जम्मू-कश्मीर को लेकर अराजक तत्वों द्वारा विभिन्न मोर्चों पर हर समय प्रोपेगेंडा चलाया जाता है। यह प्रोपेगेंडा कभी भारत के खिलाफ होता है तो कभी सेना के खिलाफ। कुल मिलाकर एक ऐसा नैरेटिव गढ़ा जाता है, जिसका उदृदेश्य सिर्फ और सिर्फ भारत का विरोध होता है। पर जब ऐसे तत्वों पर कार्रवाई होती है, तो माहौल ऐसा बनाया जाता है कि घाटी में बोलने की आजादी प्रतिबंधित है, सेना—पुलिस कश्मीरियों को प्रताड़ित कर रही है, उनको गलत मामलों में फंसाया जा रहा है, जबकि इन सभी की असल हकीकत और ही होती है।
ऐसे ही एक मामले पर जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट की कश्मीर बेंच ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। इस टिप्पणी में कहा कि भारतीय संविधान के तहत देश के हर नागरिक को बोलने व अपने विचार रखने की आजादी है, लेकिन इसके लिए एक लक्ष्मण रेखा है, जिसे पार करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। कश्मीर भारत का हिस्सा है, इसे भारतीय सेना के कब्जे में बताना अपराध है। यह टिप्पणी करते हुए हाई कोर्ट ने वकील पर दर्ज एफआइआर को रद करने संबंधी दायर याचिका को खारिज कर दिया है।
बता दें कि दक्षिण कश्मीर के लारू का रहने वाला पेशे से वकील मुजमिल भट्ट ने 2018 में कुलगाम मुठभेड़ के दौरान एक विस्फोट में छह लोगों की मौत पर आपत्तिजनक पोस्ट की थी। इस पोस्ट में उसने लिखा था कि अपने जीवन में पहली बार मैं टूटा हुआ और कमजोर महसूस कर रहा था और मैं स्वीकार कर सकता था कि हम गुलाम हैं और गुलामों का अपना कोई जीवन नहीं है। पुलिस ने भट्ट की इन टिप्पणियों का संज्ञान लेते हुए उसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की थी। इस प्राथमिकी को रद कराने के लिए भट्ट ने याचिका दायर की थी। उसका कहना था कि देश के संविधान में उसे अपने विचार रखने का अधिकार प्राप्त है। लिहाजा उसने कोई अपराध नहीं किया और उसके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को खारिज किया जाए। लेकिन मामले की सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने पाया कि आरोपित निश्चित रूप से इस दावे की वकालत और समर्थन कर रहा है कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है और यह भारतीय सेना के कब्जे में है और लोगों को गुलामों का दर्जा दिया जा रहा है। आरोपित देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर सवाल उठा रहा है, जिसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। हाई कोर्ट ने कहा कि आरोपित के खिलाफ दर्ज एफआइआर सही है और उसमें किसी तरह के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं।
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