पर्यावरण के जिन खतरों से आज पूरी दुनिया भयाक्रांत नजर आ रही है, उन्हें भारत के ख्यात पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा ने अब से पांच दशक पहले ही भांप लिया था। बहुगुणा जी भारत की उस अरण्य संस्कृति के प्रबल पक्षधर थे जिसमें मानव तथा प्रकृति के बीच अटूट रिश्ता है। वे समझाते थे कि टिकाऊ विकास प्रकृति पर विजय प्राप्त करके नहीं अपितु सामंजस्य से संभव है
पर्यावरण प्रदूषण समूची दुनिया के लिए बड़ी समस्या है। हवा की गुणवत्ता खराब हो गई है। ओजोन परत में सुराख गहरा हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। हवा, पानी और मिट्टी सब विषाक्त होते जा रहे हैं। प्रदूषण के कारण हर साल मौतों का आंकड़ा बढ़ रहा है। जैसे-जैसे शहरों में हरियाली के स्थान पर कंक्रीट के जंगल बढ़ते जा रहे हैं; वैसे-वैसे औद्योगिक इकाइयों और वाहनों का विषाक्त धुआं मानव स्वास्थ्य को ग्रहण लगाने के साथ प्रकृति का संतुलन भी बिगाड़ रहा है। देश-दुनिया के पर्यावरण विज्ञानी लगातार हिदायत दे रहे हैं कि यदि अब भी नहीं चेते तो आने वाले कुछ सालों में न सांस लेने के लिए शुद्ध हवा बचेगी, न पीने के लिए स्वच्छ पानी।
पर्यावरण के उपरोक्त खतरों से जिस तरह आज पूरी दुनिया चिंतित व भयाक्रांत नजर आ रही है, उन्हें विख्यात पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने पांच दशक पहले ही भांप लिया था। हिमालय की बदलती आबोहवा के खतरों से देश-दुनिया को आगाह करने के लिए 20वीं सदी के 7वें दशक में वन सम्पदा संरक्षण के लिए उन्होंने व्यापक जनजागरण किया था। उनका स्पष्ट कहना था कि प्रकृति के साथ निर्मम व्यवहार के दुष्परिणाम एक न एक दिन हमें भोगने ही पड़ेंगे। उनकी यह बात आज चरितार्थ होती दिख रही है।
अरण्य संस्कृति के पक्षधर
बहुगुणा जी भारत की उस अरण्य संस्कृति के प्रबल पक्षधर थे, जिसमें मानव तथा प्रकृति के बीच अटूट रिश्ता कायम किया गया है। वे कहा करते थे कि हमारे धर्मशास्त्रों में वन्य संस्कृति का भारी महिमामंडन मिलता है। हमारे यहां पेड़, पौधों, पुष्पों, पहाड़, झरने, पशु-पक्षियों, जंगली जानवरों, नदियां, सरोवर, वन, मिट्टी, पत्थर सबको पूज्य बताते हुए उनके प्रति स्नेह तथा सम्मान की बात कही गई है। भगवान राम ने दण्डक वन, कृष्ण ने वृन्दावन, पाण्डवों ने खाण्डव वन, शौनकादि ऋषियों ने नैमिषारण्य वन तथा इन्द्र ने नन्दन वन की स्थापना की थी। पर्यावरण संरक्षण की इसी वैदिक दृष्टि से प्रेरित होकर उन्होंने हिमालय की अनमोल वन संपदा के संरक्षण को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया था।
सुन्दरलाल बहुगुणा जीवनपर्यंत प्रकृति, नदियों व वनों के संरक्षण की मुहिम में जुटे रहे। प्रकृति, पानी, पहाड़ और पर्यावरण के प्रति उनकी संवेदना को इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने 1978 में जब गोमुख ग्लेशियर के पास रेगिस्तान देखा तो उन्हें इतना गहरा धक्का लगा कि सदा के लिए चावल खाना छोड़ दिया। तर्क दिया कि धान की खेती में पानी की ज्यादा खपत होती है
चिपको आंदोलन को पैनी धार
उत्तराखंड के जाने-माने पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं कि बहुगुणा जी ने 1972 में उत्तरांचल के ‘चिपको आंदोलन’ को इतनी पैनी धार दी कि उसकी आवाज सात समुंदर पार अमेरिका व यूरोप के कई देशों तक एक दशक से अधिक समय तक गूंजती रही। ‘पेड़ों पर चलने से पहले हम पर कुल्हाड़ी चलेगी’; इस सूत्रवाक्य के साथ गढ़वाल की रैणी गांव की गौरा देवी और चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में हुए चिपको आंदोलन को यदि बहुगुणा जी जैसे तपोवन संस्कृति के पोषक मनीषी का सशक्त मार्गदर्शन न मिला होता तो मांग पूरी होने के साथ वह आंदोलन कब का मर गया होता; लेकिन बहुगुणा जी के कारण चिपको आंदोलन आज भी अमर है। यह उनकी पर्यावरणीय दार्शनिकता ही थी, जिसके कारण चिपको आंदोलन को दुनिया भर के पर्यावरणविदों से लेकर प्रकृति प्रेमियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं का भरपूर समर्थन मिला और तत्कालीन कांग्रेस सरकार को वन कटाई पर रोक लगानी पड़ी। लेकिन उन्होंने आंदोलन की सफलता का श्रेय कभी नहीं लिया। वे हमेशा खुद को आंदोलन का एक संदेशवाहक बताते हुए कहते रहे कि आंदोलन का नेतृत्व तो पहाड़ की सशक्त मातृशक्ति ने किया है।
वयोवृद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता और ‘चिपको आंदोलन’ में बहुगुणा के सहभागी चंडी प्रसाद भट्ट की मानें तो जल, जंगल व पहाड़ के जर्रे-जर्रे में बहुगुणा की स्मृतियां गहराई से समाई हुई हैं। वे तार्किक तरीके से लोगों को समझाते थे कि प्राकृतिक वन ही नदियों की मां, प्राणवायु की बैंक और उपजाऊ मिट्टी बनाने के कारखाने होते हैं। टिकाऊ विकास प्रकृति पर विजय प्राप्त करके नहीं, अपितु सामंजस्य से ही संभव है। स्वभाव से बेहद सहज और सौम्य सुंदरलाल जब प्रकृति के संबंध में बातें करते थे तो लगता था जैसे अपने बच्चों के बारे में बता रहे हैं। उनका कहना था कि पेड़ों को कटने से बचाकर और बड़े पैमाने पर पेड़-पौधे लगाकर भूजल की समस्या से निजात पाई जा सकती है।
प्रकृति केंद्रित सोच
बहुगुणा की सोच प्रकृति-केंद्रित थी। उनका कहना था कि मानव जाति का अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर है। सादा जीवन-उच्च विचार को आत्मसात करते हुए वे जीवनपर्यंत प्रकृति, नदियों व वनों के संरक्षण की मुहिम में जुटे रहे। प्रकृति, पानी, पहाड़ और पर्यावरण के प्रति उनकी संवेदना को इसी से समझा जा सकता है कि 1978 में जब उन्होंने गोमुख ग्लेशियर के पास रेगिस्तान देखा, तो उन्हें इतना गहरा धक्का लगा कि उन्होंने हमेशा के लिए चावल नहीं खाने का दृढ़ संकल्प ले लिया, क्योंकि धान की खेती में पानी की ज्यादा खपत होती है। कहते थे कि इससे कितना पानी बचा पाएंगे, कह नहीं सकते, लेकिन प्रकृति के साथ सहजीविता का भाव तो होना ही चाहिए। वे पारिस्थितिकी को सबसे बड़ी आर्थिकी मानते थे और इसीलिए वे उत्तराखंड की बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के स्थान पर छोटी-छोटी जल विद्युत परियोजनाओं के पक्षधर थे और इसे लेकर उन्होंने वृहद आंदोलन भी चलाया था। उनका नारा था- ‘धार ऐंच डाला, बिजली बणावा खाला-खाला।’ यानी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पेड़ लगाइए और निचले स्थानों पर छोटी-छोटी परियोजनाओं से बिजली बनाइए।’
शराबबंदी, शिक्षा के प्रचार व छुआछूत खत्म करने में भी उनकी भूमिका सराहनीय रही। राजनीति त्याग कर उन्होंने समूचा जीवन हिमालय की वन सम्पदा और पर्यावरण को संरक्षित करने में लगा दिया। इस कारण लोगों ने उन्हें ‘वृक्षमित्र’, ‘हिमालय के रक्षक’ और ‘पर्वत पुत्र’ जैसी उपाधियों से भी विभूषित किया था। उनमें जनता को एकत्र कर अपनी बात समझाने की गजब की क्षमता थी। बहुगुणा की प्रेरणा से ही 1982 के आसपास कर्नाटक में ‘चिपको’ के समान ‘अप्पिको’ आंदोलन शुरू हुआ था। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण पर देश-विदेश में अनेक जगहों पर व्याख्यान देकर लोगों को प्रकृति को सहेजने की अहमियत बताई। उन्होंने ‘धरती की पुकार’ सहित कुछ किताबें भी लिखीं थीं। उनके ‘चिपको आंदोलन’ पर ‘एक्सिंग द हिमालय’ फिल्म बन चुकी है। उनके पर्यावरण संरक्षण कार्यों का देश और दुनिया पर इतना गहरा असर पड़ा कि विश्वभर के स्कूलों-कॉलेजों में पर्यावरण को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाने लगा।
प्रकृति का यह सच्चा सपूत अपने पीछे पर्यावरण को बचाने की एक समृद्ध विरासत छोड़ गया है जिसे सुरक्षित रखना ही सही मायने में इस हिमालय प्रहरी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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