चीन आमने-सामने के युद्ध की बजाय पीछे से वार करने में यकीन करता है। उसने इसी के तहत अपनी युद्ध रणनीति में साइबर हमले या हैकिंग को महत्वपूर्ण स्थान दिया है और हैकिंग आर्मी भी बना ली है। जरूरत है चीन पर प्रत्याक्रमण की तैयारी की जिसमें मंडारिन भाषा की विशेषज्ञता हासिल करना अत्यंत महत्वपूर्ण है
युद्ध हो या शांति, चीन अनरेस्ट्रिक्टेड वारफेयर यानी हर मोर्चे पर हर तरह से शत्रु पर हमले करते रहने की अपनी रणनीति पर अमल जारी रखेगा, इसमें रंच मात्र भी संशय नहीं होना चाहिए। इस क्रम में ताजा मामला लद्दाख क्षेत्र में स्थित पावर ग्रिड पर साइबर हमले करके इस संवेदनशील क्षेत्र में बिजली आपूर्ति को बाधित करने की उसकी कोशिश है। यहां पर दो साल से भारतीय और चीनी फौजें आमने-सामने डटी हैं। भारतीय अधिकारियों ने रहस्योद्घाटन किया है कि इस वर्ष जनवरी और फरवरी के दौरान चीन के राज्य पोषित साइबर हैकरों ने पावर ग्रिड को निशाना बनाने के प्रयास किए लेकिन हालिया दिनों में जिस तरह से साइबर सुरक्षा को मजबूत किया गया है, उसकी वजह से ये प्रयास नाकाम रहे।
चीनी साइबर हमले
लेकिन चीनी साइबर हमलों का क्रम थमने वाला नहीं है। और कभी-कभी वे सफल भी हो जाते हैं। याद करें कि 12 अक्तूबर 2020 को मुंबई में बिजली आपूर्ति ठप हो जाने से स्टाक एक्सचेंज बंद हो गया, हजारों यात्री फंस गए और अस्पतालों में भर्ती कोविड मरीजों को बचाने के लिए तुरंत वैकल्पिक इंतजाम करने पड़े। मार्च 2021 में भारतीय अधिकारियों ने कहा कि उन्हें बिजली आपूर्ति ठप होने के कारणों का पता चल गया है। इसकी वजह विदेशी साइबर हमलावर थे जो काफी समय से मुंबई के बिजली ग्रिड को निशाना बनाने का प्रयास कर रहे थे और आखिर में सफल हो गए। अफसरों ने किसी देश का नाम नहीं लिया लेकिन इसकी आवश्यकता भी नहीं थी। सीमा पर जारी तनाव के बीच चीन यह संकेत देना चाहता था कि उसके पास भारत को दबाव में लाने के और तरीके भी हैं।
यह तरीका है अनरेस्ट्रिक्टेड वार यानी जिसमें दुश्मन को परेशान करने, दबाव में लाने और अंदर से खोखला करने के लिए सभी गैरपरंपरागत तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है। ‘अनरेस्ट्रिक्टेड वार : चाइनाज मास्टर प्लान टू डिस्ट्रॉय अमेरिका’ चीन की जन मुक्ति सेना (पीएलए) के दो अफसरों द्वारा लिखित एक किताब है जिसमें इन अफसरों ने सुझाव दिया कि अमेरिकी सेना के साथ सीधे संघर्ष में उतरे बिना उसे घुटनों के बल लाने के लिए गैरपरंपरागत तरीके अपनाए जाएं। उन्होंने अमेरिका के वित्तीय तंत्र को निशाना बनाने, पॉवर ग्रिड जैसी उसकी बुनियादी संरचनाओं को निशाना बनाने, दुष्प्रचार युद्ध और साइबर हमले जैसे तरीके अपनाने का सुझाव दिया। निश्चित रूप से ये सुझाव अब चीनी युद्धनीति का अभिन्न अंग बन चुके हैं। सिर्फ अमेरिका ही नहीं बल्कि उसके सहयोगी यूरोपीय देशों और खास तौर से भारत के खिलाफ उसका अबाध युद्ध जारी है।
चीनी युद्ध रणनीति में हैकिंग अहम
अप्रैल, 1997 में चीन के केंद्रीय सैन्य आयोग (सीएमसी) ने अमेरिका और यूरोप के कंप्यूटर तंत्रों में घुसपैठ कर उन्हें हैक करने के तरीके सुझाने के लिए एक 100 सदस्यीय इलीट कार्प्स ग्रुप की स्थापना की और तब से साइबर हमलों और कंप्यूटर तंत्रों को हैक करने में चीन की महारत दिन-दूनी रात-चौगुनी रफ्तार से बढ़ी है। इसके बाद 2003 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति और केंद्रीय सैन्य आयोग ने ‘थ्री वारफेयर’ रणनीति को मंजूरी दी जिसमें मनोवैज्ञानिक युद्ध, मीडिया के इस्तेमाल और कानूनी तरीकों (लॉफेयर) के इस्तेमाल को युद्धक रणनीतियों के रूप में प्रयोग को मंजूरी दी गई।
साइबर युद्ध इसका सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। चीनी विशेष रूप से इस पर भरोसा करते हैं क्योंकि इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू है डिनायबिलिटी यानी नकार। साइबर हमलों के सुबूत जुटा पाना बेहद मुश्किल काम है और कई बार तो इन हमलों का पता महीनों बाद चलता है। लिहाजा यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि इन हमलों का मूल स्रोत कहां है यानी ये किस जगह, किस कंप्यूटर से शुरू हुए और चीनी इन हमलों के स्रोत को छिपाने के मामले में विशेषज्ञता हासिल कर चुके हैं। यही वजह है कि वे बेधड़क युद्धनीति के औजार के तौर पर इसका इस्तेमाल कर रहे हैं और तमाम लोकतांत्रिक देशों को यह भय है कि चीन कभी भी उनके पावर ग्रिड, उड्डयन, बैंकिंग जैसे तंत्रों को ठप कर सकता है। चीन ने इन हमलों के लिए आम नागरिकों की हैकिंग फौज बना रखी है औ वह बड़े आराम से यह कह सकता है कि इसमें चीनी सरकार का कोई हाथ नहीं है।
‘अनरेस्ट्रिक्टेड वार : चाइनाज मास्टर प्लान टू डिस्ट्रॉय अमेरिका’ चीन की जन मुक्ति सेना (पीएलए) के दो अफसरों द्वारा लिखित किताब है जिसमें इन अफसरों ने सुझाव दिया कि अमेरिकी सेना के साथ सीधे संघर्ष में उतरे बिना उसको घुटनों के बल लाने के लिए गैर परंपरागत तरीके अपनाए जाएं। उन्होंने अमेरिका के वित्तीय तंत्र को निशाना बनाने, पॉवर ग्रिड जैसी उसकी बुनियादी संरचनाओं को निशाना बनाने, दुष्प्रचार युद्ध और साइबर हमलों के तरीके अपनाने का सुझाव दिया है
रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव जयदेव रानाडे के अनुसार छल, छिपाव, चतुराई और सीधे युद्ध से बचना चीनी युद्ध सिद्धांतों के प्रमुख अंग हैं। जाहिर है कि इस युद्धनीति के लिए साइबर तरीके सबसे अनुकूल हैं। चीन ने साइबर सुरक्षा और तकनीक से जुड़ी फर्मों को पीएलए की टुकड़ियों के साथ एकीकृत करके एक साइबर बटालियन बना ली है। रानाडे कहते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व की सूचना के अनुसार चेंगदू में 50,000 चीनी साइबर विश्लेषक हैं जिनका एकमात्र कार्य है, भारत की साइबर सुरक्षा की टोह लेना और उसके साइबर और कंप्यूटर तंत्र में घुसपैठ के उपाय खोजना।
चीन पर प्रत्याक्रमण की जरूरत
निश्चित रूप से स्थिति खतरनाक है। चीन की साइबर युद्ध की जो तैयारियां हैं, वे किसी भी देश को घुटनों के बल ला सकती हैं। उसके बिजली, परिवहन, बैंकिंग तंत्र ठप हो सकते हैं। निश्चित रूप से सभी देश बचाव की तैयारियों में लगे हुए हैं लेकिन चीन के पास बढ़त है क्योंकि वह इस मैदान में उतरने वाले पहले खिलाड़ियों में से है। वह सिर्फ आपके वित्तीय, बैंकिंग और परिवहन तंत्र को ही निशाना नहीं बनाता बल्कि तमाम बड़ी तकनीकी कंपनियों के कंप्यूटर तंत्र में घुसपैठ कर संवेदनशील तकनीकी जानकारियां भी चुराता है।
बौद्धिक संपदा की इस चोरी से चीन ने उन तकनीकों में भी महारत हासिल कर ली है जिनमें चंद साल पहले वह शून्य था। भारत में कोरोना की वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों सहित सभी फार्मा कंपनियों पर चीनी साइबर हमले सतत जारी हैं। कुछ खबरों के अनुसार सीमा पर तनाव जब चरम पर था तो उस दौरान सिर्फ पांच दिन के भीतर भारत के आईटी व बैंकिंग तंत्र पर चीनी साइबर हमले 200% तक बढ़ गए। चीनी हैकरों ने भारतीय कंप्यूटर तंत्रों में मालवेयर और वायरस भेजने के लिए 40,000 से ज्यादा साइबर हमले किए। इसके अलावा बिजली, परिवहन क्षेत्र को भी निशाने पर लेने और उसमें घुसपैठ के प्रयास किए गए। भारत का ग्रिड भी निशाना बन चुका है।
निश्चित रूप से चीनी साइबर हमलों को हतोत्साहित करने के लिए उस पर करारा प्रत्याक्रमण करने की आवश्यकता है। इसके लिए हमें अपनी साइबर युद्ध की क्षमता में चीन को बराबर ही नहीं, बल्कि उसे पीछे छोड़ना होगा। भारतीय मेधा के लिए यह मुश्किल कार्य नहीं हैं लेकिन कुछ अड़चनें हैं। अड़चन यह है कि चीनी जानकारियां मंडारिन भाषा में हैं और भारत में मंडारिन भाषा की पढ़ाई में विशेज्ञता रखने वाले दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के चीनी भाषा विभाग में वाम चरमपंथियों का वर्चस्व है। इस कारण मंडारिन जानने वाले अपने सैन्य अफसरों से ही इनका अनुवाद कराया जा सकता है। इसमें समय ज्यादा लगेगा और तब तक जानकारी के बासी होने का खतरा है। निश्चित रूप से चीन की बढ़त भाषा के स्तर पर भी है।
(लेखक साक्षी श्री द्वारा स्थापित साइंस डिवाइन फाउंडेशन से जुड़े हैं और रक्षा एवं विदेशी मामलों के अध्येता हैं)
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