‘अन्नं जगत प्राय: प्रावृट्कालस्य चान्नयात्तम्।
यस्मादत परीक्ष्य: प्रावृट्काल: प्रयत्नेन।।’
आचार्य वराहमिहिर के ग्रंथ ‘वृहत्संहिता’ के इस श्लोक का अर्थ है – अन्न ही जगत का प्राण है, और यह वर्षा के अधीन है। इस कारण यत्नपूर्वक वर्षाकाल की परीक्षा करनी चाहिए। भारतवर्ष में यह वर्षाकाल कृषि का आधार है। लेकिन आमजन या कृषक इस वर्षाकाल की यत्नपूर्वक परीक्षा कैसे करें यानी कैसे पता चले कि इस वर्ष मानसून समय से आएगा और वर्षा होगी, चार मास या चौमासे में कितनी वर्षा होगी – ऐसे अनेक प्रश्नों का सहज समाधान अब भी आसान नहीं है। बावजूद इसके कि मौसम विज्ञान काफी प्रगति कर चुका है और हर जिले के मौसम का पूवार्नुमान संभव है, हाल के वर्षों में मानसून गच्चा दे चुका है। अच्छी बारिश की उम्मीदें संजोए किसान ठगे रह गए हैं।
ऐसे में किसानी के लोक-विज्ञानी घाघ और भड्डरी मददगार के रूप में नजर आते हैं। चाहे बैल खरीदना हो या खेत जोतना, बीज बोना हो अथवा फसल काटनी हो, इन दोनों की सूक्तियां या लोकोक्तियां अथवा कहावतें सदियों से कृषि और किसानों का मार्गदर्शन करती रही हैं। उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों के ग्रामीण परिवेश में घाघ-भड्डरी की उक्तियां लोगों की जुबान पर तैरती रहती हैं। बल्कि यूं कहें कि हवा, आकाश में होने वाले परिवर्तनों के सटीक मूल्यांकन के लिए वे घाघ का ही स्मरण करते हैं।
महर्षि भृगु की परंपरा के वाहक
वाचस्पति कोश में महर्षि पराशर के अनेक श्लोक संस्कृत में हैं जिनमें कृषि संबंधी नियमों का वर्णन मिलता है। माना जाता है कि इस परंपरा की शुरुआत महर्षि नारद और भृगु से हुई। महर्षि भृगु लिखित ‘भृगु संहिता’ की सूक्ष्म गणनाएं चमत्कारिक एवं अचूक हैं। जनश्रुति के अनुसार घाघ और भड्डरी इसी भृगु वंश से आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने संस्कृत साहित्य तथा ज्योतिष परंपरा से व्यापक ज्ञान अर्जित किया होगा। फिर अपने अनुभव, मेधा तथा तीक्ष्ण अग्रदृष्टि से कहावतें गढ़ी होंगी। दोनों ने सहज भाषा में किसानों को कृषि एवं मौसम संबंधी बढ़िया तरकीब सुलभ कराया।
कृषि ज्ञान का अद्भुत भंडार
लोकश्रुतियां चाहे जो हों, पर यह निर्विवाद है कि घाघ और भड्डरी समकालीन ही नहीं, एक-दूसरे के सुपरिचित भी थे। यह उनकी कहावतों से स्पष्ट होता है। दोनों कृषि पंडित एवं व्यावहारिक पुरुष थे। उनकी कहावतों को कृषि ज्ञान का अद्भुत भंडार कहना अतिशयोक्ति नहीं है। काशी के ज्योतिषाचार्य पं. कामेश्वर उपाध्याय का कहना है कि कहावतों के रूप में ऐसी सटीक ज्योतिषीय गणना वही कर सकता है जिसका ज़्योतिष के साथ लोकभाषा पर भी समान अधिकार हो। घाघ-भड्डरी ने भारतीय ज्ञान परंपरा में महनीय योगदान दिया है। विचित्र बात यह है कि घाघ या भड्डरी की लिखी कोई पुस्तक अब तक उपलब्ध नहीं हुई है। उनकी वाणी कहावतों के रूप में बिखरी हुई है, जिसे अनेक लोगों ने संग्रहीत किया है। इनमें रामनरेश त्रिपाठी कृत ‘घाघ और भड्डरी’ (हिंदुस्तानी एकेडेमी, 1931 ई.) अत्यंत महत्वपूर्ण संकलन है।
भारतीय पंचांग की कालगणना चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आदि 12 महीनों पर आधारित है तो घाघ व भड्डरी की कहावतों का भी आधार वही है। इन महापंडितों ने चैत से लेकर फाल्गुन तक, कृष्ण व शुक्ल पक्ष में ग्रह-नक्षत्रों व वार के आधार पर मौसम में परिवर्तन की गणना की है। घाघ-भड्डरी कहते हैं –
‘एक बूंद जो चैत में परे, सहस बूंद सावन में हरे’
पं. कामेश्वर उपाध्याय कहते हैं कि चैत-वैशाख व जेठ को वर्षा का गर्भकाल कहा गया है। इन महीनों में वर्षा होना चौमासे में मानसून को कमजोर कर देता है। भड्डरी ने भी लिखा है – ‘चैत मास को दसमी खड़ी, बादल बिजली होय, तो जानो चित मांहि यह गर्भगला सब जोय’ यानी चैत्रकृष्ण की दशमी के दिन जल बरसे और बिजली चमके तो मन में यह जानो कि वर्षा का गर्भ गल गया है, वर्षा न्यून होगी।
भड्डरी ने जेठ महीने में पुरवा हवा का बहना और बारिश को मानसून की दृष्टि से सही नहीं माना है। देखें –
‘जै दिन जेठ चले पुरवाई, तै दिन सावन धूरि उड़ाई’। और,
‘तपा नखत में जो चुइ जाय, सभी नखत हलके पड़ जाएं’
यानी तपते हुए ज्येष्ठ मास में कहीं बारिश हो जाय तो समझो वर्षा के सभी नक्षत्र हलके पड़ जाएंगे।
अवर्षण के संबंध में यह लोकोक्ति कई बार सटीक साबित हुई है-
‘जेठी बदी दशमी दिना जो सनि वासर होय,
पानी होय न धरनि पै, बिरला जीवै कोय’
यानी ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की दशमी शनिवार को पड़े तो धरती पर वर्षा नहीं होगी, कोई रिला ही बचेगा।
प्राकृतिक खेती के आदि पैरोकार
आजादी के बाद कृषि में आत्मनिर्भरता की अंधी दौड़ ने भारत की भूमि को काफी क्षति पहुंचाई है। रासायनिक खादों से धरती की उर्वरा शक्ति निरंतर क्षीण होती जा रही है। भविष्य के संकट का पूवार्नुमान हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इधर लगातार प्राकृतिक खेती, जैविक खेती पर जोर दे रहे हैं जबकि सैकड़ो वर्ष पहले घाघ ने भी प्राकृतिक खेती की ही पैरोकारी की थी।
खादों के संबंध में घाघ के विचार अत्यंत पुष्ट थे। उन्होंने गोबर, कूड़ा, हड्डी, नील, सनई, आदि की खादों के लिए वैसा ही सराहनीय प्रयास किया जैसा कि 1840 ई. के आसपास जर्मनी के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक लिबिग ने यूराप में कृत्रिम उर्वरकों के संबंध में किया था। घाघ की निम्न कहावतें देखें-
खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।
गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै।
सन के डंठल खेत छिटावै, तिनते लाभ चौगुनो पावै।
गोबर, मैला, नीम की खली, या से खेती दुनी फली।
वही किसानों में है पूरा, जो छोड़ै हड्डी का चूरा।
दालों की खेती का महत्व
घाघ ने सनई, नील, ऊर्द, मोथी आदि द्विदलों को खेत में जोतकर मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने का स्पष्ट उल्लेख किया है। खेतों की उचित समय पर सिंचाई की ओर भी उनका ध्यान था। आजकल दालों की खेती पर विशेष बल दिया जाता है, क्योंकि उनसे खेतों में नाइट्रोजन की वृद्धि होती है। घाघ की जानकारी आज के सन्दर्भ में बहुत महत्वपूर्ण मानी जा सकती है।
‘चैत पूर्णिमा होय जो सोम गुरौ बुधवार, घर-घर होय बधावड़ा घर-घर मंगलचार’।
इस वर्ष चैत्र पूर्णिमा 16 अप्रैल, शनिवार को है।
‘अखै तीज तिथि के दिना गुरु होवै संजोत, तो भाखैं यों भड्डरी उपजै नाज बहुत’
यानी अक्षय तृतीया यदि गुरुवार को पड़े तो भड्डरी की भविष्यवाणी के अनुसार अन्न बहुत अच्छा होगा। इस वर्ष अक्षय तृतीया 3 मई, मंगलवार को है।
भारतवर्ष के प्राचीन महापुरुषों की भांति घाघ का जन्मकाल और जन्मस्थान निर्विवाद नहीं है। शिवसिंह सेंगर ने उनकी अवस्थिति सं. 1753 वि. के उपरान्त मानी है। इसी आधार पर मिश्र बन्धुओं ने उनका जन्म सं. 1753 वि. और कविता काल सं. 1780 वि. माना है। ‘भारतीय चरिताम्बुधि’ में इनका जन्म सन् 1696 ई. बताया जाता है। पं. राम नरेश त्रिपाठी ने घाघ का जन्म सं. 1753 वि. माना है। यही मत आज सर्वाधिक मान्य है। रामनरेश त्रिपाठी ने इन्हें ब्राह्मण (देवकली दुबे) माना है। उनके अनुसार घाघ कन्नौज के चौधरी सराय के निवासी थे। कहा जाता है कि घाघ हुमायूं के दरबार में भी गए थे। हुमायूं के बाद उनका सम्बन्ध अकबर से भी रहा। घाघ की प्रतिभा से अकबर भी प्रभावित हुआ था और उपहार स्वरूप उसने उन्हें प्रचुर धनराशि और कन्नौज के पास की भूमि दी थी, जहां उन्होंने गांव बसाया था जिसका नाम रखा ‘अकबराबाद सराय घाघ’। सरकारी कागजों में आज भी उस गांव का नाम ‘सराय घाघ’ है। यह कन्नौज स्टेशन से लगभग एक मील पश्चिम में है। अकबर ने घाघ को ‘चौधरी’ की भी उपाधि दी थी। इसीलिए घाघ के कुटुम्बी अभी तक अपने को चौधरी कहते हैं। ‘सराय घाघ’ का दूसरा नाम ‘चौधरी सराय’ भी है।
बचपन से ही मेधा संपन्न
कहा जाता है कि घाघ बचपन से ही ‘कृषि विषयक’ समस्याओं के निदान में दक्ष थे। छोटी उम्र में उनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गई थी कि दूर-दूर से लोग समाधान के लिए घाघ के पास आया करते थे। किंवदन्ती है कि एक व्यक्ति के पास कृषि कार्य के लिए पर्याप्त भूमि थी किन्तु उसमें उपज इतनी कम होती थी कि उसका परिवार भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता था। घाघ की गुणज्ञता को सुनकर वह उनके पास आया। उस समय घाघ हमउम्र बच्चों के साथ खेल रहे थे। जब उस व्यक्ति ने अपनी समस्या सुनाई तो घाघ सहज ही बोल उठे –
आधा खेत बटैया देके, ऊंची दीह किआरी।
जो तोर लइका भूखे मरिहें, घघवे दीह गारी।। कहा जाता है कि घाघ के कथनानुसार कार्य करने पर वह किसान धन-धान्य से पूर्ण हो गया।
भड्डरी के निवास क्षेत्र को लेकर स्पष्टता नहीं
घाघ के बारे में कहा जाता है कि वे छपरा (बिहार) के निवासी थे। बाद में वे कन्नौज चले गए। परंतु भड्डरी के निवास स्थान के बारे में स्पष्टता नहीं है। कुछ विद्वान मानते हैं कि भड्डरी का निवास उत्तर प्रदेश में काशी के आसपास था। परंतु कुछ का मानना है कि भड्डरी राजस्थान निवासी थे। भड्डरी को काशी वासी मानने वाले बताते हैं कि मारवाड़ में भी भड्डरी नाम से एक महिला ज्योतिषी हुई थीं परंतु वे कृषि मौसम विज्ञानी भड्डरी से अलग थीं। कुछ कहावतों में भड्डरी जोषी का नाम आया है। इससे दूसरे पक्ष के लोग भड्डरी को राजस्थान का मानने पर जोर देते हैं। परंतु भड्डरी की कहावतों में प्रयुक्त भाषा घाघ की भांति ही है जिससे उनके राजस्थान का निवासी होने की बात खंडित होती है। साथ ही घाघ की कई कहावतों में ‘कहैं घाघ सुनु भड्डरी’ का
जिक्र भी आता हौ। इन बातों से भड्डरी का निवास स्थान काशी होने के तर्क को बल मिलता है।
घाघ का अभिमत था कि कृषि सबसे उत्तम व्यवसाय है, जिसमें किसान भूमि को स्वयं जोतता है :
उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।
खेती करै बनिज को धावै, ऐसा डूबै थाह न पावै।
उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो संग रहा।
जो हल जोतै खेती वाकी और नहीं तो जाकी ताकी।
आज भी अनेक किसान लोक कृषि वैज्ञानिक घाघ-भड्डरी की कहावतों पर भरोसा करके सफल खेती करते हैं।
वाराणसी के वंशलोचन पाठक कहते हैं कि खेत की जुताई से लेकर कृषि उपज के भंडारण तक घाघ और भड्डरी की कहावतें प्रासंगिक हैं। पाठक जी ने चैत में पड़ रही गर्मी को बारिश के लिहाज से सही बताया। कहा –
असुनी नलिया अन्त विनासै, गली रेवती जल को नासै।
भरनी नासै तृनौ सहूतो, कृतिका बरसै अन्त बहूतो।।
यदि चैत मास में अश्विनी नक्षत्र बरसे तो वर्षा ऋतु के अन्त में झुरा पड़ेगा; नक्षत्र बरसे तो वर्षा नाममात्र की होगी; भरणी नक्षत्र बरसे तो घास भी सूख जाएगी और कृतिका नक्षत्र बरसे तो अच्छी वर्षा होगी।
वहीं, किसान कौशलेंद्र सिंह ने बताया कि हमारे बीजों में घुन नहीं लगता। क्योंकि मैं हमेशा पछुआ हवा में ही ओसाकर अनाज का भंडारण करता हूं। और अन्य कहावतों का सहारा लेता हूं। छोटी जोत में भी परिवार को खाने-पीने की कमी नहीं पड़ती।
रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुने घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।।
यदि रोहिणी बरसे, मृगशिरा तपै और आर्द्रा में साधारण वर्षा हो जाए तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते भी भात खाने से ऊब जाएंगे और नहीं खाएंगे।
सर्व तपै जो रोहिनी, सर्व तपै जो मूर।
परिवा तपै जो जेठ की, उपजै सातो तूर।।
यदि रोहिणी भर तपे, मूल भी पूरा तपे तथा जेठ की प्रतिपदा तपे तो सातों प्रकार के अन्न पैदा होंगे।
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।
यदि शुक्रवार के बादल शनिवार को छाए रह जाएं, तो भड्डरी कहते हैं कि वह बादल बिना पानी बरसे नहीं जाएगा।
भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय।
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।
यदि भादो शुक्ल पक्ष की षष्ठी को अनुराधा नक्षत्र पड़े तो ऊबड़-खाबड़ जमीन में भी उस दिन अन्न बो देने से बहुत पैदावार होती है।
अद्रा भद्रा कृत्तिका, अद्र रेख जु मघाहि।
चंदा ऊगै दूज को सुख से नरा अघाहि।।
यदि द्वितीया का चन्द्रमा आर्द्रा नक्षत्र, कृत्तिका, श्लेषा या मघा में अथवा भद्रा में उगे तो मनुष्य सुखी रहेंगे।
सोम सुक्र सुरगुरु दिवस, पौष अमावस होय।
घर घर बजे बधावनो, दुखी न दीखै कोय।।
यदि पूस की अमावस्या को सोमवार, शुक्रवार बृहस्पतिवार पड़े तो घर घर बधाई बजेगी-कोई दुखी न दिखाई पड़ेगा।
सावन पहिले पाख में, दसमी रोहिनी होय।
महंग नाज अरु स्वल्प जल, विरला विलसै कोय।।
यदि श्रावण कृष्ण पक्ष में दशमी तिथि को रोहिणी हो तो समझ लेना चाहिए अनाज महंगा होगा और वर्षा स्वल्प होगी, विरले ही लोग सुखी रहेंगे।
सावन मास बहे पुरवइया।
बछवा बेच लेहु धेनु गइया।।
अर्थात् यदि सावन महीने में पुरवैया हवा बह रही हो तो अकाल पड़ने की संभावना है। किसानों को चाहिए कि वे अपने बैल बेच कर गाय खरीद लें, कुछ दही-मट्ठा तो मिलेगा।
पूस मास दसमी अंधियारी। बदली घोर होय अधिकारी।
सावन बदि दसमी के दिवसे। भरे मेघ चारो दिसि बरसे।।
यदि पूस बदी दसमी को घनघोर घटा छायी हो तो सावन बदी दसमी को चारों दिशाओं में वर्षा होगी। कहीं कहीं इसे यों भी कहते हैं – ‘काहे पंडित पढ़ि पढ़ि भरो, पूस अमावस की सुधि करो।‘
पूस उजेली सप्तमी, अष्टमी नौमी जाज।
मेघ होय तो जान लो, अब सुभ होइहै काज।।
यदि पूस सुदी सप्तमी, अष्टमी और नवमी को बदली और गर्जना हो तो सब काम सुफल होगा अर्थात सुकाल होगा।
सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झुरा परै, नाहीं समौ सुकाल।।
यदि सावन सुदी सप्तमी को आधी रात के समय बादल गरजे और पानी बरसे तो झुरा पड़ेगा; न बरसे तो समय अच्छा बीतेगा।
आसाढ़ी पूनो दिना, गाज बीजु बरसंत।
नासे लच्छन काल का, आनंद मानो सत।।
आषाढ़ की पूणिमा को यदि बादल गरजे, बिजली चमके और पानी बरसे तो वह वर्ष बहुत सुखद बीतेगा।
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