यह सम्पूर्ण विश्व शक्तिमय है। नास्तिक व्यक्ति को भी अन्ततोगत्वा यह स्वीकार करना पड़ता है कि संसार में ऐसी कोई अदृश्य शक्ति अवश्य है, जिसके कारण यह ब्रह्मांड निश्चित नियमों से बंधकर अपने यात्राक्रम को आगे बढ़ा रहा है, भले ही वह व्यक्ति उस अदृश्य शक्ति को ईश्वर न मानकर प्रकृति का नाम दे। वह शक्ति ही इस विश्व को जन्म देती है, उसका पालन करती है और उसका विनाश भी करती है। इस कार्यसंचालन के लिए हमारे यहां तीन देवताओं की कल्पना की गई है। ब्रह्मा, सृष्टि को जन्म देते हैं, विष्णु उसका पालन करते हैं और रुद्र उसका संहार करते हैं। वैदिक साहत्यि में ‘शक्ति सृजति ब्रह्मांडम्’ कहकर जिसकी ओर इंगित किया गया है, वह देवी दुर्गा ही हैं। देवी भागवत (7-7) में उनके विराट स्वरूप का वर्णन किया गया है।
शक्ति के रूप में देवी की उपासना का स्पष्ट वर्णन हमें हरिवंश तथा मार्कण्डेय पुराण में पढ़ने को मिलता है। इस प्रकार इस देवी में सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति निहित है।
इत्थं यदा-यदा बाधा दानवोत्था भवष्यिति।
तदा तदावतीर्याहं करष्यिाम्यरिसंक्षयम् ।।
अर्थात जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी तब-तबमैं अवतार लेकर शत्रुओं का संहार करूंगी।
सभ्यता के प्रारंभिक युग में, विश्व में सर्वत्र मातृप्रधान परिवार थे। महिलाएं ही परिवार की मुखिया होती थीं और पुरुष उनके अधीनस्थ। ऐसी स्थिति में इस अदृश्य शक्ति की कल्पना स्त्री रूप में होना सहज स्वाभाविक था। मातृशक्ति के रूप में इस आदिदेवी की उपासना के प्रमाण हमें सिंधु सभ्यता के अवशेषों में भी मिले हैं। केवल भारत में ही नहीं, विश्व के अन्य अनेक देशों में भी हमें देवी के रूप में भी शक्तिपूजन देखने को मिलता है।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्यै नमस्तस्यै नमो नम:
या दैवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता
ऋग्वेद के देवीसूक्त, और सामवेद के रात्रिसूक्त में शक्ति स्वरूपा इस आद्यदेवी की प्रशंसा में अनेक मंत्र है। इनमें देवी के अनेक नामों का उल्लेख किया गया है। विंध्याचल देवी-धाम में तीन ही देवियों के मन्दिर हैं, जिन्हें शक्तिपीठ कहा जाता है। ये हैं महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती।
एक हिंसक शक्ति की प्रतीक हैं, दूसरी धनशक्ति की तथा तीसरी विवेक शक्ति की। श्री चण्डी नामक ग्रन्थ में तो देवी के सैकड़ों नामों की चर्चा की गई है। बौद्ध धर्म में अन्य देवियों के अतिरक्ति अभयादेवी की भी चर्चा है, जिनकी चरणवन्दना महात्मा बुद्ध ने कपिलवस्तु आने पर की थी। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह अभयादेवी और कोई नहीं, दुर्गा देवी ही थीं।
दुर्गा-पूजा की पद्धति का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख 11वीं शताब्दी में मिलता है, जब बंग नरेश हरिवर्मा देव के प्रधानमंत्री भवदेव भट्ट ने दुर्गापूजा की। मगर उन्होंने भी अपने किसी पूर्ववर्ती जीवक बालक तथा श्रीकर नामक व्यक्तियों का उल्लेख किया, जिनके ग्रन्थों से उन्होंने वह पूजा पद्धति ग्रहण की। इसका अर्थ यह हुआ कि दुर्गापूर्जा की पद्धति 11वीं शताब्दी से पहले ही लिखी जा चुकी थी जो आज उपलब्ध नहीं है। इसके उपरान्त 14वीं शताब्दी में वाचस्पति मिश्र ने दुर्गापूजन का विस्तृत वर्णन किया।
बंगाल के पं. रघुनन्दन ने अपने पूर्ववर्ती लेखकों की सहायता से दुर्गापूजा की जो विधि तैयार की, वह अत्यधिक लोकप्रिय हुई। दुर्गा-पूजा में 16वीं शताब्दी के राजा कंसनारायण का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने अपने पुरोहित रमेश शास्त्री के परामर्श पर बहुत बड़े पैमाने पर दुर्गापूजा की, जिस पर उन दिनों साढ़े आठ लाख रुपए खर्च हुए। यह उत्सव राजा कंसनारायण ने अपने क्षेत्र राजशाही (बंगाल) प्रान्त के ताहिरपुर में आयोजित किया था।
कहा जाता है कि तभी से बंगाल में दुर्गापूजा को विशेष लोकप्रियता मिली। इसी पूजापद्धति को कंसनारायण पद्धति कहा जाता है। राजा कंसनारायण के बाद 16वीं तथा 17वीं शताब्दी में दुर्गा-पूजा पद्धति पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए, जो आज बहुतायत से प्रचलित हैं।
वैसे तो जीवन में शक्ति उपासना तथा उसके प्रतीक के रूप में देवी-पूजन नित्य का कार्य है, लेकिन देवी-पूजन का विशेष उत्सव वर्ष में दो बार मनाया जाता है। प्रथम, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से रामनवमी तक, जिसे राम-नवरात्र अथवा वासन्तिक नवरात्र कहते हैं। इनमें दुर्गा-नवरात्र का विशेष महत्व है।
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