भारतीय वाड्मय में तालाब निर्माण को पूर्त कर्म माना गया है जिनका पुण्य कभी क्षय नहीं होता। नहर, तालाब और सिंचाई के साधन बनवाना राजाओं का कर्तव्य बताया गया है। आज की अमृत सरोवर योजना हमारी उसी प्राचीन पुण्य परम्परा का विस्तार व अनुसरण है
जन-जीवन व जीव सृष्टि के लिए जल की अनिवार्य आवश्यकता को देखते हुए वेद, पुराण, स्मृतियों, उपनिषदों, संहिताओं व नीतिशास्त्र में तालाब, कूप, बावड़ी व नहरों के निर्माण का अमोघ महत्व व अक्षय पुण्य बतलाया गया है। यज्ञ, तप, अतिथि-सेवा, वैश्वदेव आदि को इष्ट कर्म बतला कर उन्हें स्वर्ग प्राप्ति का साधन ही बतलाया गया है, जिनका पुण्य निश्चित अवधि तक ही रहता है। लेकिन, बावड़ी, कुआं व तालाब निर्माण और फलदार बाग लगाने को पूर्त-कर्म बतला कर इन्हें अक्षय पुण्य एवं मोक्ष प्राप्ति का साधन बतलाया गया है।
इन कर्मों का पुण्य कभी क्षय नहीं होता। अत्रि स्मृति, नारद पुराण, भविष्य पुराण, ऋग्वेद, यजुर्वेद व अथर्ववेद आदि सभी शास्त्रों में इष्टापूर्त कर्म को धर्म का प्रधान अंग मानकर भी पूर्त कर्मों यथा तालाब आदि जल स्रोतों को अक्षय पुण्य कारक कहा गया है-
अग्निहोत्र तप: सत्यं वेदनां चैव पालनम्।
आतिथ्यं वैश्वदेवश्च, इष्टमित्यभिधीयते।।
अर्थात् अग्निहोत्र, तप, सत्य, वेदों के आदेश का पालन, अतिथि-सत्कार और वैश्वदेव-इन्हें इष्टम् कहा जाता है।
वापी कूल तडागादि, देवतायतनानि च।
अन्न प्रदानमाराम: पूर्तमित्यभिधीयते।।
किसी देवता के लिए बने हुए तालाब, बावड़ी, कुआं, पोखर और देव मंदिर नष्ट होने पर जो व्यक्ति इनका उद्धार करता है, वह पूर्तकर्म का अक्षय पुण्य फल भोगता है।-(नारद पुराण, पूर्व भाग- प्रथम पाद पृ. 57)
इष्टापूर्तं च कर्त्तव्यं ब्राह्मणेनैवयत्नत:।
इष्टेन लभते र्स्वंग, पूर्ते मोक्षो विधीयते।।
अर्थात् बावड़ी व तालाब आदि निर्माण पूर्त कर्म है। इष्ट से स्वर्ग और पूर्त से मोक्ष की प्राप्ति होती है। (अत्रि स्मृति)
‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ ग्रंथ पाण्डुरंग वामन काणे ने सम्पादित कर लिखा है कि कृषि व सिंचाई पर सभी शास्त्रों में विशेष ध्यान दिया गया है। महाभारत के सभापर्व (5/77) में राजा से कहा गया है कि वह राज्य के विभिन्न भागों में जलपूर्ण तड़ाग (तालाब) बनवाए जिससे कृषि केवल वर्षा-जल पर ही निर्भर न रहे। ईसा पूर्व तीसरी सदी के ग्रन्थ इण्डिका में मेगस्थनीज (मैकरिंडिल, 1, पृ. 30) ने लिखा था कि उस समय भारत में सिंचाई का उन्नत प्रबन्ध था और वर्ष में दो फसलें होती थीं। यही बात तैत्तिरीय संहिता (5/1/1/3) में भी कही गई है यथा (तस्माद् द्धि: संवत्सरस्य सस्यं पच्यते)।
खारवेल राजा के हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार वह नहर, जो नन्द राजवंश के 103वें वर्ष अर्थात् ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में बनी थी, उसे उसने अपने राज्य के पांचवें वर्ष में विस्तारित किया था। (एपिग्राफिया इण्डिका, भाग 20, पृ. 71) रुद्र्रदामा ने बिना बेगार लगाए राजकोष से जूनागढ़ के पास सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार कराया था (एपिग्राफिया इण्डिका, भाग 7, पृ. 36)। इस सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्र्रगुप्त मौर्य एवं अशोक के प्रान्तपतियों ने किया था और वह कालान्तर में बाढ़ के कारण टूट-फूट गई थी।
महाभारत के सभा पर्व में ऋषि नारद युधिष्ठिर से सुशासन के 123 सूत्रों पर प्रश्न करते हैं। उनमें भी वे किसानों के लिए सिंचाई के स्रोतों के विकास पर बल देते हैं। यथा, आपके राज्य के किसान सुखी और सम्पन्न तो हैं? राज्य में स्थान-स्थान पर जल से भरे तालाब व झीलें खुदी हुई हैं न?
महाभारत के सभा पर्व में ऋषि नारद युधिष्ठिर से सुशासन के 123 सूत्रों पर प्रश्न करते हैं। उनमें भी वे किसानों के लिए सिंचाई के स्रोतों के विकास पर बल देते हैं। यथा: आपके राज्य के किसान सुखी और सम्पन्न तो हैं? राज्य में स्थान-स्थान पर जल से भरे पड़े तालाब व झीलें खुदी हुई हैं न? खेती केवल वर्षा के सहारे तो नहीं होती, किसानों को बीज और अन्न की कमी तो नहीं है? आवश्यकता होने पर आप किसानों को सुगम व सस्ता ऋण तो देते हैं?
वैदिक काल से ही सिंचाई की व्यवस्था होती रही है। ऋग्वेद (7.49.12) में नदियों, झरनों के अतिरिक्त खुदी हुई बल प्रणालियों (नहरों) की भी चर्चा है। दक्षिण भारत के शिलालेखों के अनुसार पल्लव एवं अन्य वंश के राजाओं ने बहुत से तालाब खुदवाए जिनमें कई आज भी विद्यमान है (साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शंस, भाग 2, भाग 4, पृ. 152: एपिग्राफिया इण्डिका, भाग 4, पृ. 152: साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शंस, जिल्द 1 पृ. 150, एपिग्राफिया इण्डिका, भाग 9 पृष्ठ 4)। कश्मीर के राजा अवन्ति वर्मा (933-957) के अभियंता (इंजीनियर) सूर्य्य ने वितस्ता नदी को बांध कर नहरें निकालीं, तब जो चावल की खारी पहले 200 दीनारों में मिलती थी, वह सिंचाई व्यवस्था के बाद 36 दीनार में मिलने लगी (राजतरंगिणी 5.64.117)।
भविष्य पुराण के उत्तर पर्व के अध्याय-127 के अनुसार वापी, कूप, तालाब आदि का निर्माण कराने वाले तथा इन कार्यों में सहयोग देने वाले अपने इष्टापूर्त धर्म के प्रभाव से सूर्य एवं चन्द्र्रमा की प्रभा के समान कान्तिमान् होकर दिव्यलोक को प्राप्त करते हैं। गाय के शरीर में जितने भी रोमकूप हैं, उतने दिव्य वर्ष तक तड़ाग आदि का निर्माण करने वाला स्वर्ग में निवास करता है और दुर्गति को प्राप्त अपने पितरों का भी उद्धार कर देता है।
पितृगण कहते हैं कि हमारे कुल में एक धर्मात्मा पुत्र हुआ, उसके बनाए तालाब के जल को पीकर गौएं संतृप्त हो जाती हैं, उस तालाब को बनवाने वाले के सात कुलों का उद्धार हो जाता है। तड़ाग, वापी, देवालय और सघन छाया वाले फलदार वृक्ष-ये चारों इस संसार से उद्धार करते हैं। धूप और गर्मी से व्याकुल पथिक यदि तड़ागादि के समीप जल का पान करे और वृक्षों का फलसेवन करता हुआ विश्राम करें तो तड़ागादि की प्रतिष्ठा करने वाला व्यक्ति अपने मातृकुल और पितृकुल दोनों का उद्धार कर स्वयं भी सुख प्राप्त करता है। इस लोक में जो तड़ागादि बनवाता है, उसी का जन्म सफल है। उसी की माता पुत्रिणी कहलाती है। जब तक तड़ागादि स्थित है, तब तक उसकी निर्मल कीर्ति का प्रसार होता है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र (2/24) में कर की दरों में लिखा है कि कंधे से जल ढोकर सिंचाई करने से उत्पन्न अन्न का कर उपज 1/4 भाग, स्वाभाविक जल प्रपातों से जल-चक्र द्वारा सिंचाई करने से कर उपज का 1/5 भाग और नदियों, झीलों, तालाबों एवं कूपों की सिंचाई से उपज का 1/4 भाग लिया जाता था। शुक्रनीति (4.4.60) के अनुसार तालाब आदि खुदवाकर जल की समुचित व्यवस्था करना राजा का परम कर्तव्य था। यह उल्लेख मेगस्थनीज की इंडिका भी करती है। इस प्रकार आज की अमृत सरोवर योजना हमारी उसी प्राचीन पुण्य परम्परा का विस्तार व अनुसरण है।
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