आधुनिक विचारकों ने ईसा की 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी तक यूरोप में जो सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रगति तथा आंदोलन हुए, उन्हें पुनर्जागरण कहा। यूरोप में मध्ययुग की समाप्ति और आधुनिक युग का प्रारंभ इसी समय से माना जाता है। मुख्यत: यह यूनान और रोम के प्राचीन शास्त्रीय ज्ञान की पुन: प्रतिष्ठा का भाव प्रकट करता है। इसके फलस्वरूप योरोपीय लोगों के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नवीन चेतना आई थी। ’रेनेसां’ के नाम से प्रसिद्ध यह पुनर्जागरण काल, इतिहास का एक महत्वपूर्ण कालखंड माना जाता है।
दुर्भाग्य से यह हमारी परतंत्र मानसिकता का भी एक ज्वलंत उदाहरण है कि शेष संसार के अन्य–अन्य देश भी अपना पुनर्जागरण इसी कालावधि में खोजते हैं। पश्चिम की उपनिवेशीकृत मानसिकता का इससे बड़ा और क्या साक्ष्य होगा? किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए के भारत जैसे प्राचीनतम एवं चैतन्य देश में यह पुनर्जागरण दौर बहुत पहले से आता रहा है, जिसकी एक झलक बुद्ध और महावीर के काल में दिखाई देती है, तो दूसरी झलक आठवीं शताब्दी में, जब जगद्गुरु शंकराचार्य भारत के प्राचीन सांस्कृतिक वैभव की पुनर्स्थापना करते हैं। आठवीं शताब्दी इसलिए कि अधिकतर विद्वान् शंकर का जन्मकाल यही मानते हैं। (हो सकता है कि यह काल निर्धारण भी उपनिवेशीकृत मानसिकता की ही देन हो!)
वस्तुतः जगद्गुरु शंकराचार्य का प्रमुख अवदान इस महादेश की मूर्च्छित हुई राष्ट्रचेतना का पुनर्जागरण करना था। राष्ट्र के शिथिल प्राणों में ओज का संचार कर उसे जन–जन तक पहुंचाना था। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इतना विपुल साहित्य रच डाला, जितना किसी एक जीवनभर में कर पाना असंभव है। इतना ही नहीं शास्त्रार्थ, प्रवचन और धर्मोपदेश का भी कार्य वे निरन्तर करते रहे।
किंतु यह बात सदैव ध्यान रखने की है कि निढ़ाल पड़ी राष्ट्रीय चिति को जाग्रत कर लोकव्यापी बनाने का कार्य अकेले इस बैद्धिक मार्ग से संभव नहीं होता। अनेक मनीषी, विचारक, दार्शनिक पहले से यह कार्य करते रहे हैं। सांख्य, योग, मीमांसा दर्शन के आचार्यों का पाण्डित्य भी कोई कम नहीं था। बौद्ध मत के खंडन में कुमारिल भट्ट ने अपना सम्पूर्ण जीवन होम दिया। किन्तु केवल ज्ञानमार्ग से कालजयी परिणाम नहीं मिल सकते थे। कोई भी विचार जब तक सामाजिक जीवन में कर्म के स्तर पर छनकर नहीं आ जाता तब तक वह विद्वानों के बौद्धिक विमर्श का ही अंग बना रहता है। जन साधारण को उससे खास लेना–देना नहीं रहता। आचार्य शंकर ऐसे विलक्षण मनीषी हैं, जिन्होंने इस बात को समझ लिया था कि ‘ज्ञान’ की ठोस नींव पर ‘कर्म’ की सुदृढ़ संरचना से ही समाज में चिरस्थाई निर्माण होगा, और भारत का प्राचीन गौरव पुनः प्राप्त किया जा सकेगा। अतः उन्होंने जितना ध्यान ’ज्ञानयोग’ पर दिया, उतना ही ’कर्मयोग’ पर भी दिया। किन्तु बात इससे भी आगे तक जाती है। ’ज्ञान’ और ’कर्म’ के योग से निर्मित भव्य भवन में प्राणप्रतिष्ठा तो भक्ति मार्ग से होती है। भक्ति ही नीरस भवन को सरस बनाती है।
आचार्य शंकर ऐसे मनीषी हैं जिन्होंने ज्ञान, कर्म और भक्ति के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किए। महाभारतोत्तर भारत के पांच हजार वर्षों के कालखंड में कोई अन्य महापुरुष नहीं दिखता जिसने ज्ञानयोगी होकर कालजयी ग्रंथों की रचना की हो, कर्मयोगी होकर संपूर्ण राष्ट्र का भ्रमण कर एक सुव्यवस्थित धर्मतंत्र की स्थापना की हो और भक्तियोगी होकर अत्यंत भावपूर्ण स्तोत्रों की रचनाकर भक्ति की भागीरथी प्रवाहित की हो; वह भी केवल बत्तीस वर्ष की अत्यल्प जीवन अवधि में।
बुद्ध और महावीर के बाद भारत में प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग की धाराओं के मध्य संघर्ष और समन्वय की प्रक्रिया पूरे एक हजार वर्ष तक चलती रही, जिसका प्रतिफलन शंकराचार्य के रूप में हुआ। आचार्य शंकर ने एक ऐसी समन्वित पद्धति विकसित की जिसमें ब्राह्मण और श्रवण, प्रवृत्ति और निवृत्ति, ज्ञान और कर्म आदि की द्वंद्वात्मकता को एक अन्विति मिली। शंकर द्वारा निर्मित इसी भूमि पर आगे चलकर रामानुजाचार्य और रामानंद की सामाजिक समरस एवं सर्वस्पर्शी भक्ति फली–फूली।
यह अकारण नहीं था कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रनायक के रूप में जिन दो महापुरुषों को चुनकर अपने उपन्यासों का नायक बनाया उनमें एक राजनैतिक नायक चंद्रगुप्त थे, तो दूसरे सांस्कृतिक महानायक आचार्य शंकर।
अपने उपन्यास ‘जगद्गुरु श्री शंकराचार्य’ की भूमिका “मनोगत” में वे लिखते हैं–
” हमारे राष्ट्र निर्माताओं में जगद्गुरु श्री शंकराचार्य का स्थान बहुत ऊंचा है। कई विद्वानों ने तो उन्हें आधुनिक हिंदू धर्म का जनक ही कहा है। जनसाधारण स्वामी शंकराचार्य को बौद्ध धर्म के विनाशक तथा हिंदू धर्म के संस्थापक के रूप में देखता है तो कई विद्वानों को उनमें ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ दृष्टिगोचर होता है। सत्यांश दोनों ही चित्रों के पीछे है, क्योंकि उनके युग की संपूर्ण सहस्राब्दी का इतिहास केंद्रापगामी बौद्ध धर्म तथा केंद्राभिमुखी हिंदू धर्म के पारस्परिक संघर्ष तथा समन्वय का इतिहास है। जगद्गुरु श्री शंकराचार्य का जन्म उस समय हुआ था जब बौद्ध धर्म का ह्रास हो रहा था। धर्म के नाम पर अनाचार फैल रहा था। … प्रखर राष्ट्रीयता का पोषक हिंदू समाज इसे सहन न कर सका और कुमारिल भट्ट द्वारा प्रज्वलित चिंगारी शंकराचार्य के रूप में दावानल बनकर प्रकट हुई। इस दावानल में हिंदू धर्म के अंदर–बाहर चारों ओर उगने वाले झाड़ झंकाड़ को भस्मसात् कर दिया। इस अग्नि में तपकर हिंदू धर्म पहले से अधिक तेजस्वी बनकर कुंदन के रूप में निखर आया। धर्म की रक्षा हुई। देश की रक्षा हुई। स्वामी शंकराचार्य ने बुद्ध को हिंदू धर्म के अवतारों में स्थान देकर बौद्धों की केंद्रापगामी दृष्टि फेर दी। फिर घर–घर में देश का गुंजन प्रारंभ हो गया।”
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का यह विस्तृत उद्धरण आचार्य शंकर के विराट व्यक्तित्व को जानने–समझने के लिए एक कुंजी की तरह है कि आखिर क्यों शंकराचार्य को भारतीय पुनर्जागरण का पुरोधा कहा जा रहा है! वैदिक यज्ञों की हिंसा और आडंबरों से क्षुब्ध होकर बुद्ध ने एक नए पंथ का प्रवर्तन किया, जिसके फलस्वरूप वैदिक परंपराएं विलुप्त होने लगी थीं। किन्तु, कालांतर में बौद्ध पंथ में भी घोर विकृतियां आ गई और भारत की राष्ट्रीय एकात्मता खंडित होने लगी थी। लगभग एक हजार वर्ष तक बनी रही इस स्थिति में भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ गई तथा विदेशी आक्रमणों की बाढ़–सी आ गई। ऐसे में सनातन धर्म को बचाने के लिए कुमारिल भट्ट ने अथक प्रयास किए। वे मीमांसा दर्शन के महान् आचार्य थे और वैदिक कर्मकांडों के प्रबल पक्षधर। किन्तु वे यह नहीं समझ पाए कि इतिहास का चक्र अब आगे बढ़ चुका है, उसे पीछे लौटाना असंभव होगा। सर्वसाधारण ने यज्ञों को छोड़कर धर्मोपासना के अन्य विविध मार्ग अपना लिए हैं। समाज में वेदों के प्रति आस्था पुनर्स्थापित होजाने पर भी उसे पुनः यज्ञकर्म की ओर लौटना अब असंभव सा था। अतः उनके आग्रह को व्यापक स्वीकृति नहीं मिली। इस दिशा में आचार्य शंकर ने अद्भुत कार्य किया। कुमारिल भट्ट की तरह बौद्धों और नास्तिकों का खंडन तो उन्होंने भी किया किंतु हिंदू धर्म को वे उन छोड़ी गई परंपराओं की ओर न ले जाकर नई राहों की ओर ले गए। उनके द्वारा प्रचलित की गई वे नवीन राहें ही आज का हिंदू धर्म है।
अलौकिक प्रतिभा के धनी आचार्य शंकर ने अल्पायु में ही न केवल बड़े-बड़े ग्रंथों की रचना की अपितु संपूर्ण भारतवर्ष का परिभ्रमण कर धार्मिक दृष्टि से उसे एक सूत्र में बांधने का उद्यम किया। जो कार्य शताब्दियों से सम्राटों, राजाओं और उनकी सेनाओं द्वारा नहीं हो सका, वह अकेले इस परिव्राजक आचार्य ने कर दिखाया। शंकराचार्य के जन्म को लेकर अनेक मत हैं किंतु सर्वाधिक मान्यता यह है कि उनका जन्म 788 ईस्वी में केरल प्रदेश के मलाबार प्रान्त के कालड़ी नामक गांव में वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ। इनके पिता शिवगुरु तथा माता सुभद्रा थीं। इनके पिता बाल्यकाल में ही गोलोकवासी हो गए। घर पर मां और पुत्र, ये दो ही प्राणी रह गए थे। यह कथा तो बहुत प्रसिद्ध ही है कि उन्होंने किस तरह आठ वर्ष की आयु में माता से संन्यास की आज्ञा ले ली और घर छोड़ दिया। चलते समय उन्होंने अपनी माता को यह वचन अवश्य दे दिया कि वे उनका निधन होने पर उन्हें मुखाग्नि देने आएंगे। जबकि एक संन्यासी के लिए यह सर्वथा निषिद्ध था।
केरल से चलकर शंकर नर्मदा तट पर स्वामी गौड़पाद के शिष्य गोविंद भगवत्पाद के आश्रम में आए और उनसे संन्यास दीक्षा ली। गुरु के मार्गदर्शन में साधना कर वे बहुत थोड़े ही समय में प्रकांड प्रज्ञावान् और सर्वशास्त्र पारंगत हो गए। गुरु की आज्ञा से वे भारत के प्रमुख ज्ञान केंद्र काशी गए। अपने दादा गुरु गौड़पाद के वेदांत सूत्रों पर व्याख्या और गीता पर भाष्य रच कर सोलह वर्ष की आयु में ही वे वैचारिक दिग्विजय के लिए निकल पड़े। काशी से कुरुक्षेत्र होते हुए वे कश्मीर गए। श्रीनगर में शारदा देवी के सिद्धपीठ का आशीर्वाद लिया। श्रीनगर से बद्रिकाश्रम आए और वहां अलकनंदा के पास व्यासगुहा में कुछ कालपर्यंत ज्ञान साधना की।
यहां से वे प्रयाग आए और कुमारिल भट्ट से भेट की। उनकी मृत्युवेला निकट थी। कुमारिल के निर्देशानुसार वे माहिष्मती नगरी में मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने गए। मंडन मिश्र विख्यात मीमांसक आचार्य थे। शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र को पराजित कर शंकर महाराष्ट्र गए जहां उन्होंने शैवों और कापालिकों को शास्त्रार्थ में परास्त किया। यहां से वे दक्षिण की ओर बढ़े तथा तुंगभद्रा नदी के तट पर उन्होंने एक मंदिर बनवा कर उसमें कश्मीर की शारदा देवी की स्थापना की।
धार्मिक नवाचारों के प्रणेता आचार्य शंकर का यह कार्य राष्ट्रीय एकात्मता की दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सुदूर कश्मीर की पूज्य देवी शारदा के विग्रह को उन्होंने ठेठ दक्षिण में स्थापित कर वहां एक मठ स्थापित किया। यही श्रृंगेरी (श्रृंग–गिरी) मठ कहलाता है। इस मठ का अध्यक्ष मंडन मिश्र को बनाया जो संन्यास ग्रहण करने के बाद सुरेश्वराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। यहीं उन्हें अपनी माता की आसन्न मृत्यु का आभास हुआ और वह तत्क्षण उनके अंतिम दर्शन हेतु सभी बंधनों को तोड़कर चल पड़े। पूर्व वचनानुसार माता की अंत्येष्टि कर उनका श्राद्धकर्म किया। उन्होंने पौराणिक छह मत–पंथों का प्रतिसंस्कार किया, अतः उन्हें ’षण्मत स्थापनाचार्य’ भी कहते हैं। ये मत शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर , गाणपत्य एवं कौमार हैं।
शंकर काशी के मणिकर्णिका घाट के निकट रहते थे और प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में गंगास्नान को जाते थे। वहीं एक दिन उनके सामने एक चांडाल आ गया। अस्पृश्यता तत्कालीन कुसंस्कार के कारण उसे दूर हटने को कहा। चांडाल ने पूछा, किसे दूर हटाते हो? इस शरीर को? यह तो मिथ्या है। या आत्मा को? पर वह तो सर्वत्र व्याप्त है। इन गूढ़ बातों को सुनकर शंकर स्तब्ध रह गए। एक नया बोध जाग्रत हुआ। वेदांत का वह महान् आचार्य उस चांडाल चरणों में गिर गया। उन्होंने तत्पल अस्पृश्यता को तिलांजलि दे दी।
भारत में आर्य परंपरा की पुनर्स्थापना का श्रेय शंकर को ही है। आज हिंदू समाज में प्रचलित जप, तप, व्रत, उपवास, यज्ञ, दान, संस्कार, पर्व, उत्सव आदि उन्हीं के प्रयासों से प्रतिष्ठित हुए। पंचदेव उपासना पद्धति में विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और देवी की पूजा का विधान किया। स्मृतियों के अनुसार निर्धारित होने के कारण ही इसे ’स्मार्त मत’ कहा गया। सामान्यतः सनातनधर्मी हिंदू स्मार्त माने जाते हैं। आचार्य शंकर के विचार भारत में आर्य–द्रविड़ संघर्ष की झूठी कहानी गढ़ने वालों के मुंह पर एक तमाचे की तरह हैं, जो स्वयं द्रविड़ होते हुए आर्यधर्म की भित्ति को सुदृढ़ करते हैं। सुख्यात स्तोत्र सौंदर्यलहरी के 74वें पद में वे स्वयं को “द्रविड़ शिशु” कहते हैं।
बौद्ध दार्शनिकों ने जगत को शून्य माना था। शंकर ने बौद्धों का खंडन तो किया पर ”संसार शून्य है”– इस सिद्धांत को ज्यों का त्यों रखा। उन्होंने भी कहा “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।” दोनों ही दर्शन जगत् को तो मिथ्या मानते हैं, किंतु मतभेद इस पर है कि इस जगत का कर्ता कौन है? वस्तुत: जगत् कर्तृत्व मीमांसा ही वेदांत और बौद्ध दर्शन को अलग करती है। शंकर ने ब्रह्म को इसका कर्ता माना, जबकि बौद्धों की दृष्टि से इस जगत का कर्ता कोई नहीं है। यदि शंकर नहीं होते तो बौद्ध विचारकों के कारण सर्वसाधारण के हृदय में जो संसार की अनित्यता घर कर गई थी, उससे तीर्थों के प्रति श्रद्धा सदा के लिए समाप्त हो गई होती। आचार्य शंकर ने ही उसे पुन: स्थापित किया।
यह अद्भुत कार्य उन्होंने किया कि एक ओर तो जगत को मिथ्या माना, दूसरी ओर हमारी नदियां, मूर्तियों, मंदिरों, आदि के प्रति गहरी आस्था और श्रद्धा का निर्माण किया। संपूर्ण देश को एक सूत्र में बांधने के लिए अनेक तीर्थों को प्रतिष्ठा दी और कुंभ मेला प्रारंभ किया। यह आचार्य शंकर ही कर सकते थे कि दार्शनिक स्तर पर संसार को मिथ्या प्रतिपादित करें और भारत की नदियों और तीर्थों की स्तुति कर उन्हें मोक्षदायी सिद्ध कर दें। यह आचार्य शंकर ही कर सकते थे की बौद्ध, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि दर्शनों का खंडन करें और कुंभपर्व जैसे अद्भुत आयोजनों को साकार करें। यह आचार्य शंकर ही कर सकते थे कि प्रकांड पंडित मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित करें और उन्हें अपना योग्यतम शिष्य मानकर गोवर्धन पीठ का उत्तराधिकारी शंकराचार्य नियुक्त करें। यह आचार्य शंकर ही कर सकते हैं कि बौद्धों के विचारों का समूल उच्छेद करें और गौतम बुद्ध को भगवान का अवतार घोषित कर दें और सनातन में समन्वय की एक नई राह दिखाएं।
शंकर ने एक ओर प्रखर तर्क–युक्ति पूर्ण बुद्धिवादी मार्ग अपनाया तो दूसरी ओर वेदों के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा रखी। इसने बुद्धिवादी और भाववादी दोनों तरह के लोगों को प्रभावित किया। इसीलिए कहा जाता है कि शंकराचार्य ने देश के मस्तिष्क और हृदय दोनों पर अपना स्थायी अधिकार जमाया।
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