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हिजाब और चुनाव

हितेश शंकर by हितेश शंकर
Feb 20, 2022, 05:11 am IST
in भारत, सम्पादकीय, दिल्ली
प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

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हिजाब विमर्श ने इस देश में एक जैसे कानून, एक जैसी स्वतंत्रता और एक जैसे न्याय की आवाज को बल दिया है। न्याय, समानता, बंधुत्व—ये हमारे संविधान के भी स्तंभ हैं। महिलाओं को इनसे अलग करके नहीं देखा जा सकता। और वर्ग विशेष को मनमानी की छूट भी संविधान नहीं देता। सब जानते हैं कि मुद्दों से कट कर राजनीति भी नहीं होती।

वर्तमान में चल रहा हिजाब पर सामाजिक विमर्श कर्नाटक से शुरू हुआ है। यह सोशल मीडिया पर कई दिनों से ट्रेंड कर रहा है, जहां घंटे भर में हैशटैग बदल जाते हैं। इतने दिनों तक किसी मुद्दे का टिका रहना बताता है कि यह महज क्षणिक आवेश नहीं है, बल्कि सामाजिक विमर्श का एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि सुदूर दक्षिण में कर्नाटक के उडुपी से लेकर उत्तर के कश्मीर में अरुशा के हिजाब तक यह मुद्दा गरमा गया है। अरुशा को भी हिजाब न पहनने पर कट्टरपंथियों ने धमकी दी है। वहां इस विमर्श का एक अलग चेहरा दिखता है। होनहार अरुशा ने कहा कि मैं हिजाब की वजह से नहीं, अपनी आस्था की वजह से मुसलमान हूं। यह एक मुस्लिम महिला का उन्मादी जमात को करारा जवाब है।

इस विमर्श के फैलाव के साथ ही देश के पांच राज्यों, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव भी देखिए। न्यायालय में यह दलील भी आई कि, चूंकि चुनाव चल रहे हैं, इसलिए इस वक्त हिजाब विवाद में मीडिया, सोशल मीडिया पर टिप्पणियां रोकी जानी चाहिए। न्यायालय ने कहा कि इसके बारे में चुनाव आयोग कहेगा, तब देखेंगे। इसका अर्थ क्या है? क्या यह चुनावी मुद्दा हो सकता है? शैक्षिक संस्थानों में शिक्षा रहेगी या खास तरह की मजहबी पहचान वहां अपनी पकड़ बनाएगी, यह चुनावी मुद्दा किन लोगों को लग रहा है? यानी वे समझते हैं कि सामाजिक विमर्श विभाजनकारी राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखता है, और इसका समय गलत हो सकता है। अगर इसी कसौटी पर देखें तो एक तरफ महजबी पहचान को पोसने, शिक्षा संस्थानों को कट्टरता का अखाड़ा बनाने वाले, महिलाओं की स्वतंत्रता की बात करने परंतु वास्तव में उन्हें मध्युगीन सोच में जकड़े रखने वालों की जमात है। दूसरी तरफ पूरे समाज से आवाज उठ रही है कि ये चीजें नहीं चल सकतीं।

बात शिक्षा पर हो
आप गौर कीजिए कि कथित प्रगतिशील, सेकुलर और मुस्लिम समाज के ठेकेदार होने का दम भरने वालों तक सब हिजाब की बात कर रहे हैं परंतु आज शिक्षा की बात कोई नहीं कर रहा। ये वही लोग हैं जो संस्कृति, आस्था, तथ्य या साक्ष्यों की बात होने पर अयोध्या में श्रीराम मंदिर के स्थान पर शिक्षा संस्थान की बात करते थे। जो लोग तब ‘पूजा बाद में पढ़ाई पहले’ का दम भरते थे आज वे शिक्षा के स्थान पर मजहबी पहचान को बढ़ावा देने की बात कर रहे हैं।
तो, वास्तव में सच्चा प्रगतिशील कौन है? हमें श्रेय देना होगा इस समाज को जिसने यह विमर्श खड़ा किया है। हुड़दंगी किसी भी तरफ हो सकते हैं। हुड़दंगी तत्वों को एक तरफ रखें और देखें कि वास्तव में इस वक्त शिक्षा पर बात कौन कर रहा है। कौन कह रहा है कि हमारे बच्चों की कक्षाएं ठीक होनी चाहिए, स्कूलों में और सुविधाएं होनी चाहिए, कक्षाएं पूरी तरह चलनी चाहिए। कोविड काल की बंदिशों से शिक्षा के प्रभावित होने के बाद यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है। जब पूरी शिक्षा व्यवस्था चरमराई हुई है, उस वक्त कुछ लोग मजहबी पहचान को बढ़ावा देने पर तुले हैं। शिक्षा और सही प्रकार की शिक्षा की बात इसलिए भी होनी चाहिए कि इस क्षेत्र में इतिहास को विकृत करता हुआ वामपंथी एजेंडा है, पढ़ाई की आड़ में ईसाई कन्वर्जन को बढ़ावा देने का खेल है, इनसे मुक्त होकर सस्ती, सुलभ और भारतीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा की बात आज वक्त की जरूरत है।

कट्टरता की सीढ़ियां
दरअसल हिजाब, नकाब या बुर्का—ये समाज के एक वर्ग को कट्टरता की ओर धीरे-धीरे ले जाने वाली सीढ़ियां हैं। ईरानी क्रांति के पहले की तस्वीरें देखें जिसमें नकाब, हिजाब जैसी चीजें वहां के समाज में नहीं थीं। तुर्की में भी ऐसा ही था। मगर जब कट्टरता बढ़ती है तो वह महिलाओं को अपनी जकड़ में ले लेती है, उन्हें शिक्षा से दूर कर देती है। इसका बड़ा उदाहरण हमने अफगानिस्तान में तालिबान के आने पर देखा है। हम अपने समाज के एक वर्ग को उसकी महिलाओं को बंधक बनाकर रखने की आजादी कैसे दे सकते हैं? मध्यकालीन सोच एवं परिवेश, उससे जुड़े हुए दबाव, सामाजिक उलाहनों, मुहल्लों में छींटाकशी के कारण महिलाएं धूप और हवा से भी वंचित कर दी जाएंगी क्या? यह कैसी सोच है? सामाजिक जीवन में चेहरा आपकी पहचान होता है। अगर कुछ लोग महिला का चेहरा देख कर बेकाबू हो जाते हैं, तो उनके इलाज की जरूरत है। इसकी सजा महिलाओं को नहीं दी जा सकती।


हिजाब, नकाब या बुर्का—ये समाज के एक वर्ग को कट्टरता की ओर धीरे-धीरे ले जाने वाली सीढ़ियां हैं। ईरानी क्रांति के पहले की तस्वीरें देखें जिसमें नकाब, हिजाब जैसी चीजें वहां के समाज में नहीं थीं। तुर्की में भी ऐसा ही था। मगर जब कट्टरता बढ़ती है तो वह महिलाओं को अपनी जकड़ में ले लेती है, उन्हें शिक्षा से दूर कर देती है। इसका बड़ा उदाहरण हमने अफगानिस्तान में तालिबान के आने पर देखा है।


हिजाब का तर्क देने वाले बचकाने तर्क दे रहे हैं। वे कह रहे हैं कि कीमती चीज पर्दे में रखी जाती है। उनका तर्क है कि मोबाइल महंगा होता है तो आप उसमें स्क्रीन गार्ड लगाते हैं। यानी उनके लिए महिला केवल एक चीज है, भौतिक आनंद का महज एक खिलौना – जिसकी कीमत वे तय करेंगे। क्या ऐसी सोच के साथ कोई समाज आगे बढ़ सकता है?

मदरसों में यौनशोषण
भारतीय समाज विमर्शों का समाज है और आज उसमें यह खदबदाहट इसीलिए दिख रही है। मुस्लिम समाज में हिजाब से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मसले हैं जिन पर विचार होना चाहिए। इसमें एक है मदरसों में छात्रों के यौनशोषण की समस्या। गाहे-बगाहे सोशल मीडिया में बहस होती है, यूट्यूब पर इस पर अनगिनत वीडियो हैं, बार-बार घटनाएं सामने आती हैं, मुस्लिम छात्रों की शोषण की स्वीकारोक्तियां भी हैं। मगर ये घटनाएं उन्हें नहीं झकझोरतीं। पूरा समाज इस बात पर उद्वेलित दिखाई देता है कि महिला बंधक नहीं है, महिलाएं उनकी पकड़ से आजाद नहीं होनी चाहिए। शिक्षा के नाम पर जहां असल में मुस्लिम छात्रों का शोषण हो रहा है, उस मदरसा सिस्टम पर कोई बहस मुस्लिम समाज में खड़ी क्यों नहीं होती? मुस्लिम समाज में सबसे बड़ा विमर्श यह होना चाहिए कि मदरसों में छात्रों का यौनशोषण नहीं होने देंगे। परंतु राष्ट्रीय विमर्श तो छोड़िए, यह मुद्दा कभी मुस्लिम समाज के विमर्श का भी हिस्सा बना है क्या?

विमर्श से खड़ा हुआ ‘एक कानून’ का प्रश्न
इस बीच में, इन लोगों को चुनाव की चिंता है। मेरा मानना है कि हिजाब ने इस देश में एक जैसे कानून, एक जैसी स्वतंत्रता और एक जैसे न्याय की आवाज को बल दिया है। न्याय, समानता, बंधुत्व—ये हमारे संविधान के भी स्तंभ हैं। महिलाओं को इनसे अलग करके नहीं देखा जा सकता। और वर्ग विशेष को मनमानी की छूट भी संविधान नहीं देता। संविधान सर्वोपरि है। किसी धार्मिक ग्रंथ या किसी ऐसी परंपरा, जो सामाजिक, स्वास्थ्य एवं नैतिकता की दृष्टि से समाज को स्वीकार्य नहीं है, तर्क की कसौटी पर ठीक नहीं है, उससे कब तक चलेगा समाज? यह सब जानते हैं कि मुद्दों से कट कर राजनीति भी नहीं होती।

सामाजिक विमर्श आकार ले रहा है और ये कर्नाटक तक सीमित नहीं है। समान नागरिक संहिता की बात उत्तराखंड से उठी है। ट्विटर के बढ़ते ट्रेंड से यह समझना चाहिए कि यह केवल चुनाव आधारित राज्यों का मुद्दा नहीं है, बल्कि चुनाव से बाहर सारी जगहों पर फैल गया है। समाज में राजनीति को भी लोकमत और मंथन की दिशा में खींचने की ताकत होती है, आप उसका भूगोल तय नहीं कर सकते। जिस समय यह मुद्दा उठा है और इस समय भारत में तकनीकी जिस तरह पैठ बना चुकी है, इससे अब सामाजिक विमर्श के मुद्दे भविष्य की राजनीति की ही दिशा तय नहीं करेंगे बल्कि समाज की और भविष्य के भारत की दिशा तय करेंगे।

@hiteshshankar

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