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सोशल मीडिया कंपनियों का दोहरापन

अमेरिकी कंपनियों के माध्यम से जिस तरह से सेंसरशिप थोपी जा रही है, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए भी चिंता की बात है

by WEB DESK
Apr 7, 2022, 11:18 am IST
in भारत, मत अभिमत
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रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों का साम्राज्यवाद नए-नए रूपों में सामने आ रहा है। यूट्यूब ने भारतीय टीवी चैनल ‘वियॉन’ को इसलिए प्रतिबंधित कर दिया, क्योंकि उसने रूस के विदेश मंत्री को भाषण देते दिखाया। लेकिन यही भाषण दिखाने वाले किसी अन्य विदेशी चैनल को बंद नहीं किया। अमेरिका गूगल, फेसबुक, अमेजन और ट्विटर जैसी कंपनियों का युद्ध में हथियार की तरह प्रयोग कर रहा है। इनके माध्यम से रूस विरोधी दुष्प्रचार को हवा दी जा रही है। इसमें संदेह नहीं कि भारत भी उसका शत्रु है। अमेरिकी कंपनियों के माध्यम से जिस तरह से सेंसरशिप थोपी जा रही है, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए भी चिंता की बात है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अमेरिकी कंपनी ट्विटर से पूछा कि वह हिंदू देवी-देवताओं के अपमानजनक चित्रों वाले पोस्ट क्यों नहीं हटाती? न्यायाधीश ने यह भी कहा कि ‘लगता है कि ये कंपनियां भारतीयों की संवेदनशीलता के प्रति लापरवाह हैं’। समय आ चुका है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग के इन विदेशी अस्त्रों पर रोक लगाई जाए। उधर, अमेरिकी प्रोपगेंडा अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने तो अति ही कर दी।

स्कूलों में बुर्के के लिए विफल अभियान चलाने
के बाद मीडिया का एक बड़ा वर्ग अब
हलाल मीट के समर्थन में एकजुट हो
रहा है। टाइम्स आफ इंडिया ने
हलाल मीट थोपने का विरोध
कर रहे लोगों को ‘फ्रिंज एलिमेंट’
घोषित कर दिया है। जो मीडिया
बीफ को भोजन की स्वतंत्रता
बताता है, वही हलाल न खाने
के आग्रह को अनुचित बता रहा

समाचार छापा कि ‘भारत में सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारी दो दिन से हड़ताल पर हैं। पूरे देश में यातायात और अन्य आवश्यक सेवाएं ठप पड़ गई हैं।’ न्यूयॉर्क टाइम्स भारत से जुड़ी फेक न्यूज छापने के लिए पहले से बदनाम है। जो हड़ताल अभी हुई ही नहीं, उसका भी समाचार छपा और अब भी इंटरनेट पर है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने का सोचा-समझा वामपंथी प्रयास था। संयोग ही है कि भारत से जुड़े ऐसे शरारतपूर्ण और हास्यास्पद रिपोर्ट लिखने वाले कथित पत्रकार एक समुदाय विशेष के होते हैं।

आआपा के जनविरोधी कृत्यों पर खामोशी
दिल्ली विधानसभा में अरविंद केजरीवाल ने कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार पर अश्लील टिप्पणी। लोगों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन छोटी-छोटी बातों को नैतिकता का प्रश्न बनाने वाले लुटियंस मीडिया ने केजरीवाल की आलोचना का साहस तक नहीं दिखाया। ऊपर से टाइम्स नाऊ और आजतक ने प्रायोजित साक्षात्कारों के माध्यम से केजरीवाल को कुछ और झूठ बोलने के लिए मंच प्रदान किया। बल्कि चैनलों के साक्षात्कारकर्ताओं के मुंह बंधे रहे कि कुछ कठिन पूछ लिया तो सरकारी विज्ञापनों का सौदा रद्द न हो जाए। यह डर इतना गहरा है कि पंजाब में नई सरकार बनते ही किसानों पर लाठीचार्ज के समाचार को भी लगभग पूरी तरह दबा दिया गया। दूसरी ओर, विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत के बाद भी योगी आदित्यनाथ की शपथ ग्रहण को लेकर विचित्र विश्लेषणों की आंधी चल पड़ी। एबीपी न्यूज चैनल ने योगी मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों का जातीय विश्लेषण करते हुए बताया कि एक भी राजपूत को मंत्री नहीं बनाया गया। हो सकता है कि यह जानकारी किसी भूलवश चल गई हो, लेकिन मीडिया मंत्रिमंडल का ऐसा जातिगत विश्लेषण भाजपा की सरकारों के लिए ही करता है।

खबरें छिपाने का एजेंडा
राजस्थान में कांग्रेस विधायक जौहरीलाल मीणा के बेटे के अनुसूचित जाति की एक अवयस्क बालिका से बलात्कार का समाचार भी ‘राष्ट्रीय दलित विमर्श’ में स्थान नहीं बना पाया। मीडिया ने इस घटना को बहुत योजनाबद्ध ढंग से दबाया। अधिकांश समाचार पत्रों ने इसे अंदरूनी पन्नों पर छापा।

छत्तीसगढ़ के सरगुजा में वनवासी समुदाय के एक व्यक्ति अपनी सात वर्ष की बेटी का शव कंधे पर लादकर ले जाते वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुआ। पता चला कि अस्पताल ने उसे एंबुलेंस अथवा कोई वाहन देने से मना कर दिया था। यह हृदयविदारक समाचार मीडिया ने बहुत छिपाते हुए छापा ताकि छत्तीसगढ़ सरकार रुष्ट न हो। यही काम अंबिकापुर में एक किशोरी की हत्या पर हुआ। चूंकि हत्यारा मजहब विशेष का था, इसलिए रायपुर से लेकर दिल्ली तक के अखबारों ने लव जिहाद की इस घटना को सामान्य अपराध की तरह छापा।

स्कूलों में बुर्के के लिए विफल अभियान चलाने के बाद मीडिया का एक बड़ा वर्ग अब हलाल मीट के समर्थन में एकजुट हो रहा है। टाइम्स आफ इंडिया ने हलाल मीट थोपने का विरोध कर रहे लोगों को ‘फ्रिंज एलिमेंट’ घोषित कर दिया है। जो मीडिया बीफ को भोजन की स्वतंत्रता बताता है, वही हलाल न खाने के आग्रह को अनुचित बता रहा है। समझा जा सकता है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग हलाल अर्थव्यवस्था का लाभार्थी है। उनके लिए संपादकीय सिद्धांत नहीं, बल्कि व्यापारिक और वैचारिक हित ही सर्वोपरि हैं।

Topics: आआपा के जनविरोधीदिल्ली उच्च न्यायालय
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