मैं संघ का स्वयं सेवक हूं और मोदी जी का तार्किक समर्थक। सेना में 23 वर्ष तक नौकरी भी की है। अग्निवीर योजना पर देश भर में घमासान चल रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि युवा अपने देश के संसाधनों को फूंक रहे हैं और उसका कठोर दण्ड मिलना ही चाहिए।
परंतु अग्निवीर योजना की खामियां, उसका लागू करने का तरीका और उस के समर्थन में दिए जा रहे तर्क बिलकुल बचकाने और अतार्किक हैं। सरकार के प्रवक्ता अग्निपथ से अग्निवीरों को होने वाले पैसे के लाभ गिना रहे हैं। कई मैसेज तो खुले आम युवाओं को ताने मार रहे हैं कि बीड़ी सिगरेट पीने की उमर में लाखों कमाने का “अवसर” मिल रहा है, जाओ “फायदा” उठाओ!
समस्या यही है, सरकार और वो लोग सिर्फ अग्निवीर को मिलने वाले धन और बैंक बैलेंस की बातें कर रहे हैं। भारत को और सेना को उससे क्या लाभ होगा, कोई नहीं बता पा रहा, क्योंकि वो सेना की शक्ति के बारे में नहीं जानते।
सेना की नौकरी बैंक बैलेंस से कहीं ज्यादा है। ये सच है कि शुरू में लोग नौकरी पकड़ने ही सेना में जाते हैं, लेकिन वहां जाने के बाद उनकी यूनिट एक परिवार की तरह चलती है और उस परिवार की एकता और माहौल ही युद्ध में जीत या हार का कारण बनती है। युद्ध में सैनिक देश के लिए कम और अपने उस परिवार के सैनिक के लिए ज्यादा जान देने को तैयार रहते हैं। इतिहास भरा पड़ा है कि जहां विशाल सज्जित सेनाएं युद्ध हार गई वहीं उन्ही की एक टुकड़ी जीती भी। उसका कारण मात्र उस टुकड़ी की एकता और लोकल नेतृत्व से ऐसा होता है।
जहां कॉरपोरेट आज “टीम बिल्डिंग” सेना से सीख रहे हैं वहां हम भाड़े के सैनिक विदेशों से सीख रहे हैं और टीम व्यवस्था को ध्वस्त कर रहे हैं। सेना की एक यूनिट, वो परिवार रिटायरमेंट के बाद, अंतिम सांस तक भी बना रहता है। जब वो ही अस्थाई हो जायेगा तो युद्ध में जवान कभी भी पैसे के लिए जान नहीं देगा बराबर में खड़े सैनिक के प्रति उसकी प्रतिबद्धता सीमित होगी। आखिर आपने तो उसे पैसे का लालच देकर ही भर्ती किया था ना, तो वोही उसके लिए केंद्र बिंदु रहेगा, कुछ और नहीं।
पर दुर्भाग्य से इस बात को सिर्फ पैसे का गणित करने वाले लोग, जिन में हमारे प्रधानमंत्री भी हैं, समझ ही नही पा रहे। एक भद्दा तर्क दिया जा रहा की कनपटी पर बंदूक रख के भर्ती थोड़े ही किया रहा है। लोकतंत्र में कनपटी पर बंदूक रख कर कोई भर्ती नहीं किया जा सकता। पर सेना में स्व स्फूर्त होकर सब से अच्छे युवा जाएं, वो ही भारत और राष्ट्रवादियों के हित में है। पर घोर अफसोस वही राष्ट्रवादी सेना को मात्र “धंधा” बना रहे है। सिर्फ पैसा बचाने के लिए। सोचता हूं जो भारत 50 से 90 के “गरीब” दशकों में भी अपनी सेना का वहन कर सकता था, आज 1.5 लाख करोड़ टैक्स हर माह के बावजूद सिर्फ पैसा पैसा कर रहा है? क्या भारत अब अमीर है या पहले अमीर था? ये बात ठीक है कि पेंशन फंड बचना चाहिए, पर उसके और भी बहुत अच्छे सुलभ तरीके हैं। अगर सरकार पहले खुल कर इस पर चर्चा करती तो लोग और खुद अनुभवी सैनिक आगे बढ़ के सुझाव देते। पर अब किसान आंदोलन की तरह सड़कों पर युद्ध होगा, मेरे जैसे हजारों लोग सलाह देंगे, सरकार हर रोज अधकचरे तरीके से नए बदलाव की घोषणा करेगी, और सेना का भर्ती सिस्टम तबाह हो जायेगा। ये सब पहले विस्तृत चर्चा और पारदर्शी तरीके से योजना बनाने से टाला जा सकता था। पर दुर्भाग्य, अब देश की रीढ़ की हड्डी पर राजनीति और उत्पात हो रहा है। पहले हाय किसान हुआ, अब हाय जवान।
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