भारत के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय और घरेलू मीडिया का एक पूरा वर्ग परस्पर तालमेल के साथ काम कर रहा है। पाश्चात्य मीडिया संस्थानों द्वारा भारत विरोधी खबरें को छापना, नकारात्मक पहलुओं को उभारना, खबरों में दोहरा रवैया अपनाना और ऐसी खबरें देने वालों को पुरस्कृत करके फिर घरेलू मीडिया द्वारा उसका प्रचार करवाना, इससे इस षड्यंत्रकारी गठजोड़ का खुलासा होता है
ज्ञानवापी परिसर में छानबीन हुई तो अंदर एक प्राचीन शिवलिंग मिला। प्रतिवादी पक्ष ने दावा किया कि यह फव्वारा है। प्रश्न उठा कि जब बिजली का आविष्कार ही औरंगजेब के बहुत बाद हुआ तो उसने फव्वारा कैसे लगवा दिया? यदि फव्वारा था तो यह कैसे चलता था? उत्तर में कोई नया कुतर्क प्रस्तुत किया जाता उससे पहले बीबीसी ने एक लंबा लेख छापकर बताया कि कैसे बिना बिजली के फव्वारा चलाया जा सकता है। कुछ संदिग्ध इतिहासकारों की गवाही के साथ सिद्ध कर दिया गया कि वजूखाने में फव्वारा ही है। ज्ञानवापी विवाद पर न्यायिक गतिविधियां तेज होने के साथ ही देशी-विदेशी मीडिया के एक वर्ग में ऐसे हास्यास्पद कुतर्कों की भरमार है। भारतीय मीडिया की इस विषय में रुचि समझ में आती है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं की कवरेज एक षड्यंत्र अथवा किसी टूलकिट की ओर इशारा करती है।
साफ लगता है कि भारत के विषयों में अंतरराष्ट्रीय और घरेलू मीडिया का एक पूरा वर्ग आपसी तालमेल के साथ काम कर रहा है। पहले न्यूयॉर्क टाइम्स और बीबीसी जैसे किसी विदेशी समाचार पत्र में कोई झूठ छापा जाता है और फिर भारतीय मीडिया का यह वर्ग विशेष उसे प्रचारित-प्रसारित करता है। चूंकि उक्त कथित समाचार किसी पश्चिमी पत्र में प्रकाशित हुआ होता है, इसलिए उसकी विश्वसनीयता पर कोई प्रश्न नहीं उठाता। बीबीसी ने ही छापा कि ज्ञानवापी के मंदिर होने का दावा गलत है क्योंकि गूगल पर अभी भी उसे ‘मस्जिद’ बताया जा रहा है। यह एक तरह का फैक्ट चेक है, जिसे गूगल, ट्विटर और फेसबुक जैसे संस्थान भी मान्यता देते हैं और इस आधार पर वे लोगों की सोशल मीडिया पोस्ट को ब्लॉक करने तक की कार्रवाई करते रहते हैं।
हरिद्वार में कथित धर्म संसद में ‘हेट स्पीच’ पर भारत समेत पूरे विश्व में हंगामा मचाने का प्रयास हुआ था। कई अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने इसे भारत में ‘मुसलमानों का नरसंहार’ करार दिया। लेकिन वैसी प्रतिक्रिया तब देखने को नहीं मिलती जब हिंदुओं के विरुद्ध घृणा का सार्वजनिक प्रदर्शन दिखाई देता है। लेखक और स्तंभकार अभिषेक बनर्जी हाल ही में केरल में पीएफआई की रैली का उदाहरण देते हैं। उन्होंने लिखा है, ‘केरल में पीएफआई के प्रदर्शन में हिंदुओं और ईसाइयों के नरसंहार के नारों के वीडियो सबने देखे, लेकिन आपको मीडिया में इसे लेकर वैसा हंगामा नहीं दिखेगा जैसा हरिद्वार में धर्म संसद को लेकर मिला था। हरिद्वार की घटना अब भी कवर हो रही है, जबकि केरल को दबाया जा चुका है। देशी-विदेशी अखबारों और चैनलों में कहीं भी केरल मॉडल पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं मिलेगा।’
यूक्रेन युद्ध को लेकर छिड़े अंतरराष्ट्रीय विवाद में भारत को लगातार कठघरे में खड़ा करने का प्रयास हो रहा है। भले ही तथ्य यह है कि अमेरिका ने रूस से तेल और गैस की खरीदारी भारत की तुलना में अधिक की है, लेकिन ‘इकोनॉमिस्ट’ में कार्टून छपा, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ खून से सने दिखाए गए। भारतीय मीडिया के वर्ग विशेष ने भी इस छद्म को भारतीय जनमानस के बीच फैलाने का भरपूर प्रयास किया
आतंकवादी यासीन मलिक को न्यायालय ने आजीवन कारावास का दंड दिया। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया की कवरेज देखें तो लगेगा ही नहीं कि यह किसी आतंकवादी के बारे में है। बीबीसी, अल जजीरा और लगभग सभी अमेरिकी समाचार संस्थानों ने उसे ‘अलगाववादी नेता’ बताया। जबकि इन्हीं मीडिया संस्थानों पर इंटरव्यू में वह आतंकवाद से जुड़े आरोपों को पूरे गर्व के साथ स्वीकार करता रहा है। चूंकि अंतरराष्ट्रीय मीडिया यासीन मलिक को आतंकवादी नहीं मानता, इसलिए भारत में भी एनडीटीवी जैसे संस्थानों को उसे आतंकवादी न कहने की वैधता मिल जाती है। स्तंभकार सुनंदा वशिष्ट कहती हैं, ‘मीडिया, बुद्धिजीवियों और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के सक्रिय सहयोग से यासीन मलिक ने अपना जाल बुना था। वही तंत्र एक आतंकवादी को गांधीवादी बताने में जुटा है।’ यह भूला नहीं जा सकता है
कि इंडिया टुडे जैसे भारतीय मीडिया समूहों ने इसी आतंकवादी को कभी ‘भारतीय युवाओं का आदर्श’ घोषित करके पुरस्कृत किया था।
मीडिया के भारत विरोधी गठजोड़ का ही एक अन्य उदाहरण है फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर चल रहा दुष्प्रचार अभियान। विकीपीडिया ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ को ‘कॉन्स्पिरेसी थ्योरी’ बताया है। इसके लिए उसके पास कोई साक्ष्य या संदर्भ नहीं है। केवल यह कि कुछ ‘एक्सपर्ट्स’ ऐसा मानते हैं। कुछ भारतीय और विदेशी समाचार संस्थानों ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ को विवादित बता दिया, तो बस इतना ही इस फिल्म के कथानक को ‘कॉन्स्पिरेसी थ्योरी’ करार देने के लिए पर्याप्त है। भले ही सारे तथ्य और साक्ष्य सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हों। कश्मीर के पूरे नरसंहार को भी इसी तरह के लेखों के सहारे छिपाया और झुठलाया जाता रहा है।
यूक्रेन युद्ध को लेकर छिड़े अंतरराष्ट्रीय विवाद में भारत को लगातार कठघरे में खड़ा करने का प्रयास हो रहा है। भले ही यह तथ्य है कि अमेरिका ने रूस से तेल और गैस की खरीदारी भारत की तुलना में अधिक की है, लेकिन ‘इकोनॉमिस्ट’ में कार्टून छपा, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ खून से सने दिखाए गए। भारतीय मीडिया के वर्ग विशेष ने भी इस छद्म को भारतीय जनमानस के बीच फैलाने का भरपूर प्रयास किया। यह दिखाने का प्रयास किया गया कि जैसे यूक्रेन युद्ध के लिए नाटो या पश्चिमी देश नहीं, बल्कि भारत दोषी है।
अमेरिका में बेबी फूड की भारी कमी चल रही है। लेकिन न्यूयॉर्क टाइम्स का पूरा ध्यान भारत विरोधी विषयों पर है। इसी तरह ‘शिकागो ट्रिब्यून’ ने दिल्ली में अतिक्रमण हटाने के लिए गए बुलडोजर के आगे बृंदा करात के खड़े होने की तुलना चीन के थियानानमन चौक पर टैंक के आगे खड़े प्रदर्शनकारी से कर डाली।\भारत के विरुद्ध मीडिया के इसी अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ का हिस्सा हर वर्ष आने वाला विश्व प्रेस स्वतंत्रता इंडेक्स भी है। इन कथित अंतरराष्ट्रीय इंडेक्स में भारत को एक योजना के अंतर्गत नीचे दिखाया जाता है। इसके अनुसार ‘भारत में मीडिया की स्वतंत्रता लीबिया और सोमालिया से भी कम’ है। अकेले इस तथ्य से समझ जाना चाहिए कि ऐसे सूचकांक और भारत के विरुद्ध बना यह अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ कितना विश्वसनीय है।
समय आ गया है कि देशी-विदेशी मीडिया के इस भारत विरोधी तंत्र को पहचाना जाए और उस पर लगाम कसी जाए। इसे प्रेस की स्वतंत्रता के रूप में नहीं, बल्कि भारत की संप्रभुता और स्वतंत्रता पर आघात के प्रयास के तौर पर लेना चाहिए।
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