मारवाड़ का इलाका यानी भारत और राजस्थान, दोनों का पश्चिमी छोर। थार मरुस्थल वाले इन सरहदी शहरों जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर का मिजाज एकदम देसी है और यही खूबी देसी-विदेशी सैलानियों को यहां खींच लाती है। ये इलाके बेहद तपिश के लिए कुख्यात हैं। सूरज पूरे साल सबसे ज्यादा आग यहीं उगलता है। रंग- बिरंगी संस्कृति से भरी-पूरी यहां की बस्तियों में कुछ रंग अगर फीके हैं, कुछ तड़प है तो सिर्फ पानी की कमी के चलते। इतिहास की जिन गाथाओं को जानने के लिए हम यहां के किलों, स्मारकों, मन्दिरों, संग्रहालयों में जाते हैं, दाल, बाटी, चूरमे का लुत्फ लेते हुए लोक गायकी को मन में बसाए हुए लौट भी आते हैं, मगर यहां सुदूर बसे गांवों की प्यास से वाकिफ नहीं हो पाते।
अच्छी सड़कों की वजह से गांवों तक पहुंचना आसान तो हो गया है, मगर पानी जैसे संसाधनों के बगैर इस पहुंच को न तो विकास में बदला जा सकता है न ही ग्रामीण-पर्यटन को बढ़ावा मिल सकता है। गांवों की पंचायतों में बनी जल-समितियां क्या कर पा रही हैं और कितनी असरदार हैं, यह अभी मुख्यधारा की बहस का हिस्सा नहीं है। यही वजह है कि पानी की बेहद फिक्र के बावजूद गांवों की गुहार अनसुनी ही है।
गांव की जद्दोजहद
जोधपुर से करीब 70 किलोमीटर अन्दर जाते हुए बावड़ी पंचायत समिति के मोड़ से दिखाई दिया सांझ से गले मिलता हुआ गांव ‘नादिया कल्लां’। सड़क के दोनों ओर लगे खड़े छांह का इन्तजाम किए हुए और बसावट शुरू होते ही एकदम साफ-सुथरे इस गांव की युवा टीम सरपंच जसवंत सिंह भाटी के घर की बैठक में डेरा डाले हुए मिली। बात छिड़ी गांव के विकास और जल के काम की तो साल 2008 में महाराणा प्रताप यूथ क्लब बनाकर साथ आए युवाओं की सोच और सक्रियता का आभास हुआ। जोधपुर में व्यवसाय करने वाले प्रकाश सोनी और गांव में ही अपना काम कर रहे बाबूलाल सिंघवी पूरे गांव के दो दिनी दौरे में साथ रहे। वे बताते हैं कि महाराणा प्रताप युवा मण्डल के सक्रिय साथियों में गणपत राम मेघवाल, तुलछ पूरी गोस्वामी के अलावा भरत सिंह, शेर सिंह, कान सिंह, रातूराम, श्याम सेन, दयाल सिंह शामिल हैं।
इस मंडली के सक्रिय सदस्य जसवंत तो अब सरपंच हैं ही, जिनके साथ मिलकर पूरी टीम ने पिछले चार साल में जल-स्रोतों के संरक्षण, वृक्षारोपण और वाटिकाएं बनाने के साथ ही गोपाल गौशाला में पशुओं के लिए पानी के काम हाथ में लिये हैं। गांव में बड़ और पीपल के पेड़ लगाने और ताल-नाड़ियों की खुदाई के लिए जंगली बबूलों की कटाई सबसे भारी काम है। प्रदेश भर में ये बबूल तालाबों की खुदाई, खेती, गोचर विकास जैसे हर काम में अड़चन बने हैं। बबूल की झाड़ियों को काटने, मिट्टी की खुदाई और समुदाय के हर काम में गांव के बुजुर्ग, युवा और महिलाएं सब साथ जुटते हैं।
रेगिस्तान में हरियाली
जात-पात से परे इस समरस और आस्थावान गांव की ऊर्जा से भरी टीम बताती है कि जेठ की भीषण गर्मी में पौधारोपण का काम शुरू किया तो दिन चढ़ते-चढ़ते सब पसीने में तर हो गए और काम पूरा होते-होते अचानक बारिश होने लगी। लगा, जैसे कुदरत ने अपना आशीर्वाद हम पर बरसा दिया। यूं चार साल में पूरे गांव में करीब 6 हजार पौधे रोपकर एक-एक की देखभाल की गई है।
महाराणा प्रताप वाटिका, भीमराव आम्बेडकर वाटिका, नारायण वाटिका सहित अब तक 6 वाटिकाओं यानी नर्सरी तैयार करने का काम कतई आसान नहीं है, क्योंकि पानी की किल्लत के बीच पौधों को जिन्दा रखना मुुश्किल काम है। इसीलिए वाटिकाओं में भी भामाशाहों यानी दानदाताओं की मदद लेकर टांके बनाए गए हैं ताकि पौधों को आसानी से पानी पिलाया जा सके। स्थानीय जड़ी-बूटियों और औषधीय गुण वाले पौधों के लिए खासतौर से धन्वतरी वाटिका बनाई गई है, जिसके लिए जोधपुर के आयुर्वेद विश्वविद्यालय ने मार्गदर्शन दिया।
शुष्क इलाकों में वनस्पतियों और पारिस्थितिकी पर शोध के लिए बने ‘काजरी’ जैसे कई प्रतिष्ठित संस्थानों की टीम ने यहां दौरा कर पर्यावरण और आजीविका के सुझाव दिए हैं, लेकिन असल काम खेती, पानी और मिट्टी की जुगलबंदी का है। यहां बाजरा, मोठ, ज्वार, जीरा, प्याज सहित हर मौसम का अनाज और हर मौसम की सब्जियां होती हैं। लेकिन पानी अब भी 600-700 फुट नीचे है, इसलिए न खेती करना आसान है न आजीविका चलाना।
75 घेरे, दर्जन भर तालाब
फिलहाल जो बात सबकी समझ में बैठी है, वह यह कि बड़े बदलाव और पानी के ठौर के लिए पहले पेड़ों की घनी आबादी चाहिए। इसके लिए पौधों और ट्री गार्ड का इन्तजाम कुछ संस्थाएं कर देती हैं, लेकिन युवाओं ने स्थानीय तौर पर जाली से बने ट्री-गार्ड बनाकर खुद किफायत करना सीख लिया है। पौधों को सुरक्षा देते ईंटों के घेरों पर हरा, सफेद, केसरिया रंग पोतकर ‘आजादी का अमृत उत्सव’ मनाने की तैयारी में गांव अभी से जुट गया है। गांव वालों ने पूरे 75 घेरे तैयार करने के संकल्प के साथ ही चार नए तालाब और खोद दिए हैं। करीब 7-8 तालाबों को गहरा करने का काम पूरा हुआ है। गांव वाले खुद ही जेसीबी से खुदाई और डीजल के लिए करीब 5 लाख रुपये का सहयोग दे चुके हैं।
हजारों ट्रॉली मिट्टी बाहर निकाली गई। कुछ ट्रैक्टर मालिक तो निस्वार्थ ही करीब डेढ़ महीने तक इस काम में जुटे रहे। हाल ही में यहां के सबसे पुराने कल्याण सागर को गहरा किया गया है और इस तालाब की पाल पर वृक्षारोपण के लिए ईंटों के घेरे भी तैयार किए गए हैं। साथ ही, चार नाड़ियों का काम अभी जारी है। दुनिया भर में साल 2030 तक हासिल किए जाने वाले जिस टिकाऊ विकास लक्ष्य की बात बड़े मंचों पर की जा रही है, उनमें ‘नादिया कल्लां’ जैसे जमीनी काम और कुदरत के साथ तालमेल वाले जीवन की बात ही ज्यादा सुनाई देनी चाहिए। संसाधनों का पूरा दोहन कर विकास की दौड़ में आगे पहुंचे देश अब आर्थिक साम्राज्यवाद की होड़ में हैं। ऐसे में भारत के गांव ही हमारे ठौर और विकास की धुरी बनेंगे, इसमें कोई संशय नहीं।
जल संरक्षण की अद्भुत मिसाल
पूरा गांव जल और वृक्षों को लेकर बेहद सजग है। पहाड़, रेत, आस्था, परंपरा, सौहार्द सब इसके हिस्से हैं। गांव की महिलाओं के स्वयं सहायता समूह भी बन गए हैं और उनकी भागीदारी इन सब कामों में बढ़-चढ़कर है। युवा बुजुर्गों की पारंपरिक समझ का भी पूरा मान रखते हैं। कुछ साल पहले तक जंगली बबूल और सुनसान रास्तों से आना-जाना अखरता था। खुले में जंगली जानवरों का खतरा भी रहता था। अब पानी और वृक्षारोपण के काम से जैसे पूरे इलाके में सुकून है। दूसरी तरफ मनरेगा में शुरू हुए कुछ काम ऐसे हैं जैसे गड्ढों में बहता पैसा। गांव के एक हिस्से में मनरेगा में खोदी जा रही नाड़ी का काम सालों बाद भी पूरा नहीं हो पाया है। यह सरकारी अक्षमता का जीवंत उदाहरण है। वहीं, समुदाय की भागीदारी और निगरानी में हुए काम वास्तविक तो हैं ही, समयबद्ध और किफायती भी हैं।
बांध बनाने का काम भी जरूर आगे बढ़ जाएगा। यह काम आज के लिए नहीं, आने वाली पीढ़ियों की तकदीर बदलने वाला है, इसलिए युवा पीढ़ी किसी भी कीमत पर इन कामों से समझौता नहीं करती। उसे मालूम है कि गांव की खूबसूरती, खुशबू, स्वाद, स्वागत-सत्कार और प्रेम-प्यार की बोली के पीछे लोग खिंचे चले आएंगे, लेकिन सबसे कीमती संसाधन तो पानी ही है।
गांव में ऊंची पहाड़ी पर लोकदेवता गोसाई जी का मन्दिर है, जहां हर साल मेला लगता है। वहीं रास्ते में एक गुफा भी है, जिसे यहां गुजर-बसर कर रहे एक संन्यासी प्रेमसुख महाराज ने अपने हाथों से खोदा है। गुफा में जीवन बिताते हुए, पहाड़ों के बीच एक एनिकट बनाकर उन्होंने जल-संरक्षण की अद्भुत मिसाल पेश की है। यही हमारी सनातन परंपरा की संपदा है, जिसकी संभाल गांव के सरल मन के ही बूते की रह गई है। इस मन्दिर के पीछे की ओर पुराने समय का टांका भी बना हुआ है, जहां बरसात का पानी इकट्ठा होता है। उसी के पास मनरेगा के अंतर्गत नाड़ी की खुदाई का काम भी हुआ था। इस काम को ठीक सेपूरा करने के लिए सरपंच जसवंत ने लग कर गांववासियों की मदद से पूरे सौ दिन काम करवाया ताकि सरकारी मशीनरी के बूते हो रहे जल संरक्षण के काम में कोई कोताही न बरते। लेकिन बाकी के तमाम काम समुदाय और संस्थाओं की मदद से ही आगे बढ़ रहे हैं। समस्त महाजन संस्था, ग्राविस और सूर्या फाउण्डेशन जैसी संस्थाएं जरूरत के मुताबिक काम में भरपूर सहयोग कर रही हैं।
अपनी संस्कृति और इतिहास से करीबी पहचान रखने वाले कुछ युवा बताते हैं कि अरावली पर्वतमालाओं के आलिंगन में फैले इस इलाके में ही जोधपुर के मशहूर और बेहद कलात्मक किले मेहरानगढ़ की नींव रखी गई थी। लेकिन नींव बार-बार ढह जाती थी। इसीलिए यहां से मीलों दूर शहर के बीचोंबीच यह किला बनाया गया। उबड़-खाबड़ पत्थरों के बीच बसे गांव के इस मन्दिर से पूरे गांव का खूबसूरत नजारा दिखाते हुए सरपंच जसवंत और उनके साथी यह बात बेहिचक कहते हैं कि हर साल जब पानी बरसता है तो उसे व्यर्थ बहता देखकर दिल दुखता है।
कुदरत भरपूर देती है और अगर सारा पानी सहेज लिया जाए तो वह इतना है कि इस गांव की ही नहीं, आस-पास के 8-10 गांवों की प्यास बुझ जाए और जमीन भी पूरी तरह तर हो जाए। यहां की करीब 11 हजार बीघा जमीन खाली पड़ी है, जिसका इस्तेमाल पानी को बांधने के लिए किया जा सकता है। पहाड़ों से बहते पानी को बांधने के लिए पूरी योजना तैयार है, जमाबन्दी, नक्शा और ड्रोन की मदद से सरकारी नाप-जोख का काम भी कुछ हुआ है। फाइलें अटकी न रहें और बांध का काम जल्द शुरू हो जाए तो यहां नहरी पानी की जरूरत ही नहीं है।
‘राबोड़ी-कैर सांगरी’ की मनुहार
गांव में ठहर कर किसी युवा, महिला या बुजुर्ग से पूछेंगे तो हर जबान पर पानी की समस्या का ही जिक्र मिलेगा। जो पानी है वह भी खारा है। इसीलिए पीने के लिए तो हर घर को टैंकर मंगवाना पड़ता है। करीब 500-600 रुपये में आने वाले चार-पांच टैंकरों के बगैर किसी भी आम परिवार का गुजारा नहीं है। जीने की मूल सुविधाओं से जूझ रहे इस गांव के खुले इलाके में दूर-दूर तक सोलर प्लांट लगे हैं। गांववासियों को इस बात की शिकायत है कि पश्मि के गांवों में कम्पनियों को मुनाफा तो खूब नजर आता है, लेकिन उनके विकास और आजीविका से उनका कोई वास्ता नहीं है।
देश के जल-शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत मारवाड़ के ही हैं, इसीलिए गांव वालों की आस उनसे ज्यादा ही है। युवा टीम पूरे भरोसे के साथ कहती है कि उन तक बस बात पहुंचने की देर है, पीने के पानी का इन्तजाम भी होगा और बांध बनाने का काम भी जरूर आगे बढ़ जाएगा। यह काम आज के लिए नहीं, आने वाली पीढ़ियों की तकदीर बदलने वाला है, इसलिए युवा पीढ़ी किसी भी कीमत पर इन कामों से समझौता नहीं करती। उसे मालूम है कि गांव की खूबसूरती, खुशबू, स्वाद, स्वागत-सत्कार और प्रेम-प्यार की बोली के पीछे लोग खिंचे चले आएंगे, लेकिन सबसे कीमती संसाधन तो पानी ही है।
इस युवा टीम के साथी प्रकाश का यह यकीन वाकई बड़ा है कि जमीनी चुनौतियों के मुकाबले पानी, पेड़ों के संरक्षण और गोवंश संवर्धन के मौजूदा काम इतने बड़े हैं कि किसी दिन प्रधानमंत्री की जुबान पर हमारे गांव का जिक्र जरूर होगा। घूंघट की आड़ से मारवाड़ी में बतियाती और ‘राबोड़ी’ और ‘कैर-सांगरी’ की सब्जी परोसती महिलाएं याद दिलाना नहीं भूलतीं कि ‘थे म्हारी बातां ने बड़ा लोगां तक पहुंचाजे, पानी रो दुख दूर होवै।’ अब जिम्मा हमारा है कि भरपूर मेहमाननवाजी वाले गांव के पानीदार काम की बात तो दूर तक जाए ही, गांव की जरूरत यानी ‘बांध’ की सुनवाई भी जल्द हो।
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