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संकट में हैं गिद्ध, वन विभाग नहीं है गंभीर

by दिनेश मानसेरा
Mar 9, 2022, 12:58 am IST
in भारत, उत्तराखंड
प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

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सवाल यही सामने आता है कि आखिरकार ये गिद्ध कहां चले गए ? जबकि ये गिद्ध हमारे पर्यावरण संतुलन के लिए जरूरी थे। गिद्ध ऐसा पंछी है, जिसे प्राकृतिक सफाई कर्मी का दर्जा प्राप्त है।

 

उत्तराखंड में गिद्धों के संरक्षण के लिए कोई उपाय नहीं खोजे जा रहे, जबकि हिमालय और शिवालिक में पाए जाने वाले गिद्दों की प्रजातियां दुनिया में और कहीं नहीं पायी जातीं। राज्य की पहाड़ियों के ऊंचे पेड़ों में वास करने वाले गिद्दों के अस्तित्व पर संकट पिछले कई सालों से मंडरा रहा है। गिद्ध ऐसा पंछी है जिसे प्राकृतिक सफाई कर्मी का दर्जा प्राप्त है। कुछ साल पहले तक किसी भी जीव के मरने पर गिद्धों का झुंड आसमान से उतर आता था और मरा जीव गिद्धों का भोजन बन जाता था। लेकिन आजकल ऐसा दृश्य देखने को नहीं मिलता। 

सवाल यही सामने आता है कि आखिरकार ये गिद्ध कहां चले गए ? जबकि ये गिद्ध हमारे पर्यावरण संतुलन के लिए जरूरी थे। पिछले कुछ सालों में ये रिसर्च हुआ और जानकारी मिली कि गिद्धों के लुप्त होने की चार बड़ी वजह हैं। पहली सबसे बड़ी वजह "डाइक्लोफिनिक" दवा है जो कि पालतू गाय भैसों को खिलाई जाती है। ये दर्द निवारक दवा पालतू जीवों के मरने के बाद भी उनके शरीर मे बसी रहती है और इस दवा से लिप्त मांस खाने से गिद्धों की ज़िंदगी भी खत्म हो रही है। दूसरी बड़ी वजह शहरों और आसपास के जंगलों में ऊंचे पेड़ों का समाप्त होना भी है इन ऊंचे पेड़ों पर गिद्ध अपने वास बनाते हैं। एक वजह यह भी है कि गिद्धों की प्रजनन क्षमता सीमित होती है। गिद्धों की उम्र कम से कम सौ साल होती है कोई कोई गिद्ध तो दो-दो सौ साल के भी देखे गए हैं। गिद्धों की अब सीमित संख्या भी अब कम होते गिद्धों का कारण है।

उत्तराखंड में गिद्धों की चमर सफेद, काला गिद्ध, हिमालय गिद्ध और जटायु प्रजाति के गिद्धों को चिन्हित किया जा चुका है। उत्तराखंड में 2004 और 2008 में गिद्धों की गणना वन विभाग ने करवायी थी, जिसमें वन क्षेत्र में 1272 और संरक्षित वन क्षेत्र में 3794 यानि कुल 5066 गिद्धों की गिनती की गई। दिलचस्प बात यह है कि उसके बाद से वन विभाग ने गिद्धों की गणना ही नहीं करवायी। जबकि लुप्त होते इन गिद्धों को लेकर वन विभाग को गंभीर होना चाहिए था।

गिद्ध को बचाने के लिए जनजागरण अभियान में लगे हिमालयन वल्चर सोसाइटी के सुमंता घोष का कहना है कि जब तक पशु और कृषि दवा विक्रेता "डाइक्लोफिनिक " दवा की बिक्री पर सख्ती से रोक नहीं लगाते तब तक इसके संरक्षण की बात बेमानी है, हमने प्रशासन को कई बार कहा है कि वो इस पर रोक लगाए किंतु कुछ हुआ नहीं। पौड़ी में रहने वाले शिक्षक दिनेश कुकरेती ने कई गांवों में जाकर लोगों को इस दवा के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए जागरुक भी किया है। वन विभाग के वन्यजीव प्रतिपालक डॉ पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि हम इस साल गिद्धों की गणना करने की योजना बना रहे हैं और हमने राजा जी टाइगर रिजर्व और उसके आसपास के गांव शहरों को फ्री "डाइक्लोफिनिक" ज़ोन बनाने का फैसला लिया है। उम्मीद है इस साल से हमे गिद्ध के संरक्षण के बेहतर परिणाम मिलेंगे। उत्तराखंड में तीन सौ से ज्यादा वास स्थल चिन्हित किये गए हैं। 

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