जरूरी है कि भारतीय स्वतंत्रता अभियान पर पुन: दृष्टि डाली जाए। इनमें कुछ कहानियों परी कथाओं सरीखी लगती हैं। ऐसा एक उदाहरण लाला हरदयाल का है जो उन दिनों एशिया से यूरोप और अफ्रीका से अमेरिकी महाद्वीपों तक हवाई यात्राएं करते थे, जब हवाई यात्राएं दुर्लभ होती थीं। तीक्ष्ण बुद्धि के दम पर उन्होंने 1905 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से दो छात्रवृत्तियां प्राप्त की और 1907 में आइसीएस से जुड़ने ही वाले थे कि उन्होंने ‘आइसीएस का नाश हो’ नामक पत्र लिखा, छात्रवृत्तियां छोड़ी और भारत लौटकर साधारण जीवन जीने लगे थे।
1909 में वह पेरिस गए और वन्दे मातरम नामक समाचार पत्र के संपादन से जुड़े। फिर पेरिस छोड़ वह अल्जीरिया पहुंचे और वहां से दक्षिण अमेरिका के सुदूर द्वीप मार्टिनीक पहुंचे, जहां भाई परमानन्द ने उन्हें तब ढूंढ़ा जब वह भूख-प्यास से बेहाल थे। वहां से वह संयुक्त राज्य अमेरिका पहुंचे और गदर पार्टी को वैचारिक सहयोग दिया, जो सात समंदर पार से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने वाला पहला संगठित अभियान था। 1914 में उन्हें अमेरिकी सरकार ने गिरफ्तार किया, इसलिए वह बर्लिन फरार हो गए, जहां उन्होंने बर्लिन समिति गठित की जो बाद में भारतीय स्वतंत्रता समिति के तौर पर जानी गई और पहले विश्व युद्ध के समय उसने जर्मनों को सहयोग दिया था। युद्ध के दौरान वह जर्मनी और तुर्की में रहे, लेकिन बाद में एक दशक तक तटस्थ रहने के बाद स्वीडन चले गए थे। इस दौरान उनकी भारत लौटने पर पाबंदी थी और यह समय उन्होंने लंदन यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने और यूरोप, एशिया एवं अमेरिका घूमने में बिताया। 1939 में संदिग्ध तौर पर जहर दिए जाने से उनकी मृत्यु हुई थी।
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