उत्तराखण्ड में देखा जाए तो जिला नैनीताल अंग्रेजों के समय से ही सेब उत्पादन में अपना एक अलग मुकाम रखता है। नैनीताल का रामगढ़ और धारी क्षेत्र में फल पट्टी के रूप में पूरे भारत में विख्यात है। दुनिया में होने वाले सेब की बेहतरीन प्रजातियों को इस क्षेत्र के बागवानों ने सफलता पूर्वक पूर्व में अपने बागों में उत्पादित किया है, लेकिन समय के साथ-साथ अब नई सेब की प्रजातियां बाजार में आ गई हैं और पुरानी प्रजाति के सेब चलन से बाहर हो रहे हैं।
मनाघेर के रहने वाले नारायण सिंह पिछले 20 सालों से दिल्ली एनसीआर में नौकरी कर रहे थे। एक दिन उनके पिता ने अपने सेब के बाग में उनसे कहा कि अब मेरी उम्र हो रही है लिहाजा इस बाग की देखभाल अब तुम्हारे हवाले है। नारायण सिंह ने अपने पिता की आंखों में एक जरूरत दिखी मानो वो कह रहे हों कि तुम अपने घर अपने पहाड़ वापस आ जाओ। नारायण सिंह ने अपनी नौकरी का अनुबंध पूरा किया और पहाड़ अपने घर लौट आए। घर पर पुश्तैनी सेब के बाग को फिर से हरा भरा करने का संकल्प लिया।
दरअसल जो सेब का पुश्तैनी बगीचा था वो अंग्रेज शासन काल में लगाया था। अंग्रेज जो सेब के पौधे यहां इस क्षेत्र में लाये थे उन पौधों में अब वायरस आ चुका था। सेब की फसल टेढ़ी और खट्टी आने लगी है। नारायण सिंह ने डच सेबों की प्रजाति के पौधों को अपने यहां प्रयोग के तौर पर लगाया। हालांकि उनका मन था कि पहले पुराने पेड़ों को उखाड़ दिया जाए और नई किस्म की सेब की प्रजाति को लगा दिया जाए, लेकिन उनके परिवार इसके लिए सहमत नही होंगे। इसलिए उन्होंने वैज्ञानिक तरीके से पहले दो साल में ही नई सेब की फसल को हासिल किया।
सेब की ये प्रजाति वायरस फ्री थी और बाजार में बिक रहे विदेशी सेबों को टक्कर दे रही थी। ऐसी फसल पाने के बाद उन्होंने पुराने ब्रिटिश कॉल में लगे सभी पेड़ों को उखाड़ने कि मौन स्वीकृति अपने परिवार से हासिल कर नए पेड़ लगाए और देखते ही देखते दो-तीन सालों में शानदार सेब का उत्पादन होने लगा। उत्तराखंड में पिछला एक दशक सेब बागवानों के लिए बड़ा ही चुनौतीपूर्ण रहा है। रामगढ़ एवं धारी क्षेत्र में भूमि उपयोग असाधारण रूप से परिवर्तित हो गया है। बड़े बागों के स्थान पर रिसोर्ट होटल, आवासीय भवन बनने लगे हैं, जिस कारण यहां के सेब बागवानी नष्ट होने लगी। मौसम परिवर्तन अवैज्ञानिक ज्ञान प्रसार ने भी सेब की खेती को नुकसान पहुंचाया।
नारायण सिह ने आसपास के ग्रामवासियों को भी अपने खेत पर लेजाकर समझाया कि आप भी ऐसा करके अच्छी आमदनी कर सकते हैं। ग्रामवासी आज नारायण सिंह के साथ जुड़ रहे हैं और पुश्तैनी सेब के बगीचों को फिर से संवार रहे हैं। नारायण सिंह ने अपनी पुश्तैनी भूमि में जो मेहनत से काम किया आज उनके बगीचे में सेब के 1000 पेड़ हैं, जिसमें 250 पेड़ फल उत्पादन करने लगे हैं। डच सेब की प्रजातियां गालाए स्कारलेट, किंगरोट, जेरोमाईन आदि हैं। नारायण सिंह पढ़े लिखे हैं और सेब की खेती का अध्ययन करते करते वैज्ञानिक विधियां अपना कर सेब की खेती को कर रहे हैं।
पेड़-पौधों की सिंचाई के किए ड्रिप इरिगेशन का उपयोग करते हैं पूर्व में जहां एक नाली भूमि में 10 पेड़ लगाते थे अब वे 50 पेड़ों को लगा रहे हैं, जिसमें सेब का उत्पादन पांच गुना बढ़ गया है। बगीचे के मध्य नारायण सिंह ने मटर, लहसुन जैसी फसलों को उगाना शुरू कर दिया है जोकि बहुत फायदेमंद है वर्तमान में 10 से 15 नाली में सेब की खेती कर रहे हैं। साथ ही कीवी, पुलम, आडू आदि फसलों को भी अब लगाने लगे हैं। नारायण सिंह अपने फार्म को जो कि ‘मालती आचर्ड’ से जाना जाता है। अब इसको एक प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में विकसित कर रहे हैं ताकि पहाड़ के युवाओं को वहीं पुश्तैनी रोजगार से जोड़ सकें।
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