सनातन दर्शन में सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानी गयी है। इसी कारण ऋषि मनीषा ने नाद को ब्रह्म की संज्ञा दी है। तमाम वैदिक साक्ष्य इस बात का प्रमाण हैं कि नृत्य, संगीत और वाद्ययंत्रों का अविष्कार भारत में ही हुआ। सामवेद में संगीत के वाद्य यंत्रों पर विस्तार से वर्णन है। पांचवीं शताब्दी में मतंग मुनि ने संगीत के बारीक पहलुओं पर ‘वृहददेखी’ की रचना की थी।
सनातन संगीत परम्परा के विभिन्न वाद्ययंत्रों का इतिहास प्रकारान्तर से मानवीय सभ्यता और संस्कृति का इतिहास है। इनकी विशिष्टता यह है कि इनके मूल में प्रकृति का नाद निहित है। समुद्र की गर्जना, बादलों की गड़गड़ाहट, नदियों का कल-कल, शिशु का रुदन, पक्षियों का कलरव, बिजली की तड़क, गाय व बैलों की घंटियों का निनाद, चूड़ियों की खनक, कोयल की कूक, मंदिरों का शंखनाद एवं घंटा ध्वनि के स्वर भारतीय संगीत की आत्मा के परिचायक हैं। ये प्रकृति प्रदत्त स्वर मानव जीवन में जन्म से मृत्यु तक सतत अपनी उपस्थिति से रस और लय का संचार करते हैं। इसीलिए कबीर ने लोकवाद्यों से निकली झंकार को अनहद नाद की संज्ञा दी है। देव प्रतिमाओं के अलंकरण में अस्त्र-शस्त्रों के साथ वाद्यों का भी प्रयुक्त होना संगीत की इसी महत्ता को प्रतिपादित करता है। इन पवित्र वाद्य यंत्रों की पवित्र ध्वनियां न सिर्फ हमारे मन-प्राण को आनंदित करती हैं अपितु अब तो आधुनिक विज्ञान भी इनकी चिकित्सीय क्षमता का लोहा मान चुका है।
भगवान शिव का डमरू
पौराणिक मान्यता है कि सृष्टि में संगीत भगवान शिव के डमरू के नाद से ही उत्पन्न हुआ है। माना जाता है कि संगीत पहले सिर्फ देवताओं के लिए था। भगवान शिव ने डमरू बजाकर लास्य तांडव करते हुए सुरों को बंधन से मुक्त किया तब संगीत मनुष्यों के लिए उपलब्ध हुआ। प्राचीन समय में भारत और तिब्बत के साधु नर-खोपड़ियों के ऊपरी भाग की हड्डी से डमरू के दोनों सिरों को बनाते थे। वे ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि शास्त्रों के अनुसार हमारे मस्तक के शिरो-भाग में ब्रह्मनाद की तरंगे निरंतर गुंजायमान रहती हैं। इसलिए प्रतीक के तौर पर वे नर-खोपड़ी के ऊपरी भाग से बने डमरू को बजाते थे ताकि समस्त जन को यह संदेश पहुंच सके कि शिव के डमरू से निसृत जो अनहद नाद (ओंकार की ध्वनि) इस विश्व ब्रह्मांड में गूंज रहा है, वही हम सबके भीतर भी बज रहा है। शिव का डमरू वस्तुत: ‘ब्रह्मनाद’ का ही द्योतक है। यह ब्रह्मनाद हमारे वेद-उपनिषद में भी गुंजायमान है। श्री गुरुग्रंथ साहिब में भी वर्णित है – ‘’सबदे धरती सबदे आगास, सबदे सबदि भइआ परकास!’’ अर्थात् ब्रह्म नाद से ही धरती बनी, आकाश बना, सृष्टि के प्रत्येक रचना में इसी नाद की तरंग है। दक्षिण भारत के महान संत वेमना तेलुगु भाषा में कहते हैं-‘’नादु नादु कूडि नामरूपं बैन!’’ अर्थात् नाद ही इस सकल नामरूप जगत का आधार है। योगियों के अनुसार वैसे तो योग-प्राणयाम के सतत अभ्यास द्वारा प्राण की गति पर संतुलन साधा जा सकता है परन्तु नाद ब्रह्म की साधना से सहज ही हमारा मन ब्रह्म में स्थिर हो सकता है। भगवान शिव (आशुतोष) के डमरू का ब्रह्मनाद शुभता, मंगलमय जीवन, दिव्यता के विकास का प्रतीक है।
वाग्देवी की वीणा
मां सरस्वती को वीणापाणि भी कहा जाता है। मान्यता है कि सृष्टि की जीवों की रचना के उपरांत ब्रह्मा जी के कहने पर मां सरस्वती ने णा के तारों को स्पंदित कर सृष्टि में वाणी का संचार किया था। इसीलिए हमारे पुरातन वाद्य यंत्रों में वीणा बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। ऋषि याज्ञवल्क्य के अनुसार वीणा की धुन सीधे ईश्वर से संबंध स्थापित करती है। जिन्हें वीणा बजाने में महारथ हासिल हो जाती है, उन्हें बिना प्रयास के ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। माँ वाग्देवी के हाथ में स्थित वीणा बहुत कुछ दर्शाती है। इसे ज्ञान वीणा कहा गया है। मां सरस्वती इस वीणा के ऊपरी भाग को अपने बाएं हाथ से व निचले भाग को अपने दाएं हाथ से थामे नजर आती हैं। यह शैली ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में निपुणता के साथ उनपर नियंत्रण की भी परिचायक है। कम ही लोग इस रोचक तथ्य से परिचित होंगे कि माँ वीणापाणि की यह कच्छपी वीणा दर्शाती है कि जिस तरह निष्क्रियता के काल में कच्छप अपनी सभी इन्द्रियों को हटा लेता है, उसी तरह मनुष्य को भी अपनी इन्द्रियों और इच्छाओं को नियंत्रित रखना आना चाहिए।
श्रीहरि विष्णु का शंख
समुद्र मंथन से निकले 14 अनमोल रत्नों में एक रत्न शंख भी था। चूंकि इसी सागर मंथन से देवी लक्ष्मी भी प्रकट हुईं थीं, इसी कारण शंख को लक्ष्मी का भाई कहा जाता है जिसे जगत पालक श्रीहरि विष्णु ने अपने वाद्य के रूप में ग्रहण किया था। मान्यता है कि इस मंगल चिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा-आराधना, अनुष्ठान-साधना, आरती, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता। हिन्दू मान्यता के अनुसार, शंख बजाने से ओम् की मूल ध्वनि का उच्चारण होता है। भगवान ने सृष्टि की रचना के बाद सबसे पहले ओम् शब्द का ही नाद किया था। इसलिए हर शुभ अवसर और नवीन कार्य पर शंख-ध्वनि की जाती है। इसके नाद से सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है और मस्तिष्क के विचारों में भी सकारात्मक बदलाव आ जाता है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार शंख के मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्रभाग में गंगा और सरस्वती का निवास माना गया है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। हिन्दू परंपरा के अनुसार जीवन के चार पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में शंख को धर्म का प्रतीक माना जाता है। जगन्नाथपुरी को ‘शंख-क्षेत्र’ इसीलिए कहा जाता है क्योंकि इसका भौगोलिक आकार शंख के समान है। महाभारत के धर्मयुद्ध का आरम्भ इसी शंखध्वनि से हुआ था। इस युद्ध का शंखनाद भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख बजाकर किया था। इस युद्ध में अर्जुन ने देवदत्त, युधिष्ठिर ने अनंत विजय, भीष्म ने पोड्रिक, भीमसेन ने पौंड्र, नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख बजाया था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शंख तीन प्रकार के माने गये हैं- दक्षिणावर्ती शंख, मध्यावर्ती शंख और वामावर्ती शंख। इनमें दक्षिणावर्ती शंख को सबसे शुभ माना गया है। वास्तुशास्त्र के अनुसार भी शंख में ऐसे कई गुण होते हैं, जिससे घर में सकारात्मक ऊर्जा आती है और वातावरण में मौजूद कई तरह के कीटाणुओं का नाश हो जाता है।
श्रीकृष्ण की बांसुरी
दैवीय वाद्यों में लीलाधर कृष्ण के वाद्य बांसुरी की गणना भी प्रमुखता से होती है। बांसुरी कृष्ण को इतनी प्रिय क्यों है, इस बाबत एक रोचक पौराणिक कथानक है। कहते हैं कि द्वापर युग में श्री विष्णु के कृष्णावतार में जब देवी-देवता वेश बदलकर उनसे मिलने धरती पर जाने लगे तो भगवान शिवजी भी अपने प्रिय से मिलने से खुद को रोक न सके। वे श्री कृष्ण को कोई ऐसा उपहार देना चाहते थे जिसे वे सदैव अपने पास रखें। तभी महादेव को याद आया कि उनके पास उनके परम तेजस्वी भक्त महाबलिदानी दधीचि की एक अस्थि पड़ी है। वही देहदानी दधीचि जिनकी अस्थियों से विश्वकर्मा ने पिनाक, गाण्डीव, शारंग नामक तीन धनुष तथा इंद्र के लिए वज्र का निर्माण किया था। महादेव ने उस अस्थि से एक सुन्दर बांसुरी का निर्माण किया और गोकुल में श्रीकृष्ण से भेंट के दौरान उन्हें वह उपहार में दी। तभी से वह बांसुरी भगवान श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय हो गयी।
बांसुरी को वंशी भी कहा जाता है, यदि हम वंशी का उल्टा करें तो शिवम् होता है। ये बांसुरी शिव का ही एक रूप है। शिव वो हैं जो संपूर्ण संसार को अपने प्रेम के वश में रखने में सक्षम है। उनका व्यवहार और वाणी दोनों ही बांसुरी की तरह मधुर है। कृष्ण के बांसुरी प्रेम के पीछे मुख्य रूप से तीन कारण हैं। पहला, बांसुरी में गांठ नहीं है। वह खोखली है। इसका अर्थ है अपने अंदर किसी भी तरह की गांठ मत रखो। चाहे कोई तुम्हारे साथ कुछ भी करे बदले कि भावना मत रखो। दूसरा, बिना बजाए बजती नहीं है, यानी जब तक ना कहा जाए तब तक मत बोलो। बोल बड़े कीमती है, बुरा बोलने से अच्छा है शांत रहो। तीसरा, जब भी बजती है मधुर ही बजती है। मतलब जब भी बोलो तो मीठा ही बोलो। जब भगवान ऐसे गुण किसी में देखते है, तो उसे अपना प्रिय बना लेते हैं।
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