ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिण ध्रुव ही नहीं, हिमालय के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे। यह पहला अवसर है, जब तापमान में रिकॉर्ड वृद्धि के कारण दोनों ध्रुवों के ग्लेशियर एक साथ पिघलने लगे हैं। अगर हम अब भी नहीं संभले तो दुनिया महाप्रलय से नहीं बचेगी
जलवायु परिवर्तन से देश और दुनिया में बहुत तेज गति से बदलाव आ रहे हैं। धरती के किसी हिस्से में बहुत अधिक गर्मी पड़ रही है, तो कहीं बहुत अधिक ठंड। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बड़े पैमाने पर ग्लेशियर पिघल रहे हैं। पिछले दिनों पृथ्वी के दो सिरे कहे जाने वाले दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव में तापमान में अचानक आई उछाल ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। बीते मार्च में आर्कटिक पर मौसम में औसत 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक की बढ़ोतरी दर्ज की गई। वहीं, नॉर्वे और ग्रीनलैंड में रिकॉर्डतोड़ गर्मी पड़ रही है। अंटार्कटिक और आर्कटिक, दोनों ध्रुवों पर तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि दुनिया के लिए खतरे की घंटी है।
19 मार्च, 2022 को पूर्वी अंटार्कटिक में कुछ जगहों पर तापमान औसत से 40 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया। मौसम विज्ञानी इटिएने कापीकियां ने ट्वीट कर बताया कि समुद्र से 3,234 मीटर ऊंचाई पर स्थित कॉनकॉर्डिया मौसम स्टेशन पर -11.5 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया, जो अब तक का सबसे अधिक है। इसी तरह, अंटार्कटिक के ही वोस्तॉक स्टेशन पर तापमान में 15 डिग्री से अधिक की उछाल आई। मौसमी घटनाओं पर नजर रखने वाले मैक्सीमिलानो ने ट्वीट किया कि टेरा नोवा बेस पर तापमान सामान्य से 7 डिग्री ज्यादा था। यही हाल धरती के दूसरे सिर का भी है।
पृथ्वी पर बर्फ का यह विशाल भंडार प्राचीन काल से है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण ये ग्लेशियर अब पिघल रहे हैं। इससे दुनिया के उन लोगों पर असर पड़ेगा, जिनके लिए ग्लेशियर ही पानी का मुख्य स्रोत है। हिमालय के ग्लेशियरों से 25 करोड़ आबादी और नदियों को पानी मिलता है, जो करीब 1.65 करोड़ लोगों के लिए भोजन, ऊर्जा और कमाई का जरिया हैं
आस्ट्रेलिया की एक जलवायु वैज्ञानिक और न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय की शोधार्थी जोई थॉमस के अनुसार, हाल की मानवीय गतिविधियों ने ग्लोबल वार्मिंग को तेज कर दिया है। इसके कारण अंटार्कटिक में बड़े पैमाने पर बर्फ पिघल सकती है। हाल ही में वैज्ञानिकों की टीम ने अंटार्कटिक में ग्लेशियर के पिघलने को लेकर एक शोध पत्र प्रकाशित किया था। थॉमस भी अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की इस टीम का हिस्सा थीं। इस शोध पत्र में कहा गया है कि अगर वैश्विक गर्मी और बढ़ी तो पश्चिमी अंटार्कटिक में बर्फ की चादर का बड़ा हिस्सा पिघल सकता है। बर्फ की यह चादर समुद्र के तल में स्थित है, जिसके चारों ओर बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े तैर रहे हैं। थॉमस का कहना है, ‘‘पश्चिमी अंटार्कटिक में बर्फ की चादर पिघलने लगी है। एक बार हम एक विशेष सीमा रेखा तक पहुंच गए तो फिर हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद इसे पिघलने से नहीं रोका जा सकता।’’
एक साथ पिघल रहे दोनों ध्रुव
वास्तव में अंटार्कटिक और आर्कटिक पर एक साथ एक जैसी घटना अकल्पनीय लगती हैं, क्योकि इन दोनों जगहों की प्रकृति बिल्कुल भिन्न है। पृथ्वी के दक्षिणी धु्रव अंटार्कटिक पर इस समय दिन छोटे होते हैं, इसलिए वहां ठंड बहुत अधिक होनी चाहिए। ठीक इसी समय उत्तरी ध्रुव यानी आर्कटिक सर्दी से बाहर निकल रहा होता है। यहां मौसम बिल्कुल विपरीत होता है। इसलिए हम उत्तरी और दक्षिणी धु्रव को एक समय पर पिघलते नहीं देख पाते। लेकिन इस बार ऐसा हुआ है। यह पूरी दुनिया के लिए खतरे की घंटी है, जिस पर तत्काल सभी देशों को ध्यान देना चाहिए। साथ ही, दुनिया भर के देशों को ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाने चाहिए।
इंटर गवर्मेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2015 और इससे एक दशक पहले ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक में हर साल करीब 400 अरब टन बर्फ की चादर कम हुई है। इसके कारण महासागरों का तल हर साल करीब 1.2 मिलीमीटर बढ़ा है। इसी दौर में पहाड़ों के ग्लेशियर पिघले और हर साल करीब 280 अरब टन बर्फ पिघली। इस वजह से समुद्र का तल हर साल 0.77 मिलीमीटर बढ़ा। धरती पर करीब दो लाख ग्लेशियर हैं। पृथ्वी पर बर्फ का यह विशाल भंडार प्राचीन काल से है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण ये ग्लेशियर अब पिघल रहे हैं। इससे दुनिया के उन लोगों पर असर पड़ेगा, जिनके लिए ग्लेशियर ही पानी का मुख्य स्रोत है। हिमालय के ग्लेशियरों से 25 करोड़ आबादी और नदियों को पानी मिलता है, जो करीब 1.65 करोड़ लोगों के लिए भोजन, ऊर्जा और कमाई का जरिया हैं।
सिकुड़ रहा हिमालय
हिमालय को ‘तीसरा ध्रुव’ कहा जाता है। यह अंटार्कटिक और आर्कटिक के बाद बर्फ का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण इसके ग्लेशियर 10 गुना अधिक तेजी से पिघल रहे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, 400 से 700 साल पहले के मुकाबले पिछले कुछ दशकों में हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघले हैं। वर्ष 2000 के बाद इसमें तेजी आई है। साइन्स जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक शोध के अनुसार इससे एशिया में गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी के किनारे रहने वाले करोड़ों भारतीयों के लिए पानी का संकट खड़ा हो सकता है।
ब्रिटेन की लीड्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार, ‘लिट्ल आइस एज’ यानी 16वीं से 17वीं सदी के मुकाबले आज हिमालय की बर्फ औसतन 10 गुना अधिक गति से पिघल रही है। 16वीं-17वीं सदी के दौरान पहाड़ों पर ग्लेशियर का विस्तार हुआ था। वैज्ञानिकों की मानें तो दूसरे ग्लेशियर के मुकाबले हिमालय के ग्लेशियर ज्यादा रफ्तार से पिघल रहे हैं।
खतरे में देश के कई शहर
भारत तीन तरफ से हिंद महासागर से घिरा है। आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण भारत आर्थिक रूप से सर्वाधिक प्रभावित देश है। इस सदी के अंत तक समुद्र का स्तर बढ़ने के कारण मुंबई, चेन्नई, गोवा, कोच्चि ओर विशाखापत्तनम सहित देश के 12 तटीय शहर डूब जाएंगे। इन शहरों में करीब तीन फीट पानी भर जाएगा। इससे 4.5 से 5 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले का कलिंगपत्तनम नामक एक गांव इसका एक उदाहरण है। यह गांव पहले समुद्र से 500 मीटर दूर था। अब समुद्र इसके ठीक बगल में है। इसी तरह, ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले के सतभया में 7 गांव समुद्र में डूब गए। इन इलाकों में रहने वाले लोगों को दूसरी जगह बसाया गया।
पश्चिम बंगाल का सुंदरवन क्षेत्र की स्थिति और भी गंभीर है। यहां 104 द्वीपों में से 54 पर बसावट है। समुद्र का स्तर बढ़ने के कारण दशकों से इसके तटों में कटाव हो रहा है। सुंदरवन डेल्टा क्षेत्र में समुद्र औसतन सालाना 8 मिलीमीटर की गति से बढ़ रहा है। यह वृद्धि वैश्विक औसत से अधिक है। नतीजा, सुंदरवन और इसका डेल्टा क्षेत्र हर साल 2-4 मिमी. पानी में डूब रहा है। सदी के अंत तक यह क्षेत्र डूब सकता है।
वैज्ञानिकों की टीम ने ‘लिट्ल आइस एज’ के दौरान हिमालय की स्थिति का पुनार्वलोकन किया। उन्होंने उपग्रह से ली गई तस्वीरों के आधार पर 14,798 ग्लेशियर का परीक्षण किया। इसमें पता चला कि हिमालय के 40 प्रतिशत ग्लेशियर पिघल चुके हैं और इनका दायरा 28,000 वर्ग किलोमीटर से घटकर 19,600 वर्ग किलोमीटर हो गया है। शोधकर्ताओं के अनुसार, हिमालय में 390 से 580 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बर्फ पिघल चुकी है। इस कारण समुद्र का जलस्तर 0.03 से 0.05 इंच तक बढ़ गया है। हिमालय के पूर्वी इलाकों की तरफ बर्फ अधिक तेजी से पिघल रही है। यह क्षेत्र पूर्वी नेपाल से भूटान के उत्तर तक फैला हुआ है।
तबाह हो जाएगी धरती
विशेषज्ञों के एक अनुमान के अनुसार, अंटार्कटिक के ग्लेशियर के पूरी तरह पिघल गए तो पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति स्थानांतरित हो जाएगी। इससे पूरी दुनिया में भारी उथल-पुथल होगी। पृथ्वी के सभी महाद्वीप आंशिक रूप से पानी में डूब जाएंगे। लंदन, मुंबई, मियामी, सिडनी जैसे शहर पूरी तरह से महासागरों के अंदर समा जाएंगे। यही नहीं, इन ग्लेशियर में बड़ी मात्रा में खतरनाक वायरस हजारों सालों से दफन हैं। बर्फ पिघलने के बाद ये कोरोना से भी अधिक घातक महामारी दुनिया में ला सकते हैं। भारी मात्रा में जैव-विविधता को हानि पहुंचेगी। पृथ्वी पर पाई जाने वाली पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं की हजारों प्रजातियां खत्म हो जाएंगी। कुल मिलाकर धरती पर महाप्रलय की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी, जिसके कारण करोड़ों लोगों को दूसरे सुरक्षित स्थानों पर पलायन करना पड़ेगा। करोड़ों लोग बेघर हो जाएंगे। उनके पास रहने और खाने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा।
प्रकृति और मानव, दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है। इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का क्षय न हो, ऐसा संकल्प और ऐसी ही व्यवस्था अपनाने की जरूरत है। अभी तक इस सिद्धांत को पूरे विश्व ने खासतौर पर विकसित देशों ने विकासवाद की अंधी दौड़ की वजह से भुला रखा है
दुनिया में अराजकता फैल जाएगी। कई देशों की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी और यह धरती रहने लायक नहीं रह जाएगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लेशियरों के पिघलने से पृथ्वी की घूर्णन गति पर भी असर पड़ेगा। इससे दिन का समय थोड़ा ज्यादा बढ़ जाएगा। चूंकि पीने लायक 69 प्रतिशत पानी ग्लेशियरों के भीतर जमा हुआ है। ऐसे में इनके पिघलने पर ये शुद्ध जल भी खारे पानी में मिल जाएगा और पीने लायक नहीं रहेगा। हमारे पास अभी भी पर्याप्त समय है। यदि सभी देशों ने मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो पछताने के लिए भी समय नहीं बचेगा। हमें प्रकृति और विकास के साथ संतुलन बनाना ही होगा। अन्यथा एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब स्थिति काबू से बाहर हो जाएगी और हमें विनाशकारी दौर से गुजरना पडेगा।
पर्यावरण असंतुलन दशकों से मानवजाति के लिए चिंता का सबब रहा है। पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। मौसम चक्र बदल चुका है। इसके लिए दोषी कौन है? धरती जो कभी सोना उगला करती थी, ज्यादा कमाई के लोभ में रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग कर हमने उसे बंजर बना दिया। बीते कई वर्षों से दुनिया के ताकतवर देशों के कद्दावर नेता हर साल पर्यावरण से जुड़े सम्मेलनों में शामिल होते रहे हैं, लेकिन पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आज तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सका है।
इस कथित विकास की बेहोशी से जागने का बस एक ही मूल मंत्र है कि विश्व में सह अस्तित्व की संस्कृति अपनाई जाए। सह अस्तित्व का मतलब प्रकृति के अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए मानव विकास करे। प्रकृति और मानव, दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है। इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का क्षय न हो, ऐसा संकल्प और ऐसी ही व्यवस्था अपनाने की जरूरत है। अभी तक इस सिद्धांत को पूरे विश्व ने खासतौर पर विकसित देशों ने विकासवाद की अंधी दौड़ की वजह से भुला रखा है।
(लेखक मेवाड़ विश्वविद्यालय में निदेशक और टेक्निकल टुडे पत्रिका के संपादक हैं)
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