डॉ. अजय खेमरिया
पूर्व पीठिका में यह जान लीजिए कि 2014 के बाद देश की राजनीति और शासन में जो बदलाब आया है उसे सेलिब्रिटी पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, एकेडेमिक्स का बड़ा वर्ग मान्यता देना नही चाहता है। उलटबांसी यह है कि जिस लोकतांत्रिक पद्वति से इनकी पसंद की सरकारें बनती रही है उसी संवैधानिक प्रक्रिया से मोदी और भाजपा की सरकारों का गठन हो रहा है लेकिन इसे वह केवल अपनी नापसंदगी के चलते स्वीकृति देनें तैयार नही।
भाजपा की सरकार हिन्दू मुस्लिम धुर्वीकरण से बनती है यह एक सामान्यीकरण स्थापित कर दिया गया है। झूठ यहीं पकड़िए की उप्र को छोड़कर किसी राज्य में हिन्दू मुस्लिम कारक नही है लेकिन फिर भी भाजपा जीत गई। ज्ञानीजन इसे मानते नही है। सीएसडीएस का पोस्ट पोल सर्वे कहता है कि यूपी में 80 फीसद मुसलमानों ने सपा को वोट किया इसका मतलब आप खुद निकालिए धुर्वीकरण कहाँ हुआ है?
उप्र में चुनाव पूर्व कुछ नैरेटिव इतनी मजबूती से खड़े किए गए कि हर आदमी कहने लगा कि मुकाबला बहुत कठिन है और योगी का जीतना असंभव है।
किसान आंदोलन को लेकर ठीक वैसे ही माहौल बनाया गया जैसे शाहीन बाग। पूरे देश के किसान मानो बस ईवीएम का बटन दबाने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। इस झूठ की सच्चाई पंजाब से समझ सकते है जहां इस आंदोलन के कर्ताधर्ता रहे बलबीर सिंह की 4 हजार वोटों के साथ सभी अन्य उम्मीदवारों की जमानतें जप्त हो गई।
पश्चिमी उत्तरप्रदेश जहां टिकैत कोको ले गई वोट कहकर मोदी योगी का मजाक उड़ा रहे थे उसी जाट लैंड में बीजेपी को 2017 में 38 फीसदी वोट मिले थे इस चुनाव में यह आंकड़ा 54 पर पहुँच गया। कितनी भयंकर नाराजगी थी इस आंकड़े से समझा जा सकता है।
एक दुर्दांत अपराधी विकास दुबे जिसने बीसियों ब्राह्मणों की निर्मम हत्या की। उसके एनकाउंटर के बाद प्रगतिशील ज्ञान जगत ने विमर्श खड़ा कर दिया ब्राह्मण योगी के ठाकुरवाद से नाराज है। ब्राह्मणवाद और मनुवाद को गाली दे देकर जिनकी प्रगतिशीलता की दुकानें 70 साल से फलफूल रही थीं उन्हें उस दुर्दांत हत्यारे के बहाने ब्राह्मणों के स्वाभिमान और अस्मिता की चिंता सताने लगी। इस नकली नैरेटिव के बल पर सपा, बसपा और कांग्रेस को भगवान परशुराम जी याद आ गए। ऐसा माहौल मानो ब्राह्मण यूपी में बस वोटिंग के इंतजार में भर है। इस नैरेटिव की सत्यता यह कि 2017 में 82 फीसदी ब्राह्मणों ने मोदी के नाम पर वोट किया था और पांच साल बाद यह आंकड़ा 89 प्रतिशत पर पहुँच गया। ज्ञानजगत की गहराई और दुराग्रही दोगलेपन को इससे बेहतर समझने का क्या अन्य उदाहरण हो सकता है।
योगी के ठाकुरवाद के कारण अन्य पिछड़ी जातियां जो अमित शाह ने करीने से भाजपा के साथ जोड़ीं थी वह टूट चुकीं हैं। इस धारणा को मानों पंख लगा दिए गए स्वामी मौर्या प्रसंग के बाद। प्रचार की गोयविल्स थियरी पर इतना शोर मचा कि एक बार तो बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व तक सकते में आ गया। यही कारण की टिकट काटने का निर्णय थम सा गया। नतीजे बताते है 64 प्रतिशत गैर यादव पिछड़ी जातियों ने योगी मोदी के नाम पर वोट किया है। सीएसडीएस के आंकड़े तो कहते है कि 19 फीसदी यादवों ने तक बीजेपी को वोट किया है। जिन स्वामी मौर्या को हीरो बताकर बड़े उलटफेर की हवा बनाई गई उनकी बिरादरी के कोइरी कुशवाहा, मौर्या सैनी में 64 फीसदी लोगों ने भाजपा को वोट किया है। जबकि 2017 में जब यही नेवला प्रसाद मौर्या योगी के साथ थे तब यह आंकड़ा 56 फीसदी था।
गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध हर प्रगतिशील कड़े मुकाबले की कहानी गा रहा था। चंद्रशेखर रावण हर मीडिया कॉन्क्लेव में छाए हुए थे। उन्हें गोरखपुर में कुल जमा 7640हजार वोट मिले। टाइम पत्रिका ने उन्हें दुनियां के आने वाले 200 प्रमुख नेताओं में शामिल किया। बेगूसराय में जमानत जप्त होने से पहले कभी कन्हैया कुमार को लेकर भी इसी ज्ञानजगत में ऐसी ही बातें गढ़ी गई थी।
जिनके नाम कभी राष्ट्रीय पत्रकारिता और बौद्धिकता के क्षेत्र में पूरी प्रखरता से चमकता था उनके दावों को यू ट्यूब पर सुनिए तो समझ आ जायेगा कि इनकी बौद्धिकता की होलसेल डीलरशिप तो कभी जमीन से जुड़ी हुई थी ही नही। वे तो कलदार (यानी सिक्के) की खनक पर नाचती नृत्यांगनाओं के झुंड भर हैं।
आशुतोष, उर्मिलेश, पुण्यप्रसुन, अजीत अंजुम, अभिसार, राजदीप, ओम थानवी, रवीश कुमार, योगेंद्र यादव, करण थापर, संदीप चौधरी, राणा अयूब, बरखा दत्त, आरफा खानम, श्रीनिवास जैन, मंगलेश डबराल, समीरात्मज मिश्र, रियाज हाशमी, अभय दुबे, कुर्बान अली से लेकर एक पूरी फ़ौज सोशल मीडिया से लेकर समाचार चैनलों पर हरावल दस्तों की तरह सक्रिय रही। सबका एक ही प्रलाप था यूपी में योगी का जीतना असंभव है।
बीबीसी, क्विंट, वायर, जनचौक, जनज्वार, तहलका, प्रिंट जैसे प्रोपेगैंडा पोर्टल्स के कंटेंट आज भी देखे जा सकते है जो भारतीय पत्रकारिता की जनोन्मुखी होने के प्रमाण स्वत दे सकते है।
दावा किया गया कि गोदी मीडिया सच नही दिखाता है इसलिए हम सच दिखा रहे हैं। अजीत अंजुम और संदीप चौधरी के शो में तमाम स्वानाम धन्य पत्रकारों, प्रोफेसर न दावे किए कि मोदी की सभाओं में लोगों में बिल्कुल भी उत्साह नही था जबकि अखिलेश की सभाओं में लोग उनके लिए दीवाने हुए जा रहे थे। कुछ भाजपा उम्मीदवारों को मतदाताओं ने खरी खोटी सुनाई। यहां एक नैरेटिव गढ़ दिया गया खदेड़ा। इसे खदेड़ा को बड़े बड़े पत्रकार सामान्यीकरण के साथ विश्लेषित कर रहे थे। अजीत अंजुम के वीडियो जिन्हें लाखों लोग देख रहे थे उन्हें ध्यान से देखा जाए तो प्रायोजित पटकथा आसानी से समझी जा सकती है।जिस धुर्वीकरण की बेशर्म दलीलें देकर इन नतीजों पर मातमपुर्सी हो रही है असल में वह कहीं हुआ ही नही है। सीएसडीएस के आंकड़े ही बताते है कि महज 10 से 12 प्रतिशत मतदाताओं ने उप्र में मंदिर और हिंदुत्व जैसे विषयों से प्रभावित होकर वोट किया है। हां यह सच है कि इन स्वयंभू जानकारों के प्रलाप ने जरूर मुस्लिम मतदाताओं को लामबंद किया जिसके चलते सपा के वोट प्रतिशत में डेढ़ गुना बढ़ोतरी हो गई।
अब सवाल यह कि क्या वाकई योगी के विरुद्ध जमीन पर माहौल था?या देश के बड़े पत्रकार और बुद्धिजीवी पूरी तरह से प्रायोजित होकर इस खेल को खेल रहे थे?एक अहम पक्ष यह कि जिन्हें अपने ब्रह्मज्ञानी होने का भृम में वे देश के मौजूदा मनोविज्ञान को समझने की विवेक शक्ति मोदी की नफरत और बेरोजगारी में गंवा चुके हैं। तमाम चुनाव बाद सर्वेक्षण बता रहे है कि कोरोना से हुई मौत और कुप्रबंधन के मामले में दो तिहाई लोगों ने पंजाब सरकार को दोषी माना है वहीं उप्र और उत्तराखंड में एक तिहाई से भी कम लोगों ने भाजपा सरकारों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया है। इसके बाबजूद मोदी विरोधी विमर्श गंगा की लाशों को उसी न्यूयॉर्क टाइम्स के एजेंडे के अनुसार ही थोपना चाहता है। उप्र में एक बड़ा पक्ष यह है कि दो तिहाई लोगों ने मोदी योगी के सामने प्रत्याशी के चेहरे को तरजीह नही दी है और इस बड़े वर्ग के लिए लोककल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन एवं भयमुक्त शासन बड़ा मुद्दा था।ऐसे में सवाल फिर वही है कि क्या आम जनता के मन को समझने की नाकामी को देश के पॉलिटिकल पंडित स्वीकार कर पायेंगे?
टिप्पणियाँ