रम्माण उत्सव : यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में है शामिल

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उत्तराखंड ब्यूरो

“रम्माण” चमोली जिले के सलूड़ गांव में प्रतिवर्ष अप्रैल में आयोजित होने वाला उत्सव है। इस गांव के अलावा डुंग्री, बरोशी, सेलंग गांवों में भी रम्माण का आयोजन किया जाता है। इसमें सलूड़ गांव का रम्माण ज्यादा लोकप्रिय है। इसका आयोजन सलूड़-डुंग्रा की संयुक्त पंचायत करती है। रम्माण मेला कभी 11 दिन तो कभी 13 दिन तक भी मनाया जाता है।

रम्माण उत्सव की तस्वीर

यह विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों की एक शृंखला है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, मेला आदि विविध रंगी आयोजन होते हैं। इसमें परम्परागत पूजा-अनुष्ठान तथा मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। यह भूम्याल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी होता है एवं परिवारों और ग्राम-क्षेत्र के देवताओं से भेंट करने का मौका भी होता है। रम्माण मेले का समापन पारंपरिक ढंग से सम्पन्न हो गया है। इस बार हजारों की संख्या में लोग इसे देखने पहुंचे। रम्माण मेले का आयोजन बुधवार को विश्व प्रसिद्ध सलूड़ डुंग्रा गांव में हुआ। जिसमें भूमि क्षेत्रपाल की पूजा अर्चना और 18 पत्तर का नृत्य और 18 तालों पर राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान का नृत्य होता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन यूनेस्को द्वारा साल 2009 में इस रम्माण को विश्व की सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा दिया गया था। 7 जोड़े पारंपरिक ढोल-दमाऊं की थाप पर मोर-मोरनी नृत्य, बण्या-बाणियांण, ख्यालरी, माल नृत्य सबको रोमांचित करने वाला होता है और कुरजोगी सबका मनोरंजन करता है। अंत मे भूमि क्षेत्रपाल देवता अवतरित होकर 1 साल तक के लिए अपने मूल स्थान पर विराजित हो गए। विकासखंड जोशीमठ में पैनखंडा पट्टी के सलूड़, डुंग्रा तथा सेलंग आदि गावों में प्रतिवर्ष अप्रैल (बैशाख ) के महीने में आयोजित किया जाता है। रम्माण, सलूड़ गांव की 500 वर्ष से भी ज्यादा पुरानी परम्परा है।

रम्माण उत्सव की तस्वीर

मान्यता है कि जब मध्यकाल में सनातन धर्म का प्रभाव कम हो रहा था। तब आदिगुरु शंकराचार्य जी ने सनातन धर्म में नई जान फूकने के लिए पूरे देश में चार मठों की स्थापना की। मंदिरों की स्थापना की, तीर्थों की स्थापना की। जोशीमठ के आस पास, शंकराचार्य के आदेश पर उनके कुछ शिष्यों ने हिन्दू जागरण के लिए गांव-गांव में जाकर पौराणिक मुखौटों से नृत्य करके लोगों में जान चेतना जगाने का प्रयास किया था। जो धीरे-धीरे इन क्षेत्रों में इस समाज का अभिन्न अंग बन गया। “रामायण “से जुड़े प्रसंगों के कारण इसे “रम्माण” उत्सव कहते हैं। रामायण को स्थानीय गढ़वाली भाषा मे रम्माण उच्चारण से भी बोला जाता है।

राम से जुड़े प्रसंगों के कारण इसे लोक शैली में प्रस्तुतिकरण, लोकनाट्य, स्वांग, देवयात्रा, परमपरागत पूजा, अनुष्ठान, भूमियाल देवता की वार्षिक पूजा, गांव के देवताओं की वार्षिक भेट आदि आयोजन इस उत्सव में होते हैं। इसमें विभिन्न चरित्र और उनके लकड़ी के मुखोटों को पत्तर कहते हैं। पत्तर शहतूत (केमू ) की लकड़ी पर कलात्मक तरीके से उत्कीर्ण किये होते हैं।

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