कश्मीर फाइल्स पर कुछ लोगों को आपत्तियां हैं। पहली बात तो आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि पहली बार किसी फिल्म में कश्मीरी पंडितों की स्थिति को जीनोसाइड यानी जातिविध्वंस कहकर अभिव्यक्त किया गया। इस जातिविध्वंस के विरुद्ध न सरकार और न ही हिंदू समाज ने कोई प्रतिरोध दिखाया। इस बात को भी फिल्म में रेखांकित किया गया है। इससे अधिक हिम्मत की अपेक्षा आप किसी भारतीय फिल्म निर्देशक से कैसे कर सकते हैं! जितनी हिम्मत विवेक अग्निहोत्री ने की है, उसके लिए उन्हें हाथोंहाथ न लिया जाए तो कम से कम प्रणाम तो किया ही जा सकता है।
विवेक अग्निहोत्री कोई स्पीलबर्ग नहीं हैं। न ही उनके पास स्पीलबर्ग जैसी निर्देशकीय दृष्टि अर्थात् डायरेक्टर्स विजन है। लेकिन सत्य को लेकर उन्होंने जो प्रतिबद्धता दिखाई है, उसके लिए वे स्पीलबर्ग नहीं तो ‘विवेक अग्निहोत्री’ अवश्य हो गए हैं। त्रासदियों के सत्य को फिल्म के माध्यम से अभिव्यक्त करने के प्रयास की जैसी भी शुरुआत उन्होंने की है, यह भारतीय सिनेमा में एक नए युग का सूत्रपात है। लोग जो भी कहें।
अपनी त्रासदी के बोध को वह शून्य से विस्तार की ओर ले जाता है। वह हर हिंदू को बताता है कि अपने जीनोसाइड अर्थात जातिविध्वंस के बोध को शून्य से उठाकर पूर्णता की ओर ले जाओ। इसी से टुकड़े-टुकड़े गैंग के टुकड़े हो सकते हैं।
फिल्म में जो मुख्य पात्र कश्मीरी पंडित लड़का है, उसके चित्रण को लेकर कुछ लोगों को एतराज है। उसके मां-बाप जातिविध्वंस के शिकार हो चुके हैं और वह जेएनयू के टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य बन चुका है। उसे अपने सत्य का ज्ञान नहीं है। यह तो त्रासदी की पराकाष्ठा है। जातिविध्वंस के शिकार को ही जेएनयू इकोसिस्टम अपनी त्रासदी के बोध से वंचित कर देता है।
यह इकोसिस्टम कितना बड़ा राक्षस है, यहां यह सत्य स्थापित होता है। पर यह लड़का धीरे-धीरे अपने जातिविध्वंस के बोध का विस्तार करता है। ‘पॉजिटिव कैरेक्टर आर्क’ है। अपनी त्रासदी के बोध को वह शून्य से विस्तार की ओर ले जाता है। वह हर हिंदू को बताता है कि अपने जीनोसाइड अर्थात जातिविध्वंस के बोध को शून्य से उठाकर पूर्णता की ओर ले जाओ। इसी से टुकड़े-टुकड़े गैंग के टुकड़े हो सकते हैं।
अब इतना कुछ यह फिल्म कर रही है। पता नहीं, लोगों को सुई क्यों चुभ रही है!
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