छत्तीसगढ़ स्थित नारायणपुर जिले के बेनूर गांव के रहने वाले गायता मस्सुराम कचलाम पांच वर्ष पहले चर्च के चंगुल में फंस गए थे। ईसाई मिशनरियों ने उन्हें चिकित्सा के नाम पर बहकाया और फिर झांसे में लेकर उनका कन्वर्जन करा दिया। गायता ईसाई बनते ही अपनी मूल धर्म—संस्कृति से दूर हो गए। यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। चोगेधारियों ने उनके पूरे परिवार का कन्वर्जन करा दिया। ऐसा होते ही पूरा परिवार चर्च में जाने लगा। यहां उन्हें बहकाया गया कि कोई धार्मिक काम नहीं करना है। न किसी संस्कृति—परंपरा से मतलब रखना है। जो चर्च कहे वही करना है। गायता ईसाई मिशनिरयों के फंदे में फंसते ही चले गए और चोगेधारी जैसा बोलते गए वह करते गए। इसका परिणाम यह हुआ कि गायता न केवल अपनी मूल संस्कृति से दूर हुए बल्कि अपने समाज से भी कट गए। लेकिन गायता को यह सब अंदर ही अंदर खाए जा रहा था। मन छटपटा रहा था कि जो किया वह ठीक नहीं किया है। हमें अपनी संस्कृति में वापस आना होगा। अपने मूल धर्म में आकर शांति मिलेगी। आखिर में गायता ने वही किया। पांच वर्ष बाद गायता ने ईसाइयत को छोड़कर पूरे विधि—विधान के साथ घर वापसी की। इस दौरान शीतला माता मंदिर में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें विभिन्न गांव के प्रमुखों ने परिवार के चरण धुलकर उनकी घर वापसी का स्वागत किया।
प्रार्थना के बहाने कराया कन्वर्जन
गायता मस्सुराम कचलाम बताते हैं कि कुछ वर्ष पहले मेरी पत्नी की तबियत खराब हो गई थी। इस बात की भनक लगते ही एक पास्टर मेरे पास आया और उसने प्रार्थना द्वारा ठीक करने की बात कही। यहीं से हमारा उसके साथ संपर्क बढ़ता गया। और फिर उसके ही बहकावे में आकर हमारा परिवार ईसाई मत में कन्वर्ट हो गया। लेकिन जब से मैंने ईसाइयत स्वीकार की तब से अपने समाज से दूर हो गया। सब तरह से हम कटने लगे। हमने आस—पड़ोस में होने वाले कार्यक्रमों में जाना बंद कर दिया। पूजा पाठ बंद कर दिया। कुला मिलाकर अपनी मूल संस्कृति से दूर होता चला गया। लेकिन यह सब मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मन अंदर ही अंदर कचोटता था अपनी मूल संस्कृति में जाने को। अंतत: मैंने निर्णय लिया कि मुझे अपने परिवार के साथ मूल धर्म में ही जाना है। समाज के लोगों ने भी मुझे अपनी मूल वनवासी संस्कृति के बारे में समझाया और जुड़कर रहने को कहा। यह सब मुझे समझ आया और मैंने घर वापसी की।
वनवासी समाज कर रहा है डी लिस्टिंग की मांग
गायता मस्सुराम कचलाम अकेले व्यक्ति नहीं हैं, जो चर्च के झांसे में आए हैं। छत्तीसगढ़ के लाखों लोग चोगेधारियों के चंगुल में आकर अपनी मूल संस्कृति से दूर हो चुके हैं। लेकिन बावजूद कन्वर्ट होने वाले लोग वनवासी समाज के नाम पर मिलने वाली सुविधाएं ले रहे हैं। अब इन लोगों के खिलाफ ही वनवासी समाज ने आवाज बुलंद करना शुरू कर दिया है। इसी कड़ी में बीते दिनों नारायणपुर में जनजातीय सुरक्षा मंच के बैनर तले डी लिस्टिंग की मांग को लेकर हजारों वनवासियों ने एक विशाल रैली निकाली और सरकार से मांग की थी कि जो लोग चर्च के चंगुल में फंसकर ईसाई बन गए हैं, उनकी पहचान हो और उन्हें सूचीबद्ध करके, वनवासी समाज के नाम पर जो सुविधाएं मिलती हैं, वह बंद की जाएं। इस दौरान वनवासी समाज के प्रतिनिधियों की एक ही मांग थी कि जो लोग ईसाई बन गए हैं, उनकी आस्था वनवासी संस्कृति में न होकर कहीं और हो गई है। वह अपने पूर्वजों और परंपराओं का अपमान करते हैं। ऐसे में वह फिर वनवासी समाज के कैसे हो सकते हैं ?
कार्यक्रम में उपस्थित भुरिया समाज के अध्यक्ष रूपसाय सलाम ने कहा कि वर्तमान परिस्थिति में वनवासी समाज को संरक्षित करने के लिए हमें अपने पूर्वजों की परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने का प्रयास करना चाहिए। जो वनवासी परंपरा—संस्कृति को नहीं मानता, उसे डी लिस्टिंग द्वारा पहचानकर, वनवासी होने के कारण जो विशेष सुविधाएं दी जाती हैं, उसे वापस लेने का काम किया जाना चाहिए। हम इस आन्दोलन को गांव—गांव तक ले जाएंगे। जनजातीय सुरक्षा मंच के प्रांत संयोजक भोजराज नाग ने कहा कि हमारे द्वारा 2006 से विभिन्न मंचों से समाज जागरण के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इसका परिणाम है कि आज गांव-गांव इस समस्या को समझ रहे हैं और डी लिस्टिंग के पक्ष में आवाज बुलंद कर रहे हैं। इसी तरह जन सुरक्षा मंच, झारखंड के सदस्य मेघा उरांव का कहना था कि आज डी लिस्टिंग की बहुत आवश्यकता है। क्योंकि जो लोग आस्था—परम्परा को छोड़ चुके हैं, तो उन्हें फिर किस बात का लाभ मिलना चाहिए। ऐसे लोग वनवासी समाज के अधिकार छीनने का काम कर रहे हैं। अगर ऐसे लोगों की पहचान हो जाएगी तो हमारे हक पर कोई डाका नहीं डाल सकेगा।
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