मार्च-अप्रैल में पड़ी भीषण गर्मी दे रही चेतावनी। इससे सबक लेने की आवश्यकता। विकास की दौड़ में प्रकृति के साथ सामंजस्य न बैठाने का क्या हो सकता है परिणाम, इसकी कल्पना तक भयावह। वायुमंडल में तापमान पर नियंत्रण के लिए कार्बन उत्सर्जन पर रोक ही उपाय
इस वर्ष मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ी गर्मी ने लोगों को भयभीत कर दिया है। मौसम विभाग (आईएमडी) के आंकड़ों के अनुसार, 1901 के बाद से यानी 121 वर्षों में इस वर्ष मार्च का महीना सबसे गर्म रिकॉर्ड हुआ है। इस महीने में देशभर में अधिकतम तापमान सामान्य से 1.86 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यही हाल अप्रैल में हुआ। गर्म हवाओं के कारण, उत्तर पश्चिम और मध्य भारत में अधिकतम तापमान पिछले 122 वर्षों में अप्रैल महीने में सबसे अधिक रहा। कई शहरों में तापमान 43-44 डिग्री सेल्सियस तक चला गया।
अनुमान जताया जा रहा है कि तापमान 50 डिग्री सेल्सियस को पार कर सकता है। भारत के कई प्रदेशों में आरेंज अलर्ट जारी कर दिया गया है। आईएमडी के महानिदेशक मृत्युंजय महापात्र ने बताया है कि, ‘‘मई के दौरान, पश्चिम-मध्य और उत्तर-पश्चिम भारत के अधिकांश हिस्सों और पूर्वोत्तर भारत के उत्तरी हिस्सों में सामान्य से अधिकतम तापमान रहने की संभावना है। देश के शेष हिस्सों में सामान्य से कम अधिकतम तापमान होने का संभावना है।’’
30 अप्रैल को इनसैट 3डी, कॉपरनिकस सेंटिनल 3 और नासा के एक उपग्रह द्वारा ली गई तस्वीरें और भी भयाक्रांत करती हैं। इन उपग्रह तस्वीरों के अनुसार उत्तर-पश्चिम भारत के कुछ हिस्सों में पृथ्वी की सतह का तापमान 60 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो गया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो हमारा शरीर किसी भी हालत में इतना तापमान नहीं झेल सकता। पाकिस्तान के कुछ हिस्सों की स्थिति और भी भयावह है। पाकिस्तान के बलूचिस्तान क्षेत्र के तुरबत में पिछले कुछ हफ्तों से तापमान 50 के पार बना हुआ है।
आंकड़े बताते हैं कि 1990 के दशक में साल का औसत तापमान 26.9 डिग्री सेल्सियस हुआ करता था और आज दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में अप्रैल में दिन का तापमान 40 पार जा रहा है। मतलब दो दशक में तापमान लगभग 10-14 डिग्री तक बढ़ा है। अगर यही रफ्तार जारी रही तो अगले दो दशक में यानी कि साल 2045-50 तक तापमान 50 डिग्री के करीब जा सकता है।
आमतौर पर मार्च-अप्रैल का महीना लू और इतनी तपिश का नहीं होता। सवाल उठता है कि फिर मार्च-अप्रैल में इतनी गर्मी कैसे है? इसका कारण क्या है? क्या मौसम पीछे खिसक रहा है? क्या यह गर्मी अभी और बढ़ेगी? क्या यह बढ़ी हुई गर्मी स्थाई होगी?
लंदन के इम्पीरियल कॉलेज के डॉ. मरियम जकारिया और डॉ. फ्रेडरिक ओट्टो के एक नए अध्ययन में पाया गया है कि मार्च-अप्रैल में भारत में गर्मी के थपेड़े मानव गतिविधियों के कारण वैश्विक तापमान के उच्च स्तर पर जाने का परिणाम हैं। डॉ. जकारिया ने कहा कि भारत में हालिया उच्च तापमान जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ है।
मानव गतिविधियों के कारण वैश्विक तापमान बढ़ने से पहले भारत में इन महीनों में इतनी गर्मी 50 वर्षों में एक बार देखी गई होगी। लेकिन अब यह बहुत आम परिघटना है। हम 4 वर्ष में एक बार ऐसे उच्च तापमान की उम्मीद कर सकते हैं। डॉ. ओट्टो का मानना है कि जब तक ग्रीनहाउस गैसों को उत्सर्जन खत्म नहीं किया जाता, भारत एवं अन्य स्थानों पर लू के थपेड़ों का और गर्म होना, और खतरनाक होना जारी रहेगा।
राष्ट्रीय वन नीति
वैसे तो वन क्षेत्र को संरक्षित करने के लिए भारत में वन नीति ब्रिटिश काल में 1894 में ही बन गई थी। आजादी के बाद 1952 में इसमें संशोधन कर पहली बार राष्ट्रीय वन नीति बनी, जिसमें 1988 में फिर संशोधन किया गया। इसमें देश के 33 प्रतिशत भाग को वनाच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन 1988 के बाद से जलवायु में बहुत बदलाव आए और इससे उपजी चुनौतियों से निपटने में राष्ट्रीय वन नीति-1988 सक्षम नहीं थी। यह 21वीं सदी के भारत की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रही थी। साथ ही, इसमें राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत वन की स्पष्ट परिभाषा नहीं थी और वन प्रबंध की स्पष्ट नीति भी नहीं थी। इसे देखते हुए 2020 में एक बार फिर इसमें संशोधन की सिफारिश की गई। इस बार सिफारिश का आधार बना 2016 में ‘नेचुरल रिसोर्स फोरम’ प्रकाशित एक शोध पत्र।
आंकड़ों में जंगल
1947 से अब तक देश की आबादी में तीन गुना से अधिक वृद्धि हो चुकी है। लेकिन जंगल सिकुड़ते चले गए। 1947 में देश में 49 प्रतिशत जंगल थे। यानी लगभग 40 मिलियन हेक्ट. भूमि वनाच्छादित थी। 1970 के मध्य में देश का वन क्षेत्र बढ़कर 76.5 मिलियन हेक्ट. हो गया। लेकिन 1980 में 42,380 वर्ग किमी जंगल काट कर जमीन तैयार की गई। लगभग 62 प्रतिशत कृषि और शेष अन्य जरूरतों के लिए। 2015-18 के बीच वन क्षेत्र में नाममात्र 0.21 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 2017 के मुकाबले 2019 में वनों का दायरा 2017 के मुकाबले 5,188 वर्ग किमी. बढ़ गया, पर उत्तर-पूर्व इलाके में हरित क्षेत्र घट गया। फिर 2021 में कुल वन और वनाच्छादित क्षेत्र में 2,261 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई। क्षेत्रफल की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा वन क्षेत्र मध्य प्रदेश में है। तमाम प्रयासों के बावजूद 33 प्रतिशत वन क्षेत्र का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है और अभी देश का वन आवरण मात्र 24.62 प्रतिशत ही है।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में जलवायु परिवर्तन पर शोध कर रहे प्रो. अरुण देव सिंह बताते हैं कि तापमान में वृद्धि दो कारणों से होती है। एक कारण तो प्राकृतिक है। पृथ्वी सूर्य के ताप से प्रभावित होती है। सूर्य से 9 से 11 वर्ष के अंतराल में सौर लपटें निकलती हैं। इससे एक अंतराल में पृथ्वी का तापमान अधिक होता है परंतु शेष समय में वह सामान्य हो जाता है। दूसरा कारण मानव जनित है। विकास के विभिन्न उपक्रमों से कार्बन उत्सर्जन होता है। इससे ग्लोबल वार्मिंग होती है।
यह कार्बन उत्सर्जन बढ़ेगा, तो गर्मी का प्रकोप भी बढ़ेगा। फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि मौसम पीछे खिसक रहा है। यदि 20 वर्षों तक मार्च में इतनी गर्मी पड़ती रहे तो मौसम का क्रम बदला हुआ माना जा सकता है। फिलहाल जलवायु परिवर्तन के कारण यह देखने में आ रहा है कि गर्मी, जाड़ा या बारिश, जो भी मौसमी स्थिति है, वह बड़ी तीव्र है। यानी बारिश जब भी होगी, बहुत तेज होगी परंतु उसमें निरंतरता नहीं होगी।
टेरी स्कूल आफ एडवांस स्टडीज में एसोशिएट प्रोफेसर डॉ. चंदर कुमार सिंह कहते हैं कि 1950 के बाद से तापमान का चार्ट देखें तो तापमान क्रमश: बढ़ रहा है। फिलहाल मार्च-अप्रैल में पड़ी गर्मी के आधार पर न तो इसे स्थाई माना जा सकता है और न ही यह कहा जा सकता है कि मौसम चक्र बदल रहा है। मौसम में परिवर्तन क्रमिक ही होगा, अचानक नहीं। उन्होंने कहा कि तापमान बढ़ने से समुद्र के सतह जल का तापमान बढ़ेगा। इससे समुद्र का जल स्तर भी बढ़ेगा।
भारत में हालिया उच्च तापमान जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ है। मानव गतिविधियों के कारण वैश्विक तापमान बढ़ने से पहले भारत में इन महीनों में इतनी गर्मी 50 वर्षों में एक बार देखी गई होगी। लेकिन अब यह बहुत आम परिघटना है – हम 4 वर्ष में एक बार ऐसे उच्च तापमान की उम्मीद कर सकते हैं।
प्रो. अरुण देव सिंह और डॉ. चंदर कुमार सिंह यह मानते हैं कि 1950 के बाद औद्योगिकीकरण, इसमें जीवाश्म ईंधन के अत्यधिक उपयोग, वाहन, एसी, कंक्रीट के बढ़ते जंगलों से कार्बन उत्सर्जन या ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इससे वायुमंडल में गर्मी निरंतर बढ़ रही है। यदि इसे नहीं रोका गया तो मानव, पशु-पक्षी, फसल, समुद्री जीव, सभी प्रभावित होंगे। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से बचने के लिए पौधारोपण करना और उन्हें वृक्ष बनाना बहुत जरूरी है। साल 2019 के आंकड़े बताते हैं कि वनों की कटाई के कारण वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगभग 11 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
बारिश पैटर्न में बदलाव
जलवायु परिवर्तन के चलते मानसून के दौरान बारिश के पैटर्न में भारी बदलाव देखने में आया है। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर समेत देश के तमाम हिमालयी राज्यों में प्राकृतिक जलस्रोत तेजी से सूख रहे हैं। वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के शोध में यह बात सामने आई है कि हाल-फिलहाल में बेहद कम समय में तेज बारिश हो रही है। इससे जल स्रोतों के रिचार्ज होने में दिक्कत आ रही है। रिचार्ज होने के लिए धीरे-धीरे और सामान्य बारिश जरूरी है।
फसलों पर असर
देशभर में मार्च-अप्रैल महीने में तापमान अधिक होने का दुष्प्रभाव अनाज उत्पादन पर पड़ रहा है। इस कारण से गेहूं, दाल, चना, गन्ना, सब्जी, मसालों आदि का उत्पादन घट रहा है। तापमान में वृद्धि होने से समय के पूर्व फसलों के पकने के कारण प्रत्येक अनाज का दाना कमजोर हो रहा है। उनका आकार भी घट रहा है। फसलों में बार-बार सिंचाई की जरूरत पड़ रही है। तमाम फलदार पेड़ों-पौधों का भी यही हाल है।
समुद्र और समुद्री जीवन पर असर
इससे पूर्व जनवरी में कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस की ओर से एक रिपोर्ट जारी की गई थी, जिसके मुताबिक वर्ष 2021 भारत के इतिहास में सबसे गर्म वर्षों में एक रहा। पिछले वर्ष दुनिया भर के समुद्रों ने 14 सेक्किटिलियन जूल्स गर्मी सोखी। इस गर्मी का कारण आर्कटिक, ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक की बर्फ का पिघलना है। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में बताया कि वर्ष 2020 की तुलना में वर्ष 2021 में दुनिया भर के समुद्र 70 प्रतिशत अधिक गर्म रहे।
कोलोरोडो स्थित नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फियर के वैज्ञानिकों का कहना है कि समुद्र की गर्मी बढ़ने की वजह मानव प्रेरित जलवायु परिवर्तन है। समुद्र न केवल गर्मी, बल्कि मानव द्वारा उत्पन्न किए जा रहे कार्बन डाई आॅक्साइड का 20 से 30 प्रतिशत हिस्सा भी सोख रहे हैं जिससे समुद्रों की अम्लीयता बढ़ रही है।
अगर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को इस सदी के अंत तक नहीं रोका गया तो महासागरीय जैव विविधता पर जलवायु परिवर्तन के कारण महाविनाश जैसे हालात बन सकते हैं। दुनिया के महासागर गर्म हो रहे हैं, ध्रुवीय बर्फ पिघल रही है। अगली कुछ सदियों में विनाश की ऐसी स्थिति आ सकती है जो दुनिया ने डायनासोर के महाविनाश के बाद नहीं देखी होगी।
अगर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को इस सदी के अंत तक नहीं रोका गया तो महासागरीय जैव विविधता पर जलवायु परिवर्तन के कारण महाविनाश जैसे हालात बन सकते हैं। दुनिया के महासागर गर्म हो रहे हैं, ध्रुवीय बर्फ पिघल रही है। अगली कुछ सदियों में विनाश की ऐसी स्थिति आ सकती है जो दुनिया ने डायनासोर के महाविनाश के बाद नहीं देखी होगी।
साइंस जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन और मानव जनित प्रदूषण का असर मानव और धरती के जीवों पर ही नहीं बल्कि महासागरों में रहने वाले जीवों पर भी हो रहा है। अगर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इस सदी के अंत तक नहीं रोका गया तो महासगरीय जैवविविधता पर जलवायु परिवर्तन के कारण महाविनाश जैसे हालात बन सकते हैं। दुनिया के महासागर गर्म हो रहे हैं, ध्रुवीय बर्फ पिघल रही है। जीवविज्ञानियों ने खुलासा किया है कि अगली कुछ सदियों में विनाश की ऐसी स्थिति आ सकती है जो दुनिया ने डायनासोर के महाविनाश के बाद नहीं देखी होगी।
वायरल संक्रमण का खतरा
अभी दुनिया कोरोना के वायरस से रूबरू हुई है। तापमान बढ़ने से अनुकूलन न कर पाने वाले कुछ जीवों का अस्तित्व मिट सकता है तो नए तरह के वायरस के उत्पन्न होने का खतरा भी होगा। नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी की प्रजातियों को बड़े पैमाने पर विस्थापित करने के लिए मजबूर कर रहा है। इस विस्थापन के कारण आने वाले 50 साल में 4000 से ज्यादा वायरल संक्रमण का खतरा सामने होगा। इस अध्ययन के प्रमुख लेखक कोलिन जे. कार्लसन ने ट्वीट कर कहा है कि हमारे अध्ययन में पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन ने अन्य महामारियों के जोखिम को कई गुना बढ़ा दिया है। इसके लिए जीवाश्म ईंधन कंपनियों और उनके द्वारा किए जा रहे नुकसान को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर मॉडल के आधार पर पृथ्वी पर इन हॉटस्पॉट का एक खाका भी तैयार किया है जिसमें बताया गया कि आने वाले दिनों में दक्षिण-पूर्व एशिया इन वायरसों के लिए नया हॉट स्पॉट बनेगा। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में म्यांमार, थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया आदि देश आते हैं। शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि अगले 50 साल यानी 2070 तक करीब 4000 नए संकरित प्रजातियों से वायरस का संचरण अन्य जीवों में होगा।
राज्यों को केंद्र के निर्देश
देश के कई राज्यों में भीषण गर्मी को देखते हुए केंद्र सरकार ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से चिकित्सा तैयारियों और स्वास्थ्य केंद्रों में जरूरी दवाओं की पर्याप्त उपलब्धता की समीक्षा करने तथा संवेदनशील इलाकों में पेय जल आपूर्ति करने के निर्देश दिए हैं। साथ ही, कहा है कि गर्मी से संबंधित बीमारियों को रोकने के लिए राज्य सरकारें पहल करें। इसके अलावा, केंद्र ने क्या करें और क्या नहीं करें, इसके लिए परामर्श भी जारी किया है। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण ने राज्यों से सभी जिलों को गर्मी से संबंधित बीमारियों पर राष्ट्रीय कार्य योजना संबंधी परामर्श भेजने की अपील की है ताकि हीट वेव या लू लगने पर लोगों का तुरंत इलाज किया जा सके।
ऐसे बचें लू से
- शरीर में पानी की कमी न होने दें। प्यास नहीं भी लगे, फिर भी पानी पीते रहें।
- शराब और धूम्रपान से बचें। इससे शरीर में पानी की कमी हो जाती है।
- लू चलने के दौरान घर से बाहर न निकलें। जरूरी हो तो सिर ढक कर बाहर जाएं।
- अगर गर्मी से संबंधित बीमारियों के लक्षण दिखें तो तत्काल 108 या 102 पर कॉल करें।
- यदि शरीर अधिक गर्म हो, घबराहट या बेचैनी हो, पसीना न हो तो तत्काल चिकित्सक से सलाह लें।
- शरीर का तापमान 40 डिग्री से. और 104 डिग्री फॉरेनहाइट से अधिक हो, शरीर में दर्द बना रहे, दस्त हो, धड़कनें बढ़ने लगें और सांस लेने में तकलीफ होने लगे तो तत्काल चेकअप कराएं।
- बच्चे यदि खाना न खाएं, चिड़चिड़े हो जाएं या मूत्र से संबंधित अनियमितता हो, आंसू न आए और दिनभर सुस्ती रहे तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें।
समुद्र तटीय मानव बस्तियों पर असर
लगभग दो महीने पहले जारी आईपीसीसी की प्रारंभिक रिपोर्ट में कहा गया है कि समुद्र के बढ़ते जल स्तर से सदी के अंत तक देश के 12 तटीय शहरों के पानी में डूबने का खतरा है। इसमें मुंबई, चेन्नै, कोच्चि और विशाखापत्तनम शामिल हैं। यह शुरुआत हो चुकी है। फिलहाल समुद्र जल स्तर बढ़ने से ओडिशा और आंध्र प्रदेश के कई तटीय गांव प्रभावित हुए हैं। आंध्र प्रदेश में श्रीकाकुलम जिले के उत्तर में एक गांव कलिंगपट्टम से समुद्र पहले 500 मीटर दूर था, अब बगल में आ पहुंचा है। ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले के सात गांव समुद्र में डूब चुके हैं। इसी तरह सुंदरबन के 104 द्वीपों में बसाहट वाले 54 द्वीप लगातार तटीय कटाव का सामना कर रहे हैं।
पक्षियों की 700 से ज्यादा प्रजाति लुप्तप्राय
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वनस्पति विभाग के प्रोफेसर एन.बी. सिंह ने बताया कि ग्लोबल वार्मिंग से तापमान बढ़ रहा है। तापमान बढ़ने के कारण जिस प्रकार मनुष्य प्रभावित होते हैं, उसी प्रकार पशु-पक्षी भी प्रभावित होते हैं। सामान्यत: तापमान जब 30 डिग्री के ऊपर जाता है, उस समय अगर पीने का पानी उपलब्ध न हो या फिर पानी कम पिया जाए तो शरीर के अंदर का प्रोटीन पिघलने लगता है। ऐसे में जीवित रह पाना मुश्किल हो जाता है। जीवन संकट में आ जाता है। ग्लोबल वार्मिंग का असर यह है कि 700 से ज्यादा पक्षियों की प्रजाति दिखनी बंद हो चुकी है और 1500 से ज्यादा पेड़-पौधों की प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं।
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