लोकतंत्र आज के समय में पूरी तरह अवधारणाओं का खेल बना दिया गया है। अक्सर चर्चित अवधारणा में सचाई से कोसों दूर होती हैं। अनेक बार तो ऐसा भी होता है कि प्रचार-समाचार माध्यमों का उपयोग कर फैलाए गए परसेप्शन पूरी तरह से सचाई से उलट होते हैं। जैसे शराब की होम डिलीवरी कर छत्तीसगढ़ को यह समझाया जा रहा है कि ऐसा किया जाना प्रदेश हित में है, ऐसा संस्कृति को संरक्षित करने के लिए किया जा रहा है। जबकि छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में ही शराबबंदी का वादा किया हुआ था।
ऐसा ही दुष्प्रचार और छवि निर्माण का खेल छत्तीसगढ़ में शासकीय संसाधनों का दुरुपयोग कर छद्म क्षेत्रीय अस्मिता को उभारने में, कांग्रेस सरकार द्वारा स्वयं को क्षेत्रीयता का कर्णधार साबित करने में शिक्षा संस्थानों का उपयोग कर किया जा रहा है। और ऐसा करते हुए किसी भी संघीय मर्यादा और संवैधानिक शिष्टाचार तक का उल्लंघन करने से बाज़ नहीं आ रही है कांग्रेस। प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति होनी है। नियुक्ति की एक विहित प्रक्रिया है। बकायदा इसके लिए एक सर्च कमेटी बनायी जाती है और उसकी सिफारिश के आधार पर विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति यानी राज्यपाल को नियुक्ति से संबंधित फैसले लेने का अधिकार होता है।
इस सामान्य से मामले में भी मान्य परम्पराओं के उलट मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सीधे तौर पर राज्यपाल को कठघरे में खड़ा करते हुए स्थानीय कुलपति की मांग कर दबाव बना रहे हैं। हालांकि आरोप यह लग रहा है कि इसकी आड़ में वे अपनी जाति के चहेतों को उपकृत करना चाहते हैं। जैसा कि राज्यपाल सुश्री अनुसुईया उइके को कहना पड़ा – ‘कहा जा रहा है कि स्थानीय व्यक्ति को कुलपति बनाया जाए, ठीक है स्थानीय भावनाएं हैं। मगर इतना बड़ा प्रदेश है। यहां 32 प्रतिशत ट्राइबल, 14 प्रतिशत एससी और बाकी पिछड़ा वर्ग के लोग हैं। क्या आप चाहते हैं कि एक ही समाज के लोग केवल कुलपति बनें, अन्य समाज के नहीं ? अगर देखा जाए तो 14 में केवल एक ही समाज के लोगों को कुलपति का दायित्व है।’ राज्यपाल ने आगे कहा, ‘जवाहर लाल नेहरू और मदन मोहन मालवीय कहा करते थे कि विश्वविद्यालयों में जरूरत पड़ी तो विदेश से भी कुलपति लाए जा सकते हैं। अनुभव और मेरिट के आधार पर सबसे अच्छे को प्राथमिकता देंगे।’
अवाधारणाओं के इस खेल में भाजपा भी काफी फूंक-फूंककर कदम रख रही है। वह जानती है कि कांग्रेस हमेशा यह चाहेगी कि भाजपा तर्क और नियम पर आधारित कोई बयान दे और उसे अपने प्रायोजित मीडिया संस्थान द्वारा बार-बार जिक्र कर भाजपा को छत्तीसगढ़िया विरोधी साबित किया जा सके। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपनी सधी प्रतिक्रया में कहा, ‘भाजपा का हमेशा से यह मानना रहा है कि प्रदेश के माटीपुत्रों को प्राथमिकता मिले। प्रदेश में योग्य प्रतिभाओं की कमी नहीं है, राज्य निर्माता अटल जी ने इसी ध्येय को लेकर प्रदेश का गठन किया था। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने समेत असंख्य ऐसे कदम प्रदेश की भाजपा सरकार ने उठाए, जिससे प्रदेश को दुनिया भर में एक पहचान मिली।’ हालांकि डॉ रमन सिंह ने भी यह आरोप दुहराया कहा कि कांग्रेस सरकार के मुखिया छत्तीसगढ़ के नाम पर केवल अपने रिश्तेदारों, और ख़ास लोगों को लाभ पहुंचाना चाह रहे। इसीलिए ऐसा प्रपंच रचा जा रहा है।
कांग्रेस पर पलटवार करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि अच्छा होता कि कांग्रेस सरकार सांसद के रूप में केटीस तुलसी, जो कभी छतीसगढ़ आते भी नहीं, के बदले किसी स्थानीय व्यक्ति को राज्यसभा भेजती। सीएम बघेल को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कांग्रेस आगे तुलसी जैसी ग़लती न दुहराते हुए जब भी अवसर आये, तब राज्यसभा के लिए राज्य के स्थानीय निवासी को प्राथमिकता दें।
इधर कुछ कांग्रेस समर्थक शैक्षिक संगठनों ने भी स्थानीय कुलपति का मुद्दा उठाकर आग में घी डालने की कोशिश की, हालांकि फिर उन्होंने अपनी अनर्गल बयानबाजी के लिए राज्यपाल से माफी भी मांगी।
छत्तीसगढ़ में शिक्षा संस्थानों को राजनीति का अखाड़ा और राजभवन को भी कठघरे में खड़े करने का यह पहला मामला नहीं है। जबसे कांग्रेस प्रदेश की सत्ता में आयी है, कुलपतियों की नियुक्ति संबंधी ऐसे विवाद चल ही रहे हैं। इससे पहले प्रदेश के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्विद्यालय का नाम बदल देने की कोशिश हुई, हालांकि वह कोशिश भी राज्यपाल की आपत्ति के कारण परवान नहीं चढ़ पायी। वहां भी अपनी मर्जी से कुलपति नियुक्त कर पाने में विफल कांग्रेस ने कैबिनेट की बैठक में फैसला कर विश्वविद्यालयों के मामले में राज्यपाल की सर्वोच्चता को भी ख़त्म करने, कुलपति आदि नियुक्त करने संबंधी सभी अधिकार राज्यपाल से वापस लेकर कांग्रेस सरकार ने खुद को दे दिए थे। ज़ाहिर है कि ऐसा कर परिसरों को दलगत आधार पर नियंत्रित करने की कोशिश के तहत ही यह किया गया। मनमाना कुलपति नियुक्त नहीं कर पाने की बौखलाहट में तमाम संवैधानिक मर्यादाओं को तिलांजलि देते हुए साफ़-साफ़ सीएम बघेल ने धमकी भी दी थी कि – ‘राज्यपाल ने अपना काम कर दिया, अब वे (बघेल) अपना काम करेंगे।’
बहरहाल, शिक्षा संस्थानों और राजभवन तक को निहित स्वार्थवश राजनाति का अखाड़ा बना देना तो ग़लत है ही लेकिन उससे भी अधिक ग़लत है बिना मतलब क्षेत्रीयता को राष्ट्र के विरुद्ध खड़ा कर देने की कोशिश। इस बहाने संवैधानिक संस्थाओं तक को अपमानित करते रहना। दिलचस्प तो यह है ही कि छत्तीसगढ़ियावाद का नारा उस भाजपा को निशाना बना कर दिया जा रहा है जिस भाजपा ने ही छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण किया है। जिसने छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्ज़ा देने समेत तमाम काम किये हैं। और इस कथित स्थानीयता वाद की ठेकेदार बनने की कोशिश वह कांग्रेस कर रही है, जिसने केटी. एस. तुलसी को छग से राज्यसभा भेजा है, जो जीत का प्रमाण पत्र तक लेने छत्तीसगढ़ नहीं आये और न ही उसके बाद कभी छग से संबंधित कोई सरोकार का परिचय दिया।
भाजपा की सरकार बनने से पहले लगभग अखंड राज रहा कांग्रेस का। फिर भी यहां के वनवासीजन किस तरह मुहताज रहे। किस तरह उनकी मुफलिसी और शोषण को बहाना बनाकर यहां नक्सलियों ने पांव पसारे। राज्य को उसकी पहचान से जिस कांग्रेस ने आधी सदी तक वंचित रखा, वही कांग्रेस अब स्थानीयता का राग अलाप रही है। राजनीति के अवधारणा के इस खेल को और क्या कहा जाय।
हां… ऐसे शिगूफे से ये लाभ तो होता ही है कांग्रेस सरकार को, अपने घोषणा पत्र को लागू करने में विफलता समेत अन्य तमाम सरोकारी मुद्दों से राहत मिल जाती है। जैसा कि इस स्थानीयता की आंधी में ही वनवासी क्षेत्र के 25 हज़ार से अधिक बच्चों की मृत्यु का मामला इसी बहाने चर्चा में नहीं आ पाया। कुल मिलाकर आज़ादी के 75 वर्ष बाद यानी भारत के इस अमृत काल में भी कांग्रेस छत्तीसगढ़ में अलगाववाद जैसे विष वमन से बाज़ नहीं आ रही है।
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