महेश दत्त
कुछ शहर दे लोग वी जालिम सन
कुछ सानू मरण दा शौक वी सी
मशहूर शायर मुनीर नियाजी की उपरोक्त पंक्तियां इमरान खान और उनकी सरकार की वर्तमान परिस्थिति पर सटीक बैठती हैं। सहयोगी दलों को सरकार का साथ छोड़ते देखकर इमरान खान ने आगामी 27 मार्च को राजधानी इस्लामाबाद के डी चौक पर दस लाख समर्थकों का जलसा करने का फैसला कर लिया है। इससे पहले इमरान सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के लिए 28 मार्च का दिन निर्धारित किया जा चुका है। विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव को पारित कराने के लिए 172 मतों की आवश्यकता है, जबकि तमाम गिनती के अनुसार उनके पाले में लगभग 200 मत हो चुके हैं। यदि इन मतों में कुछ को स्पीकर को साथ मिलाकर रद्द करवा भी दिया जाए, तब भी वर्तमान सरकार का गिरना तय है।
इमरान खान द्वारा आयोजित किए जा रहे जलसे की घोषणा के बाद विपक्षी नेता मौलाना फजलुर्रहमान ने अपने दल के रजाकारों (स्वयंसेवकों) को 23 मार्च के दिन इस्लामाबाद की तरफ कूच करने के लिए निर्देश दे दिए हैं। इमरान खान के इस जलसे का उद्देश्य अविश्वास प्रस्ताव पर संसद सदस्यों को मतदान से रोकना है। अगर दोनों जलसे होते हैं तो उनके बीच हिंसा होना तय है। सूचना और प्रसारण मंत्री फवाद चौधरी यह बात एक साक्षात्कार में बता चुके हैं। इस बारे में अधिक जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि मना किए जाने के बावजूद अगर हमारी पार्टी के सदस्य इस मतदान में भाग लेने के लिए जाते हैं तो उन्हें जलसे में भाग ले रहे इन्हीं लोगों के बीच से आना-जाना होगा। यह वक्तव्य स्पष्ट रूप से एक धमकी था।
इसी के जवाब में मौलाना फजलुर्रहमान ने अपनी पार्टी के स्वयंसेवकों का यह कहकर आह्वान किया कि उन्हें मतदान के दिन संसद सदस्यों को सुरक्षा देने के लिए 28 तारीख तक इस्लामाबाद में ही रहना होगा। सूत्र बताते हैं कि मौलाना की पार्टी के सदस्यों ने इस्लामाबाद तक की यात्रा के लिए बसों को किराए पर लेना शुरू कर दिया है। मौलाना की बात में कड़क का अंदाजा उनकी भाषा से लगाया जा सकता है, जिसमें वह कहते हैं, ‘‘डंडे का जवाब डंडे से और पत्थर का जवाब पत्थर से दिया जाएगा।’’ जहां एक तरफ इमरान खान का दल अपना जलसा डी चौक पर करेगा, वहीं दूसरी तरफ मौलाना और विपक्षी दलों का जलसा कांस्टीट्यूशनल एवेन्यू पर होगा। यही रास्ता आगे जाकर संसद भवन और सर्वोच्च न्यायालय को जाता है।
इस्लामाबाद में 23 मार्च को मौलाना फजलुर्रहमान जलसा करने वाले हैं, लेकिन सूचना एवं प्रसारण मंत्री फवाद चौधरी की धमकी के मद्देनजर उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को 28 मार्च तक इस्लामाबाद में रुकने को कहा है। वहीं, अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से एक दिन पहले 27 मार्च को इमरान भी डी पार्क में रैली करने वाले हैं। इमरान के इस जलसे का उद्देश्य अविश्वास प्रस्ताव पर संसद सदस्यों को मतदान से रोकना है। अगर दोनों जलसे होते हैं तो उनके बीच हिंसा होना तय है |
इन जलसों की तारीखों की घोषणा के बाद 15 मार्च की शाम रावलपिंडी में कोर कमांडरों की बैठक हुई, जिसमें दूसरे अन्य मामलों के अलावा यह भी तय किया गया कि इस तरह के जलसों के कारण राजधानी में अराजकता नहीं फैलने दी जाएगी। सेना की तरफ से प्रधानमंत्री को यह संदेश भी भेजा गया कि वह ऐसा कोई काम न करें, जिससे टकराव का माहौल बने और सेना को ऐसा कोई कदम उठाना पड़े जो किसी के भी हित में न हो।
आईएसआई ने अपनी संस्था में यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी अधिकारी को राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करने या इस संबंध में मुलाकात करने की आवश्यकता नहीं है। याद रहे कि इससे पहले सरकार की तरफ आने वाली हर परेशानी को तत्कालीन आईएसआई के निदेशक हमीद गुल अपने स्तर पर सुलझा दिया करते थे। इसी का नतीजा है कि इमरान खान के अंदर राजनीतिक शुऊर विकसित होने का कोई रास्ता ही नहीं था। इस बीच, पेशावर के कोर कमांडर के पद पर स्थानांतरित हो चुके लेफ्टिनेंट जनरल हमीद गुल ने इमरान खान की मदद के लिए पंजाब के चौधरी बंधुओं को फोन किया, लेकिन सेना के मुख्यालय रावलपिंडी से स्थिति पर नियंत्रण रखा गया और गुल को पीछे धकेल दिया गया।
23 मार्च को इस्लामाबाद में ओआईसी देशों के विदेश मंत्रियों का सम्मेलन हो रहा है। इस सम्मेलन में पाकिस्तान की ओर से प्रधानमंत्री का भाग लेना तय है। यही कारण है कि इस तारीख के बाद ही विपक्षी दल राजधानी में अपना शक्ति प्रदर्शन करेंगे। अन्यथा इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए कोई प्रधानमंत्री ही न होता। सूत्र यह भी बताते हैं कि सेना ने अपने स्तर पर इमरान खान को इस्तीफा देकर देश से बाहर चले जाने की सलाह भी दी है। इमरान को अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से पहले सत्ता से बाहर करने का एक और तरीका सरकार के सहयोगी दलों का समर्थन वापस लेना है। माना जा रहा है कि ऐसा विपक्षी दल मतदान से एक-आध दिन पहले ही करेंगे।
इस तमाम घटनाक्रम में यह सोचने का विषय है कि सेना का निष्पक्ष खड़े होना भी एक किस्म का पक्षपात है, जिसकी छाया में राजनीतिक दल अपना फैसला कर रहे हैं। सेना की तरफ से किसी भी समय आने वाले एक टेलीफोन से इन सहयोगी दलों का रुख बदल सकता है। ऐसे में निष्पक्षता के मायने बहुत सीमित हो जाते हैं। सेना की इमरान खान को सत्ता पर लाने की योजना के पूरी तरह विफल होने के बाद सत्ता के समीकरणों से पीछे हटने के अलावा सेना के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि सेना भावी सरकार की नीतियों को नियंत्रित नहीं करेगी।
परंपरागत रूप से सेना नवाज शरीफ या आसिफ अली जरदारी, दोनों में से किसी पर भी भरोसा नहीं करती। यह भी सच है कि इमरान खान को सत्ता में लाने का उपक्रम जिया-उल-हक के जीवन काल में शुरू हो गया था। आज भले ही इमरान खान नामी प्रयोग विफल हो गया हो, लेकिन उनकी पार्टी पीटीआई को जिंदा रखना सेना के लिए जरूरी है। इस पार्टी पर सेना ने पिछले लगभग बीस साल काम किया है, इसीलिए माना जाता है कि इमरान को तो निकाला जा सकता है, उनकी पार्टी को नहीं। पाकिस्तानी विशेषज्ञों का मानना है कि लगभग तीन साल के बाद सेना फिर इमरान जैसे किसी नए व्यक्ति को सत्ता में लाने की तैयारी शुरू कर देगी।
जब तक पाकिस्तान के राजनीतिक दल अपनी शक्ति को वहां की जनता से लेना नहीं शुरू करेंगे, जनाधार को ध्यान में रख फैसले नहीं करेंगे, तब तक उन्हें सत्ता में पहुंचने के लिए सेना की बैसाखियों की जरूरत पड़ती रहेगी। यही सत्य है।
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