पत्थरों के वक्ष पर समय के आलेख विधाता के स्मृति चिह्न बन अमिट हो जाते हैं। 7,000 वर्ष पूर्व राखीगढ़ी (हरियाणा) में जो पत्थर दबे पड़े मिले, दीवारें और घर, घट और मरघट, वे सब पुराविदों के साथ संवाद करने लगे। अपनी आपबीती और अपने समय की गाथा ही नहीं, बल्कि रसोई में क्या पकता था और जन्म व मृत्यु के क्या संस्कार थे, वे भी कह बैठे। ये स्मृति लेख राष्ट्र की धरोहर होते हैं और जीवंत उन्हें पढ़कर नई पीढ़ी को बताते हैं कि यह है तुम्हारी पहचान, तुम्हारे पुरखों का इतिहास और उनकी जय-पराजय की गाथा।
ऐसी ही गाथा सुहेलदेव की मिली तो लोग चौंक गए, क्योंकि उनके बारे में तो कभी किसी ने कुछ कहा हो, ऐसा विशेष ध्यान में नहीं आता। एक ऐसा ही आश्चर्यजनक विषय रहा दिल्ली के संस्थापक महाराजा अनंगपाल तोमर का। इंद्रप्रस्थ था और है, यह सत्य है। पद्मविभूूषण पुरातत्वशास्त्री प्रो. बृजबासी लाल ने इस पर काफी शोध किया है, पुस्तक भी लिखी है। लेकिन इंद्रप्रस्थ के आंचल में ढिल्लिकापुरी बसी, फली-फूली और आज तक चली आ रही है। दिल्ली के रूप में इसे कितने लोग जानते हैं? भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के ब्रिटिशकालीन अधिकारियों जैसे-लार्ड कनिंघम से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत में डॉ. बुद्ध रश्मि मणि तक अनेक विद् इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने ढिल्लिकापुरी के अनेक प्रस्तर अभिलेख और संस्कृत के उद्धरण उत्खनित कर खोज निकाले, जिनसे सिद्ध होता है कि महाराजा अनंगपाल तोमर द्वितीय ने महरौली के पास विष्णु स्तंभ की स्थापना कर जो नगरी बसाई वह स्वर्ग जैसी मनोहर ढिल्लिकापुरी थी।
वर्तमान राष्ट्रपति भवन जब मूल वायसराय पैलेस के रूप में बन रहा था तो रायसीना के पास सरबन गांव में जो प्रस्तर अभिलेख मिले, उनमें ढिल्लिकापुरी का मनोहारी वर्णन है। ये प्रस्तर खंड पुराना किला के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित हैं। इनमें से एक पर लिखा है- (जो विक्रम संवत् 1384 की तिथि बताता है)
देशास्ति हरियाणाख्य: पृथिव्यां स्वर्गसन्निभ:।
ढिल्लिंकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता।
अर्थात् इस धरती पर हरियाणा नाम का प्रदेश है, जो स्वर्ग के सदृश है, तोमरों द्वारा निर्मित ढिल्लिका नाम का नगर है।
वही ढिल्लिका बाद में दिल्ली नाम से जानी गई जो अंग्रेजों के समय अलग अंग्रेजी वर्तनी के साथ देहली कही गई। अनंगपाल तोमर का बड़ा पराक्रमी व शौर्यवान इतिहास है। उन्होंने महरौली के पास 27 विराट सनातनी, जैन मंदिर बनवाए थे। महाराजा अनंगपाल द्वितीय के द्वारा जैन भक्ति का प्रकटीकरण भी प्रचुर मात्रा में हुआ। कुतुब मीनार तथा कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद इन्हीं मंदिरों को तोड़कर उन मूर्तियों को दीवारों में लगाकर बनाई गई। आज भी वहां गणपति की अपमानजनक ढंग से लगाई गई मूर्तियां, महावीर तथा जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां, दशावतार, नवग्रह आदि के शिल्प दीवारों तथा छतों पर स्पष्ट रूप से लगे दिखते हें। कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनंगपाल के 300 साल बाद उनके द्वारा बनाए मंदिरों का ही ध्वंस कर कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनवाई थी।
अनंगपाल केवल अपने विराट और सुंदर महलों और मंदिरों के लिए ही नहीं जाने गए, बल्कि वे लौह स्तंभ जो वस्तुत: विष्णु ध्वज स्तंभ है, 1052 ई. में उदयगिरि से लाए। यह बात उस पर अंकित लेख से ही स्पष्ट है। कनिंघम ने उस लेख को सम् दिहालि 1109 अनंगपाल वहि पढ़ा था और अर्थ किया था संवत् 110 अर्थात 1052 र्इं. में अनंगपाल ने दिल्ली बसाई।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ओम जी उपाध्याय का कहना है कि अनंगपाल द्वितीय के समय श्रीधर ने पार्श्वनाथ चरित ग्रंथ लिखा, जिसमें अनंगपाल द्वारा हम्मीर को पराजित किए जाने से संबंधित पंक्तियां लिखी हुई हैं, जिनका अर्थ विद्वानों ने अलग-अलग प्रकार से किया है। अपभ्रंश के मान्य विद्वान, विश्व भारती शांति निकेतन के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. राम सिंह तोमर ने इसका अनुवाद इस तरह किया है- जहां प्रसिद्ध राजा अनंगपाल की श्रेष्ठ तलवार ने रिपुकपाल को तोड़ा, बढ़े हुए हम्मीर वीर का दलन किया, बुद्धिजन वृंद से चीर प्राप्त किया। बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं में एक स्थान पर उभिलो चीरा का वर्णन मिलता है, जिसका अभिप्राय है- यशोगान किया या ध्वजा फहराई।
स्पष्ट है कि अनंगपाल द्वितीय ने तुर्कों को पराजित किया था तथा यह तुर्क इब्राहिम ही था। दिल्ली के संस्थापक के रूप में अनंगपाल का स्मरण दिल्ली के मूल वास्तविक परिचय का स्मरण है। इस संबंध में सरकार और समाज मिलकर कुछ बड़ा अभियान छेड़े, दिल्ली के स्वदेशी गौरव की पुन: स्थापना हो, इसका अब समय आ गया है।
(लेखक पूर्व सांसद तथा संस्कृति लेखक हैं)
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