रेस’, ‘मेन स्ट्रीम’ आदि थे। संपादकीय स्थान को खाली रखना सरकार को अच्छा नहीं लगा और इन अखबारों से इसके बारे में जवाब-तलब किया गया। वहीं वाराणसी से प्रकाशित दैनिक ‘गांडीव’ ने संपादकीय की पूरी जगह पर ‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद’, ‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद’ लिखकर कटाक्ष किया था। इस कारण इसके संपादक भगवानदास अरोड़ा को जेल भेज दिया गया। इसी अध्याय में ‘मदरलैंड’ के संपादक के.आर. मल्कानी के बारे में लिखा गया है कि उन्हें 25-26 जून की मध्यरात्रि में सोते हुए से जगाकर गिरफ्तार किया गया।
आमतौर पर किसी पुस्तक में प्रस्तावना से पहले कुछ नहीं बताया जाता है, लेकिन इसमें प्रस्तावना से पूर्व ही छह पन्नों में 1971 से 1980 तक की प्रमुख घटनाओं की सूची दी गई है।
पुस्तक आठ खंड में विभाजित है। पहला खंड सबसे लंबा है। इसमें कुल 28 अध्याय हैं। पुस्तक की प्रस्तावना में विस्तार से बताया गया है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके वफादार अपने को देश से ऊपर समझते थे। लेखक ने प्रस्तावना में लिखा है, ‘‘इंदिरा गांधी ने अपने निजी संकट को राष्ट्रीय संकट बना दिया और अदालत का फैसला मानने के बजाय संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया को कुचलकर रख दिया। विपक्ष के प्राय: सभी प्रमुख नेताओं और करीब डेढ़ लाख पार्टी कार्यकर्ताओं और अन्य नागरिकों को बिना मुकदमा चलाए जेल में डाल दिया। इनमें करीब 250 पत्रकार भी थे। लोगों को भांति-भांति की ज्यादतियों और पुलिस जुल्म का सामना करना पड़ा। समाचारों पर कठोर सेंसर लगा दिया गया। यह इमरजेंसी का ब्रह्मास्त्र साबित हुआ। जो कार्य अंग्रेजों ने नहीं किया, वह इंदिरा गांधी की सरकार ने कर दिखाया।’’
1975 की इमजेंसी से पहले स्वतंत्र भारत में दो बार लगाई गई आपातकालीन स्थितियों का भी कुछ ब्योरा दिया गया है। इनका तुलनात्मक विवेचन भी किया गया है। आमतौर पर इस पहलू की भी उपेक्षा हुई है। भारत में आपतकाल पर विदेशों में क्या प्रतिक्रिया हुई थी या वहां क्या हो रहा था, उसका भारत में क्या प्रभाव पड़ रहा था, इसका भी उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है।’’
प्रस्तावना में ही एक जगह लिखा गया है, ‘‘इमरजेंसी की गाथा ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इतनी विशाल है कि इसे 400-500 पृष्ठ की पुस्तक में नहीं समेटा जा सकता। बहुत-सी बातें समय बीतने पर मालूम हुर्इं। इसलिए नई-नई जानकारियों के साथ भी पुस्तकें आती रहनी चाहिए। कुछ पुस्तकें आर्इं, लेकिन अभी भी नई पुस्तकों की गुंजाइश बनी हुई है। इतने विशाल देश के अलग-अलग क्षेत्रों में इमरजेंसी के दौरान जो कुछ हुआ, उसका कोई सुनियोजित या तर्कसंगत ढंग से संकलन और वर्गीकरण नहीं हुआ।
इमरजेंसी के विभिन्न पहलुओं पर अभी भी काफी शोध व खोजबीन की जरूरत है। यह नहीं कहा जा सकता कि इस पुस्तक में इमरजेंसी के बारे में सब कुछ आ गया है। फिर भी इस पुस्तक में 1975 की इमजेंसी से पहले स्वतंत्र भारत में दो बार लगाई गई आपातकालीन स्थितियों का भी कुछ ब्योरा दिया गया है। इनका तुलनात्मक विवेचन भी किया गया है। आमतौर पर इस पहलू की भी उपेक्षा हुई है। भारत में आपतकाल पर विदेशों में क्या प्रतिक्रिया हुई थी या वहां क्या हो रहा था, उसका भारत में क्या प्रभाव पड़ रहा था, इसका भी उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है।’’
पुस्तक के अंतिम और आठवें खंड में दो अध्याय हैं-‘प्रेस के दमन की तालिका’ और ‘आभार ज्ञापन’। ‘प्रेस के दमन की तालिका’ में राज्यवार बताया गया है किस राज्य में कितने पत्रकारों को नजरबंद या गिरफ्तार किया गया कि ऐसे पत्रकारों की संख्या 253 बताई गई है। उन 50 पत्रकारों, कार्टूनिस्ट और कैमरामैन की सूची भी दी गई है, जिनकी मान्यता सरकार ने रद्द कर दी थी। आपातकाल में 18 समाचार पत्रों को प्रतिबंधित किया गया था। इनमें से एक ‘पाञ्चजन्य’ भी था। वास्तव में यह पुस्तक उन लोगों के लिए बहुत ही उपयोगी है, जो राजनीति में विशेष रुचि
रखते हैं। राजनीतिशास्त्र के छात्रों को तो यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।
हालांकि पुस्तक में कुछ कमियां में भी हैं। कई शीर्षक आकर्षक नहीं हैं, वहीं प्रूफ की अशुद्धियां भी हैं। आशा की जानी चाहिए अगले संस्करण में इन कमियों को दूर किया जाएगा।
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