मो. आरिफ खान
टूयूनीशिया, मोरक्को, अजरबैजान, और लेबनान जैसे मुस्लिम बहुल देशों ने भिन्न-भिन्न स्तरों पर हिजाब और बुर्के को गैर-कानूनी घोषित कर दिया है । यहां तक कि सीरिया और मिस्र ने भी विद्यालयों में चेहरा ढकने पर प्रतिबंध लगा दिया है । उनका यह तर्क है कि कुरान स्पष्ट रूप से हिजाब या नकाब के उपयोग को निर्धारित नहीं करता। यहां सवाल यह उठता है कि जब पूरी दुनिया में इस्लाम की उदार और प्रगतिशील नजीर पेश की जा रही है, तब भारत जैसे आधुनिक लोकतांत्रिक सेकुलर देश में इस्लाम की रूढ़िवादी व्याख्या करने का क्या औचित्य है?
जब राजा राम मोहन राय ने पर्दा प्रथा, सती प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ आंदोलन किया था तो उसे समाज सुधार कहा गया था। परंतु जब इसी प्रकार के सुधार की बात मुस्लिम समाज के लिए की जाती है, तब उसे तुरंत मजहब से जोड़ दिया जाता है और ‘इस्लाम खतरे में है’ या ‘मजहब में हस्तक्षेप’ कह कर प्रचारित किया जाता है। क्या यह दोहरी मानसिकता का परिचय नहीं है।
मुस्लिम समाज में सुधार प्रक्रिया की जरूरत
वास्तविकता यह है कि किसी भी मजहब की परंपराओं और प्रथाओं का विकास तत्कालीन परिस्थितियों में होता है और उसी से प्रेरित भी होता है। परंतु कुछ नियम शाश्वत नहीं हो सकते। ऐसी प्रथाओं और परंपराओं की समयानुसार व्याख्या होनी चाहिए क्योंकि उसकी प्रासंगिकता समयानुसार ही हो सकती है। वरना वे अपना महत्व खो देते हैं। सभी मतों-पंथों ने समय को देखते हुए अपने में सुधार किया है, परन्तु मुसलमानों में सुधार की बात करना ही गुनाह-सा लगता है। लेकिन क्या ऐसी मानसिकता और उद्देश्य के साथ एक प्रगतिशील समाज का निर्माण हो सकता है? ऐसी मानसिकता से समाज को किस दिशा में ले जाया जा रहा है? भविष्य में आने वाले परिणाम अच्छे संकेत नहीं दे रहे।
सभी मतों-पंथों में सुधार की प्रक्रिया शुरू हुए कई वर्ष हो गए और यह प्रक्रिया चलती रहती है। लेकिन विडंबना यह है कि इस्लाम और मुसलमानों में सुधार की यह प्रक्रिया अभी तक शुरू ही नहीं हुई है। मुसलमानों में समाज सुधार तब तक नहीं होगा, जब तक कि सुधार की यह मांग समुदाय के अंदर से नहीं उठती।
दरअसल जब सामाजिक और राजनैतिक विचारों का सांप्रदायीकरण करके इसका अति सरलीकरण कर दिया जाता है, तब इसके गर्भ से रूढ़िवाद और कट्टरता का जन्म होता है । मुस्लिम मानसिकता और वर्तमान घटना इसी का परिणाम है।
भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी और कुछ नेता हिजाब के समर्थन में तर्क देते हुए मजहबी स्वंतत्रता की बात कर रहे हैं। ओवैसी और प्रियंका गांधी और लालू प्रसाद यादव ने बिना तर्क के हिजाब का समर्थन किया है। प्रियंका गांधी ने कहा है कि चाहे वह बिकनी हो, घूंघट हो, जीन्स हो या फिर हिजाब, यह महिला को तय करना है कि उसे क्या पहनना है। प्रियंका गांधी के इस बयान से प्रतीत होता है कि वे भारतीय मूल्यों का कभी भी प्रतिनिधित्व नहीं कर सकतीं क्योंकि उनका व्यक्तित्व पश्चिमी मूल्यों से प्रभावित है। ऐसी मानसिकता के लोग स्त्री सशक्तिकरण और समाज सुधार के लिए क्या प्रभावी कार्य करेंगे जो खुद एक बीमार मानसिकता से ग्रस्त हैं।
शिक्षा प्राथमिकता या मजहबी पोशाक
उडुपी कॉलेज के प्रिंसिपल रुद्रगौड़ा ने कहा था कि हमने इन छात्रों को हिजाब या बुर्का पहनकर कॉलेज कैंपस में घूमने की अनुमति दी है। हम सिर्फ यह कह रहे हैं कि जब कक्षा शुरू हो या व्याख्याता कक्षा में आए तो वह हिजाब उतार दें। परन्तु जिस तरह से मात्र एक हिजाब पहनने को विवाद का मुद्दा बनाकर इसका राजनीतिकरण किया जा रहा है, उससे सवाल खड़ा होता है कि विद्यार्थियों के लिए शिक्षा ग्रहण करना प्राथमिकता है या फिर मजहबी पोशाक पहन कर जाना? शैक्षणिक संस्थाओं का उद्देश्य शिक्षा द्वारा एक आदर्श और प्रगतिशील नागरिक के मूल्य परोसना है और मानव संसाधन का निर्माण करना है। शैक्षिणक संस्थाओं को मजहबी परंपराओं, प्रथाओं और कर्मकांड की प्रयोगशाला नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि मजहब का ताल्लुक व्यक्तिगत है और शिक्षा का ताल्लुक मजहब से परे, व्यापक, सामूहिक और सार्वजनिक है।
जब कोई व्यक्ति किसी धार्मिक स्थान पर जाता है तो उस समय वह धार्मिक ईकाई होता है, इसलिए उसे वहां के नियमों का पालन करना चाहिए। ठीक इसी तरह जब कोई शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने जाता है तो वह उस संस्थान का विद्यार्थी होता है, वहां की इकाई होता है, उसे वहां के नियमों का पालन करना चाहिए।
शैक्षणिक संस्थानों में मजहबी प्रथाओं का प्रयोग करने से, यह सभी मजहबों के लिए एक यंत्र का काम करेगा। यदि ऐसा हुआ तो फिर शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा की गुंजाइश कहां बची? फिर शैक्षणिक संस्थान मात्र मजहबी कर्मकांडों का यंत्र बनकर रह जाएंगे और यदि सभी जगह से इस तरह की मांगे उठेंगी तो फिर एक लोकतांत्रिक सेकुलर राष्ट्र का मतलब ही क्या रह जाएगा?
शैक्षिक संस्थानों को ड्रेसकोड का अधिकार
कानून और संविधान की बात करें तो, व्यक्ति क्या पहने क्या नहीं, इसका अधिकार संविधान का अनुच्छेद 19 (1) देता है। परंतु संविधान शैक्षणिक संस्थानों को यह अधिकार भी देता है कि वह अपना ड्रेस कोड रख सकते हैं जिसका पालन संस्थान में पढ़ने वाले प्रत्येक विद्यार्थी को करना पड़ेगा। किसी भी व्यक्ति को धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता का पालन करने का पूरा अधिकार है। परंतु संविधान में वर्णित स्वतंत्रता और अधिकार की अपनी सीमा और अपवाद भी है।
कर्नाटक शिक्षा कानून के नियम 11 के अनुसार, सरकारी संस्थान को विद्यार्थियों के लिए यूनिफॉर्म तय करने का अधिकार होगा। इसी के मद्देनजर राज्य सरकार ने यूनिफॉर्म को लेकर आदेश जारी किया था कि सरकारी शिक्षा संस्थाओं की कॉलेज डेवलपमेंट कमेटी यह फैसला ले सकती है कि यूनिफॉर्म कैसी होगी। निजी संस्थान यह फैसला कर सकते हैं कि कॉलेज में यूनिफार्म आवश्यक है या नहीं। मुंबई उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय इस पर कई निर्णय दे चुके हैं कि यूनिफार्म के साथ क्या पहना जा सकता है और क्या नहीं।
सामाजिक हित व्यक्तिगत हितों से ऊपर
केरल उच्च न्यायालय ने 2016 में एक मुस्लिम छात्र द्वारा हिजाब पहनने की अनुमति मांगने वाली याचिका को खारिज कर दिया था। निर्णय में कहा गया था कि सामूहिक अधिकारों को व्यक्तिगत अधिकारों पर प्राथमिकता दी जाएगी। इसी तरह 2018 में न्यायमूर्ति मुश्ताक ने निर्णय दिया था कि ‘यदि प्रबंधन को संस्थान के संचालन और प्रबंधन में पूरी छूट नहीं दी गई तो इससे उनके मौलिक अधिकार का हनन होगा। संवैधानिक अधिकारों का उद्देश्य दूसरे के अधिकारों का हनन करके एक अधिकार की रक्षा करना नहीं है। संविधान वास्तव में बिना किसी संघर्ष या प्राथमिकता के अपनी योजना के भीतर उन बहुल हितों को आत्मसात करने का इरादा रखता है। हालांकि जब हितों की प्राथमिकता हो तो व्यक्तिगत हितों के ऊपर व्यापक हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए। यही स्वाधीनता का सार है।’ उच्च न्यायालय के इस निर्णय को 100 से अधिक शिक्षण संस्थान चलाने वाली संस्था मुस्लिम एजुकेशन सोसाइटी (एमईएस) ने तुरंत लागू करते हुए अपने प्रॉस्पेक्टस में नकाब पर प्रतिबंध लगा दिया था। जाहिर है, अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे से संबंधित हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है। और व्यक्तिगत हित से ऊपर सामाजिक हित आवश्यक होता है क्योंकि व्यक्ति वास्तव में समुदाय की इकाई मात्र है।’
शैक्षिक संस्थानों में एकरूपता जरूरी
किसी भी शैक्षणिक संस्थान में यूनिफार्म निर्धारित करने का मकसद एकरूपता और समानता बनाए रखने और किसी भी तरह के भेदभाव के संभावना की गुंजाइश को खत्म करना होता है। ताकि सभी वर्गों के विद्यार्थियों में समानता और बंधुत्व का भाव उत्पन्न हो सके।
एक व्यक्ति अपने जीवन में कई पहचानें रखता है जैसे किसी भी व्यक्ति की धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय, जातीय और सामुदायिक पहचान होती है। परंतु कोई भी एक पहचान हर समय, हर जगह काम नहीं करती। इसलिए शैक्षणिक संस्थान में व्यक्ति की पहचान धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय,जातीय और सामुदायिक ना होकर सिर्फ एक ही पहचान हो सकती है और वह है शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थी के रूप में।
सभी छात्र-छात्राओं को स्कूल और कॉलेजों के समान नियमों का पालन करना चाहिए। क्योंकि हिजाब उन्हें विशेष पहचान और एक व्यक्तित्व के नजरिए से पेश करता है। इससे शैक्षिक संस्था में ‘हम’ और ‘वे’ की अवधारणा को बल मिलता है और विद्यार्थियों के बीच सामुदायिक वर्गीकरण होने की संभावना है। जबकि शैक्षिक संस्थान सामुदायिक वर्गीकरण के लिए नहीं बने बल्कि एक आदर्श नागरिक मूल्य स्थापित करने के लिए बने हैं। व्यक्ति का समाजीकरण करने वाले यही प्राथमिक संस्थान हैं जहां सामुदायिक और मजहबी वर्गीकरण को समाप्त किया सकता है और राष्ट्रीय पहचान के साथ उनको जोड़ा सकता है, जिससे राष्ट्रवाद की भावना को भी मजबूती मिलती है।
परन्तु बेहतर होता कि यह जिद हिजाब या पोशाक के बारे में न होकर राष्ट्र की प्रगति, मुख्यधारा से जुड़ने, और मूलभूत सुविधाओं के लिए होती, मजहबी मूल्य स्थापित करने के लिए नहीं। यह इस बात का संकेत है कि आज भी मुस्लिम समाज में मजहबी चेतना ने सामाजिक और राजनीतिक चेतना को उभरने नहीं दिया है। जबकि मुस्लिम समाज को इस आधुनिक और प्रगतिशील समाज में सामाजिक और राजनीतिक चेतना का वाहक होना चाहिए।
एक लोकतांत्रिक सेकुलर राज्य न पंथ समर्थक होता है न ही पंथों का विरोधी होता है। परंतु मौलिक अधिकारों की अपनी सीमा और अपवाद भी होते हैं। इसलिए राज्य उन कपड़ों और अभिव्यक्तियों को प्रतिबंधित कर सकता है जो नैतिकता, समानता, बंधुत्व, अखंडता और राज्य के हितों के विरोध में होता है। एक सेकुलर राज्य का लक्ष्य समानता, बंधुत्व और सेकुलर मूल्यों को बनाए रखना है। ऐसे समाज में मजहब के नाम पर अमानवीय, अतार्किक प्रथा और परंपराओं के लिए कोई स्थान नहीं है। ऐसी सूरत में राज्य हस्तक्षेप कर सकता है और करना भी चाहिए। भारतीय राज्य द्वारा तीन तलाक को गैर-कानूनी ठहराना उन्हीं प्रयासों का प्रतिफल है। इसलिए ऐसे मसले सार्वजनिक हितों को व्यक्तिगत हितों के ऊपर रखकर ही सुलझाए जा सकते हैं।
(लेखक दिल्ली विश्वविधालय के राजनीति विज्ञान विभाग में शोधार्थी हैं)
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