स्वतंत्रता संग्राम में वीर सावरकर का असीमित योगदान था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के प्रेरणास्रोत भी वीर सावरकर ही थे। इतिहास के सचेत अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि युद्ध के बिना स्वाधीनता संभव नहीं है। उन्होंने रण की संकल्पना का ब्लूप्रिंट भी तैयार किया। बाद में इसी के आधार पर आजाद हिंद फौज का गठन हुआ
नेताजी सुभाषचंद्र की प्रतिमा के अनावरण के अवसर पर प्रधानमंत्री जी ने लाल किले पर आजाद हिंद फौज के स्मारक निर्माण की घोषणा की है। जब हम आजाद हिंद फौज की चर्चा करते हैं तो बात नेताजी सुभाषचंद्र बोस से आरंभ होकर रासबिहारी बोस तक आकर रुक जाती है। इस सेना के निर्माण में जिनकी बुनियादी भूमिका रही, कृतिशील सहयोग रहा, उन वीर सावरकर को हम सहसा भूल जाते हैं।
सावरकर की स्वातंत्र्य युद्ध की परिकल्पना
इतिहास के सचेत एवं सटीक अध्ययन से महज 15वें साल में ही सावरकर इस नतीजे पर आ पहुंचे थे कि, ‘युद्ध के बिना स्वाधीनता संभव नहीं।’ सावरकर के इसी विचार को उनके सहयोगी स्वातंत्र्यशाहिर कवि गोविंद ने अपने काव्य ‘रणाविण स्वातंत्र्य कोणा मिळाले?’ में सूत्रबद्ध किया था। कविता में बिना युद्ध के स्वातंत्र्य किसे मिला था? यह प्रश्न पूछते हुए, अनेकों परतंत्र राष्ट्रों के स्वतंत्रता संग्राम का उदाहरण देते देते गोविंद उत्तर देते हैं ‘रण बिना स्वातंत्र्य किसी ने न पाया।’
सावरकर की रण की संकल्पना काफी सटीक थी। उनकी योजना संक्षेप में निम्नलिखित तरीके से बता सकते हैं—
1. समूचे देश में गुप्त टोलियों का निर्माण करना।
2. प्रत्येक गुप्त टोली के गुप्त व प्रकट, दो भाग बनाना।
3. प्रकट भाग के अंतर्गत जनजागृति हेतु नि:शस्त्र आंदोलन चलाना।
4. शत्रु पर बार-बार अकेले या छोटे-छोटे गुटों द्वारा छापे डालते रहना।
5. अंग्रेजी सेना में असंतोष फैला उसे अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा करना।
6. अंग्रेजों के दुश्मनों से दोस्ती बढ़ाना। उनसे युद्ध के सभी संसाधन लेना। हार मिली तो अगली बगावत तक उनसे शरण लेना।
7. अंग्रेज जब किसी विश्वयुद्ध या आपत्ति में फंस जाएं तो अवसर पाकर बगावत करना।
8. पहले युद्ध में पराजय तो दूसरे युद्ध की सिद्धता करते जाना। दूसरे में भी पराजय तो तीसरे की तैयारी करना। जब तक पूर्ण स्वतंत्र न हो, तब तक लड़ते रहना।
अत्यंत अल्प आयु में सावरकर जी की बनाई इस योजना के सामने नरहर कुरुंदकर जैसे समाजवादी व पुरोगामी विचारवंत भी नतमस्तक रहते हैं। इस योजना के अनुक्रम 5, 6, 7 आजाद हिंद फौज का नक्शा ही पेश करते हैं। यहां पर यह बताना उचित रहेगा कि सावरकर जी के सहयोगियों ने इस योजना को प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान आजमाया था।
1857 का स्वातंत्र्यसमर : आजाद हिंद का ब्लू प्रिंट
1857 में सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत कर देशभक्ति का परिचय दिया था। विदेशी इतिहासकारों ने इस स्वाधीनता संग्राम को सैन्य बगावत कहा। दुर्भाग्य से तत्कालीन भारतीय नेता भी इसे राजद्रोह, बगावत के तौर पर देख रहे थे। सावरकर पहले इतिहासकार थे, जिन्होंने 1857 के सैन्य विद्रोह को भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में प्रस्तुत किया। यह प्रस्तुति इतनी सशक्त थी कि अंग्रेजों को प्रकाशन पूर्व ही उस पर पाबंदी लगानी पड़ी। भारत, इंग्लैड, फ्रांस आदि राष्ट्रों में पाबंदी होने पर भी सावरकर जी और उनके सहयोगियों ने इसे नीदरलैंड से प्रकाशित कर अंग्रेज सरकार को मुंह के बल गिराया।
सावरकर के महाग्रंथ ने हजारों हुतात्माओं की सेना खड़ी की। गदर के गदरी हों, आजाद हिंद के सैनिक हों या हिंदुस्थान रिपब्लिकन आर्मी के सेनानी, सभी को इसी ग्रंथ ने आत्माहुति की प्रेरणा दी। यह कहना तथ्यपूर्ण होगा कि गदर आंदोलन हो या आजाद हिंद फौज, इनका ब्लू प्रिंट सावरकर जी का 1857 का स्वाधीनता संग्राम ग्रंथ ही था
सावरकर की मानें तो उक्त ग्रंथ प्रयोगसिद्ध व प्रस्फोटक इतिहास था। प्रयोगसिद्ध का अर्थ 1857 में भारतीय सैनिकों ने अपनी कृति से जो कर दिखाया, उसे दोहराया जा सकता है, का इतिहासमान्य सिद्धांत। अंग्रेजी सेना में काम कर रहे सैनिकों का अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा होना बगावत नहीं, सच्ची देशभक्ति, धर्मभक्ति है, यह भाव जगाने वाला इतिहास। इसीलिए वह प्रस्फोटक भी है। सावरकर के इस महाग्रंथ ने हजारों हुतात्माओं की सेना खड़ी की। गदर के गदरी हों, आजाद हिंद के सैनिक हों या हिंदुस्थान रिपब्लिकन आर्मी के सेनानी, सभी को इसी ग्रंथ ने आत्माहुति की प्रेरणा दी। लाला हरदयाल, भगत सिंह व सुभाषचंद्र जैसे तीन-तीन दिग्गज क्रांतिकारी जिस ग्रंथ को प्रकाशक के रूप में मिले हों; उस ग्रंथ की महानता दर्शाने का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है? इसीलिए यह कहना तथ्यपूर्ण होगा कि गदर आंदोलन हो या आजाद हिंद फौज, इनका ब्लू प्रिंट सावरकर जी का 1857 का स्वाधीनता संग्राम ग्रंथ ही था।
प्रत्यक्ष में 1857 की तर्ज पर अंग्रेजी सेना में बगावत कर देशभक्तों की सेना तैयार करना, रानी झांसी रेजिमेंट का निर्माण कराना, 1857 जैसी ही ‘चलो दिल्ली’ की घोषणा देना। इतना ही नहीं, नेताजी द्वारा 1857 के स्वातंत्र्य समर का पुन: प्रकाशन, यह सभी उसी ब्लू प्रिंट के परिचायक हैं।
यह केवल लेखक का कल्पनाबीज नहीं, बल्कि अनेक विद्वानों का निष्कर्ष है।
विश्वयुद्ध हेतु अंग्रेजी सेना में भर्ती शुरू होने पर सावरकर ने युवकों से कहा, ‘हमारे हाथ में एक पिस्तौल मिली तो सरकार ने हमें अंडमान भेज दिया। वही सरकार तुम्हें खुद बंदूकें दे रही है, प्रशिक्षण दे रही है। तो जाओ सीख लो।’ कभी बोलते थे, ‘ बंदूक चलाना सीख लो, फिर तय करेंगे निशाना किधर लगाना है।’
फ्री हिंदुस्थान (1946) के वीर सावरकर अंक में वीर नरीमन लिखते हैं, ‘वीर सावरकर के 1857 के स्वातंत्र्य समर से ही आजाद हिंद फौज की कल्पना निकली, ऐसा प्रतीत होता है। रानी झांसी रेजिमेंट उसी का आविष्कार है।’
इस तथ्य को थोड़ा और बारीकी से समझने के लिए हम पहले विश्वयुद्ध में सावरकर और उनके सहयोगियों की भूमिका को संक्षेप में देखेंगे।
पहला विश्वयुद्ध व सावरकर
पहले विश्वयुद्ध की आहट 25 वर्षीय सावरकर को बहुत पहले ही हो गई थी। उसी के चलते उन्होंने वैश्विक स्तर पर भारत की स्वाधीनता की गूंज उठाने हेतु मादाम कामा को स्टुटगार्ड की साम्यवादी परिषद में भेजा था। सावरकर जी ने परिषद हेतु स्वतंत्र भारत का पहला तिरंगा ध्वज बनाया था, साथ ही परिषद में पढ़ने हेतु मादाम कामा को निवेदन भी तैयार करके दिया, जो खूब चर्चित रहा। याद रहे, इसी परिषद में मार्क्सवाद के कृतिशील भाष्यकार ब्लादिमिर लेनिन तथा इंग्लैड के भावी प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनल्ड भी उपस्थित थे। इस परिषद में भारतीय प्रतिनिधियों के सहभाग पर इंग्लैड का कड़ा विरोध था। लेकिन सावरकर ने यह अंग्रेजी समाजवादी नेता प्रो. हिंडमन की सहायता से कर दिखाया था। सावरकर व मादाम कामा का यह प्रयास भारत की स्वतंत्रता की ललकार को पूरे विश्व में पहुंचाने में सफल हुआ।
इसके अलावा जर्मनी, जापान, मेक्सिको, रूस, चीन, मिस्र, अमेरिका आदि देशों के राजनयिकों से संपर्क करने हेतु सावरकर जी ने अपने अलग-अलग सहयोगियों को भेजा था। उनसें युद्ध सामग्री, द्रव्य सहायता और जरूरत पड़े तो आश्रय का आश्वासन भी पाया। कई भारतीय संस्थानिकों से भी सावरकर अपने सहयोगियों द्वारा संपर्क में थे। भारतीय सैनिकों से भरी अंग्रेजों की सेना को स्वतंत्रता के लिए बगावत करने हेतु संदेश भेजने का कार्य क्रांतिकारी संगठनों की ओर से उन्होंने ही आरंभ किया था।
सावरकर व रासबिहारी एक-दूसरे से कभी नहीं मिले। लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध पर सावरकर के विचारों से अवगत थे। इसीलिए सावरकर के रत्नागिरी से मुक्त होने पर उन्हें बधाई देते समय ‘सावरकर जी, मैं आपको मेरा प्रेरणा पुरुष मानता हूं’ की प्रकट घोषणा रासबिहारी जी ने की थी
बम बनाने की विधि हासिल करने हेतु सेनापति बापट व मिर्जा अब्बास को रूस-जर्मन भेजने का प्रावधान मूलत: सावरकर का ही था। हेमचंद्र दास भी उसी समय लंदन पहुंचे थे और अभिनव भारत से जुड़ गए। बापट की जानकारी के आधार पर सरलता से बम बनाने की विधि की पुस्तिका सावरकर ने वी.वी.एस. अय्यर की मदद से प्राप्त की। अंग्रेजी रिपोर्ट में इस पर टिप्पणी की गई कि ‘इसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति, बाजार में आसानी से उपलब्ध होने वाली चीजों से बम बना सकता है’। सावरकर की योजना थी कि पूरे देश में बम बनाने के कारखानों का निर्माण हो जिनका एकसाथ उपयोग कर क्रांतिकारी भारत को स्वाधीन करा सकें। लेकिन खुदीराम बोस ने जल्दबाजी में इसका प्रयोग पहले ही कर दिया जिससे अंग्रेज सचेत हो गए।
लंदन में ही मदनलाल का वीरकृत्य, ढींगरा की निषेध सभा का सावरकर द्वारा विरोध, विरोध का तर्कसंगत कारण तुरंत लंदन टाइम्स जैसे बड़े अखबार में छपवाकर लाना, मदनलाल का पुलिस व अंग्रेज न्यायकर्मियों द्वारा दबाया निवेदन अनेक देशों में प्रकाशित करवाना, 1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ अंग्रेजी प्रतिबंध के बाद भी प्रकाशित करवाना आदि घटनाएं अंग्रेजी शासन का रौब यूरोप, अमेरिका में कम कर रही थीं। यह सब अगले विश्वयुद्ध का अवसर साधने की ही कोशिश थी।
इन सबके पीछे सावरकर हैं, यह जानते हुए भी, सावरकरजी की कुशल व सावधान योजना के कारण, कोई सबूत न मिलने से अंग्रेज सरकार विवश थी। लेकिन ढींगरा के रास्ते चलने की होड़ में उन्नीस वर्षीय युवा अनंत कान्हेरे ने नासिक के जिलाधिकारी जैकसन को मार गिराया। कान्हेरे देशपांडे व कर्वे के साथ फांसी के फंदे पर झूल गए। लेकिन उनकी कुछ लापरवाही व अंग्रेजी पुलिस के कूर बर्ताव के चलते उस हत्या के तार सावरकर तक पहुंच गए। और विश्वयुद्ध के पूर्व ही सावरकर को अंडमान भेज दिया गया।
सावरकर के पश्चात उनके दो सहयोगी शिष्य लाला हरदयाल व भाई परमानंद ने कनाडा में गदर की हुंकार भरी। 1857 का स्वतंत्रता संग्राम ग्रंथ का तथा सावरकर के कालेपानी की सजा का उपयोग कर हजारों युवकों को लालाजी ने सशस्त्र क्रांति की ओर खींचा। देशभक्तों से भरे जहाज विदेशों से भारत की ओर चल पड़े।
दूसरी तरफ बर्लिन करार कर सावरकर के एक और सहयोगी वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय जर्मन नेता कैसर से मिलकर भारत के स्वातंत्र्य संग्राम हेतु सहायता ले रहे थे। उसी के चलते कैसर ने अपनी युद्ध मांग में भारत की स्वतंत्रता का मुद्दा शामिल किया था। जर्मनी ने एमडेन भेजकर सावरकर व भारतीय बंदियों को अंडमान से छुड़ाने की योजना बनाई थी। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, चिदंबरम पिल्लै, स्वामी विवेकानंद के भाई भूपेंद्रनाथ ने जर्मनी में, गदर के नेता एम.पी.टी. आचार्य, डॉ. खानखोजे ने मध्यपूर्व में तो सूफी अंबाप्रसाद, राजा महेंद्रप्रताप आदि ने मिलकर अफगानिस्तान में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई थी। यह आजाद हिंद सरकार से लगभग तीस वर्ष पूर्व की बात थी।
भारत में स्वतंत्रता युद्ध छेड़ने तथा जागृति करने हेतु गदर के कर्तार सिंह सराबा, विष्णु गणेश पिंगले कनाडा से भारत आए। भारत में शचींद्रनाथ सांन्याल, बाघा जतीन, मानवेंद्र नाथ राय भी इसी काम में जुटे थे। विशेष बात यह कि इन सभी का नेतृत्व रासबिहारी बोस कर रहे थे; जो दूसरे विश्वयुद्ध में आजाद हिंद फौज के जनक थे।
इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेज सरकार की अनेक रेजिमेंट को बगावत के लिए तैयार करके रखा था। जर्मनी भारतीय क्रांतिकारियों को भारी पैमाने पर युद्ध सामग्री पहुंचा रहा था। लेकिन कृपाल सिंह ने देशद्रोह कर अंग्रेजों को सब जानकारी पहुंचा दी, फलस्वरूप एक महत्वाकांक्षी योजना विफल हो गई। पहले विश्वयुद्ध में विफलता का महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि, विश्वयुद्ध का लाभ उठाकर स्वाधीनता की कोशिश करने का विचार करने वाले जननेता भारत में नहीं थे। इसलिए भारतीय मानस पहले विश्वयुद्ध से अचेत रहा।
ध्यान रहे, इस महान योजना के मूल प्रणेता सावरकर ही थे। 1857 का स्वाधीनता संग्राम ग्रंथ इस योजना का मूलस्रोत था। इसमें सम्मिलित बहुतेरे क्रांतिकारी परोक्ष-अपरोक्ष रूप से सावरकर से प्रभावित थे। सावरकर तथा क्रांतिकारी नेता पहले विश्वयुद्ध का भारतीय स्वाधीनता हेतु उपयोग करने का प्रयास कर रहे थे जो दूसरे विश्वयुद्ध में भी जारी रहा।
12 वर्ष पूर्व ही दूसरे विश्वयुद्ध का आभास
सावरकर जी वह एकमात्र नेता थे, जिन्हें 1928 में ही द्वितीय विश्वयुद्ध का आभास हुआ। साप्ताहिक श्रद्धानंद में 16 फरवरी से 8 मार्च के दौरान लिखे चार लेखों में सावरकर ‘दूसरे विश्वयुद्ध का अवसर खोना नहीं चाहिए’ – यह बात वह बार-बार दोहराते हैं। इस योजना के तहत क्या-क्या करना चाहिए, इसका जितना ब्यौरा दे सकते थे, दिया। जिस समय सावरकर यह लिख रहे थे, तब उन्हें अंडमान से छूटे चार साल हुए थे और उन पर तमाम पाबंदियां थीं।
हालांकि इन लेखों में सावरकर रूस व इंग्लैड के संभावित युद्ध की बात कर रहे थे। लेकिन यह भी संभावना जता रहे थे कि, इन देशों में ही युद्ध होगा, ऐसा नहीं। दूसरे देशों में भी हो सकता है। लेकिन उनमें इंग्लैड अवश्य होगा। विश्वयुद्ध हो या ना हो, हमें हमारी तैयारी रखनी चाहिए। यह लेख यही दर्शाते हैं कि सावरकर विश्वयुद्ध की भविष्यवाणी लगभग 12 साल पहले कर रहे थे और उस अवसर को भारतीय स्वतंत्रता में परिवर्तित करने हेतु योजना बना रहे थे। याद रहे, इस समय देशगौरव सुभाषचंद्र बोस प्रत्यक्ष सशस्त्र क्रांतिकार्य से दूर थे तथा कांग्रेस व गांधी की राजनीति को सर्वोच्च मान रहे थे।
सैन्यीकरण का आवाहन
सावरकर एक सशक्त साहित्यकार थे। उनकी कलम में हुतात्माओं की पंक्तियां उत्पन्न करने की अद्भुत ताकत थी। इसी कलमकारी से प्रभावित हो सन् 1938 में उन्हें मराठी सारस्वतों ने अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना था। महासरस्वती के वाग्पीठ से इस महान सरस्वतीपुत्र ने महाकाली का आवाहन करते हुए कहा, ‘कलम तोड़ो। बंदूकें उठाओ।।’ अपनी बात को स्पष्ट करते समय उन्होंने कहा था, ‘अगली पीढ़ी में एक भी लेखक पैदा नहीं हुआ तो चलेगा; लेकिन प्रत्येक युवा सैनिक होना चाहिए।’
केवल इतना आवाहन कर सावरकर जी रुके नहीं। जैसे ही विश्वयुद्ध हेतु अंग्रेजों ने सैन्य भर्ती का आरंभ किया, सावरकर सैन्य भर्ती के लिए दौड़ पड़े। सावरकर प्रकट सभा में युवाओं को कहने लगे, ‘हमारे हाथ में एक पिस्तौल मिली तो अंग्रेज सरकार ने हमें अंडमान भेज दिया। वही सरकार तुम्हें खुद बंदूकें दे रही है। बंदूक चलाने का प्रशिक्षण दे रही है। साथ में वेतन दे रही है। तो जाओ सीख लो।’ कभी-कभी माहौल देखकर वे अचानक बोल पड़ते थे, ‘एकबार बंदूक चलाना तो सीख लो, बाद में तय करेंगे निशाना किधर लगाना है।’ उस वक्त कांग्रेस सावरकर को रिक्रूटवीर कहकर दुत्कार रही थी। और विडंबना यह रही कि, उसी कांग्रेस का अध्यक्ष कुछ ही साल बाद सावरकर की इस सेना का नेताजी बन गया।
अंग्रेजों की पिपासा का पर्दाफाश
दूसरा विश्वयुद्ध अपने साम्राज्य के रक्षक और दूसरे का साम्राज्य छीन अपना साम्राज्य निर्माण करने वाले दो साम्राज्यवादी राष्ट्रसमूहों के बीच चल रहा था। विश्वयुद्ध के पीछे कोई नैतिक मूल्य नहीं थे। फिर भी अंग्रेज तथा उनके दोस्त ‘हम हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाह के खिलाफ लड़ रहे हैं’ की डीग हांकते हुए अपनी साम्राज्यपिपासा पर नैतिकता का मुलम्मा चढ़ा रहे थे। भारत के तत्कालीन कांग्रेसी भी अंग्रेजों के झांसे में आकर उन्हीं की भाषा बोल रहे थे।
अपनी झूठी मानवता विश्व के सामने रखने हेतु 14 अगस्त 1941 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल व अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष रूजवेल्ट ने अटलांटिक सनद तैयार की। इसके तहत पराधीन राष्ट्रों को स्वाधीनता बहाल करने की बात कही गई। उसी सनद का हवाला देकर सावरकर ने चर्चिल को ‘उन पराधीन राष्ट्रों में भारत की स्वाधीनता का विचार है या नहीं?’ यह पूछने वाला तार भेजा था। चर्चिल ने उत्तर देना टाल दिया।
सावरकर ने 20 अगस्त, 1941 को रूजवेल्ट को तार भेज कर कहा था ‘जिस सनद की बात आप कर रहे हैं, क्या उसमें भारत की स्वाधीनता की गारंटी आपने इंग्लैड से ली है। ली है तो घोषित करें। नहीं ली है तो यह साम्राज्यवादी युद्ध है, यही सिद्ध होगा।’ उक्त तार संदेश को अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, भारत आदि देशों में काफी प्रसिद्धि मिली।
सावरकर जी के प्रश्नों से तंग आकर चर्चिल ने आखिर कह डाला कि, ‘यह करार मात्र नाजी साम्राज्य के देशों पर ही लागू होगा।’ उसके कहने मात्र की देरी थी कि सावरकर जी ने 22 सितंबर को रूजवेल्ट को फिर से तार भेज पूछा कि, ‘क्या चर्चिल के वक्तव्य से आप सहमत हैं? स्पष्ट रूप से कहो या मौन रहकर चर्चिल का समर्थन करो।’ रूजवेल्ट मौन रहे। सावरकर की इस तार शृंखला ने मित्र राष्ट्रों की खोखली मानवता नीति को ध्वस्त कर दिया। सावरकर का यह काम सैनिकों को भारत के लिए अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा होने में नैतिक पृष्ठभूमि प्रदान करने हेतु सहायक रहा।
सावरकर मार्ग पर रासबिहारी
पूरे जीवन काल में सावरकर व रासबिहारी एक-दूसरे से कभी नहीं मिले। लेकिन रासबिहारी प्रथम विश्वयुद्ध पर सावरकर व उनके विचारों से अवगत थे। वे लाला हरदयाल, भाई परमानंद व विष्णु गणेश पिंगले सरीखे सावरकर अनुयायियों के साथ कार्य कर चुके थे। इसीलिए सावरकरजी के रत्नागिरी से मुक्त होने पर उन्हें बधाई देते समय ‘सावरकर जी, मैं आपको मेरा प्रेरणा पुरुष मानता हूं’ की प्रकट घोषणा रासबिहारी जी ने की थी। रासबिहारी बहुत ही मंजे हुए और उच्च स्तर के क्रांतिकारी नेता थे। कदाचित वीर सावरकर, योगी अरविंद के बाद उनका ही नाम लिया जा सकता है।
रासबिहारी ने वीर सावरकर के चरित्र पर जापानी भाषा में दो लंबे लेख लिखे थे। सावरकर के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए जापान हिंदू सभा का गठन भी किया था। साप्ताहिक फ्री हिंदुस्तान के 27 जनवरी, 1946 अंक में प्रकाशित वार्ता के अनुसार रासबिहारीजी ने सावरकरजी का अभिवादन करते हुए कहा था, ‘सावरकरजी, आकाशवाणी से आपको प्रणाम करते समय मुझे मेरे वरिष्ठ सहयोगी को प्रणाम करने का आनंद मिल रहा है।
आपको वंदन करना यानी साक्षात त्यागमूर्ति को वंदन करना है। शत्रु की परराष्ट्र नीति के आधार पर अपने राष्ट्र की राजनीति नहनहीं होनी चाहिए, आपका यह विचार, आपकी दूरदर्शी राजनीति और सही निदान का सबूत है। ‘शत्रु का शत्रु, वह अपना मित्र’ इस राजनीति के सूत्र के अनुसार अंग्रेजों के शत्रुओं से दोस्ती कर हमें स्वाधीनता संग्राम करना
चाहिए। यह आपका दिखाया हुआ मार्ग ही स्वातंत्र्य प्राप्ति का सच्चा मार्ग है।’ यह वक्तव्य स्पष्ट रूप से दिखाता है कि आजाद हिंद फौज के संस्थापक पर सावरकरजी का कितना गहरा असर था।
आजाद हिंद का सेनाबल सावरकर निर्मित
सुभाषचंद्र बोस को आजाद हिंद फौज मिलने के दो वर्ष पूर्व 11 फरवरी 1941 को सिंगापुर में एक घटना घटी। प्रीतम सिंह और कैप्टन मोहन सिंह के नेतृत्व में बढ़ रही छोटी सी आजाद हिंद फौज के सामने अंग्रेजों की भारतीय सैनिकों से भरपूर 45,000 की सेना आ पहुंची। आजाद हिंद फौज के नेता ने उस प्रचंड सेना में भारतीय सैनिकों व अफसरों की देशभक्ति का आवाहन किया। उनके आवाहन मात्र से 45,000 हजार की सेना बिना खून गिराए आजाद हिंद फौज से आ मिली।
इस घटना का वर्णन जापानी लेखक ओहसावा टू ग्रेट इंडियन्स इन जापान के पेज संख्या 48 पर करते हैं। इस फौज में लेफ्टिनेंट कर्नल गिल भी शामिल थे जिनका स्तर कैप्टन मोहन सिंह से बड़ा था। वह मोहन सिंह के सलाहकार बने। यह सावरकर के सैनिकीकरण का ही प्रतिफल था। कुछ साल पहले प्रो. कपिल कुमार को आजाद हिंद सेना के सैनिकों के पत्र मिले जिनमें स्पष्टरूप से ‘बैरिस्टर सावरकरजी के आवाहन पर हम सेना में शामिल हुए’ का उल्लेख था। यह सब प्रमाण सावरकर के आजाद हिंद सेना के निर्माण में प्रत्यक्ष सहभाग के परिचायक हैं।
आजाद हिंद का नेता भी सावरकर का प्रशंसक
कांग्रेस में होने व मुस्लिम विषय पर सावरकरजी से मतभेद के बावजूद सावरकरजी के प्रति सुभाषचंद्र के मन में आदरभाव था। 1937 में रत्नागिरी से रिहाई पर सावरकरजी का अभिनंदन करते समय नेताजी ने उन्हें कांग्रेस में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया था। कांग्रेस अध्यक्ष रहते समय भी दोनों की गुप्त भेंट हुई थी।
22 जून, 1940 को सावरकर जी से मिलने नेताजी मुंबई के सावरकर सदन पहुंचे। सावरकरजी के चरित्रकार बताते हैं कि समय तय किए बगैर सावरकर किसी से मिलते नहीं थे। लेकिन बिना समय तय किए अचानक पहुंचे सुभाषचंद्र बोस का सावरकर जी ने गर्मजोशी से स्वागत किया। मानो, वह उन्हीं की राह देख रहे थे।
सच कहें तो सावरकर जी चुंबकीय व्यक्तित्व के क्रांतिकारी नेता थे। उनसे हाथ मिलाने मात्र से लाला हरदयाल, वी.वी.एस. अय्यर जैसे ढीठ युवा सशस्त्र क्रांतिकारी बन गए थे। और तो और, इस समय रासबिहारी जैसा कद्दावर क्रांतिकारी सहयोगी भी उनके साथ था। विश्वयुद्ध के समय उनकी व रासबिहारी की आयु क्रमश: 58 व 55 की थी। दोनों पर अंग्रेजों की कड़ी नजर थी। इसलिए नई सेना का नेतृत्व युवा व सक्षम होना चाहिए, इस पर दोनों एकमत थे। विस्मय की बात यह कि दोनों की दृष्टि सुभाषचंद्र बोस पर ही टिकी हुई थी। और अनायास सुभाषचंद्र स्वयं उनके पास पहुंचे थे। यह अवसर सावरकर जी गंवाना नहीं चाहते थे।
नेताजी से बात करते-करते सावरकरजी ने उन्हें भारत के बाहर जाकर जर्मन, इटली, जापान आदि अंग्रेज विरोधी राष्ट्रों का सहयोग लेकर भारत पर बाहर से आक्रमण करने का सुझाव दिया। साथ ही जापान में रासबिहारी के नेतृत्व में तैयार हो रही सेना की जानकारी देकर रासबिहारी का पत्र भी दिखाया। ऐसी सेना का नेतृत्व करने की मेरी या रासबिहारी की आयु नहीं, लेकिन आप यह कर सकते हैं, यह बताना भी सावरकर नहीं भूले।
वीर सावरकर से मिलने के पश्चात और लगभग इसी आशय का रासबिहारी का पत्र पाने के पश्चात भी सुभाषचंद्र की मूल धारणा बदलने में समय लगा। हेम घोष के भी यही सुझाव देने के पश्चात सुभाषचंद्र की धारणा बदलने लगी। सुभाषचंद्र भारत का स्वाधीनता संघर्ष पुस्तक में सावरकर की मुलाकात का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, ‘श्री सावरकर अंतरराष्ट्रीय स्थिति से बिल्कुल अनभिज्ञ बस यही सोच रहे थे कि ब्रिटेन की भारत में जो सेना है, इसमें घुसकर हिंदू किस प्रकार सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करें।’ (पृ. 225)
इस पुस्तक में लेखक की प्रस्तावना 1934 साल की है, जबकि उपरोक्त घटना 1940 की है। अर्थात् मूल रचना लेखक की मृत्यु पश्चात, लेखक के पुनरावलोकन के बिना पुस्तक में जोड़ी गई है। तनिक ऐसा मानकर चलते हैं कि, सुभाषचंद्र की मान्यता 1940 तक उपरोक्त ही थी। तब भी इससे यही स्पष्ट होता है कि, सुभाषचंद्र के अनुसार सावरकर जी सैनिकीकरण पर जोर दे रहे थे व सुभाष उससे सहमत नहीं थे।
कुछ साल पहले प्रो. कपिल कुमार को आजाद हिंद फौज के सैनिकों के पत्र मिले जिनमें स्पष्ट रूप से ‘बैरिस्टर सावरकरजी के आवाहन पर हम सेना में शामिल हुए’ का उल्लेख था। यह सब प्रमाण सावरकर के आजाद हिंद फौज के निर्माण में प्रत्यक्ष सहभाग के परिचायक हैं
वास्तविकता यह है कि, सावरकर के सैनिकीकरण का महत्व उस समय न समझने वाले नेताजी को रासबिहारी से मिलने और आजाद हिंद की कमान संभालने के बाद सावरकर की दूरदृष्टि का अहसास हुआ। आकाशवाणी पर 25 जून, 1944 को सुभाषचंद्र ने कहा,
‘When due to misguided political whims and lack of vision almost all the leaders of Congress have been decrying all the soldiers in Indian National Army as mercenaries, it is heartening to know that Veer Savarkar is fearlessly exhorting youths of India to enlist in the Armed Forces. These enlisted youths themselves provide us with trained men and soldiers for our Indian National Army’’ (Indian Independent Leagues Publication/ Savarkar : Dhanajay Keer 364)
सावरकर जी की सैनिकीकरण का फल नेताजी प्रत्यक्ष देख रहे थे, उसी का परिणाम यह वक्तव्य था। देशगौरव सुभाषचंद्र अत्यंत जनप्रिय थे, गांधीजी के विरुद्ध जाकर उन्होंने कांग्रेस का अध्यक्ष पद दो बार जीता था। लेकिन सावरकर व रासबिहारी, इन दो बुजुर्ग क्रांतिकारियों ने मिलकर उन्हें देशगौरव से नेताजी बना दिया। सत्याग्रही से सशस्त्र क्रांतिकारी बना दिया। आने वाली पीढ़ियों के लिए सुभाष मंत्र बन गए।
अगर 1857 का स्वातंत्र्यसमर ग्रंथ ना होता तो…
रासबिहारी, सुभाषचंद्र के इन महत्प्रयासों व सैनिकों के नि:स्वार्थ त्याग को कांग्रेसियों ने सदैव दुत्कारा। अहिंसा के पुजारी, पंचशील व विश्वशांति की दुहाई देनेवाले नेहरू आजाद हिंद व सुभाष से लड़ने स्वयं सीमा पर जाने वाले थे। लेकिन अंत में उन्हें भी सुभाषचंद्र व आजाद हिंद का गौरवगान करना पड़ा। इसका कारण था सावरकर का 1857 का स्वातंत्र्यसमर ग्रन्थ।
सावरकर की कलम के असर का वर्णन करते हुए गोष्ठी के संपादक सुब्बाराव 1946 में लिखते हैं, ‘1857 से 1943 के बीच अगर सावरकर नहीं जन्मते तो अंग्रेज व कांग्रेस मिलकर आजाद हिंद की सेना के युद्धप्रयास को राजद्रोही बगावत का क्षुद्र प्रयास करार देते। दोनों मिलकर सशस्त्र हिंसा व नि:शस्त्र अहिंसा से इसे धूल में मिलाते। भला हो सावरकर का कि उन्होंने ‘विद्रोह’ इस मूल्य के संदर्भ में भारतीयों के विचारों में क्रांति लाई। अब लार्ड वेव्हेल भी बोस के युद्धप्रयास को बगावत नहीं कह सकेगा। इस मूल्यपरिवर्तन का प्रमुख श्रेय सावरकर का है। एकमात्र उन्हीं का ही है।’
नेताजी के बाद भी, सैनिकों की देशभक्ति का जज्बा थमा नहीं। नाविक दल, वायु दल स्वाधीनता का मंत्र जापते खड़ा हो गया। आजादी भारत के द्वार आई। इंडियन इंडिपेंडेंट एक्ट के समय अंग्रेज प्रधानमंत्री एटली को कहना पड़ा-
‘हम भारत को सत्ता हस्तांतरण कर रहे हैं क्योंकि,
1. अब भारतीय सेना अंग्रेजों से वफादार नहीं रही।
2. बड़ी सेना भेजकर भारत को अधीन रखना हमारे लिए किफायती नहीं।’
एटली का वक्तव्य, उसके दोनों कारण; सैन्य सामर्थ्य की ओर ही इशारा करते हैं न कि नि:शस्त्र प्रतिकार की ओर।अंततोगत्वा हमें कहना पड़ता है कि, 1899 से लेकर 1947 तक वीर सावरकर जिस स्वाधीनता हेतु भरसक प्रयास कर रहे थे, उसी का एक प्रतिफल आजाद हिंद सेना थी और सावरकर ही आजाद हिंद सेना के ध्येयजनक थे।
(लेखक मनोचिकित्सक हैं और दशग्रंथी सावरकर सम्मान से सम्मानित हैं)
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