छत्रपति शिवाजी के प्रादुर्भाव से पहले का समय निराशा से भरा था। अनेक पराक्रमी राजपूत राजा-महाराजा तथा शिवाजी के पूर्वज यवन शासकों के प्रति स्वामिभक्ति का भाव रखते हुए उनकी सेवा में लगे हुए थे। उत्तर में राजपूत आलमगीर औरंगजेब को अपना स्वामी मान बैठे थे और दक्षिण के सरदार बहमनी राज्य के खण्ड स्वामियों को अपना अन्नदाता। 'कोउ नृप होउ हमें का हानि' की भावना समाज में व्याप्त हो रही थी। हिन्दुत्व का पूरी तरह लोप हो चुका था। औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया। किन्तु राजा रामसिंह, जयसिंह, जसवन्त सिंह जैसे पराक्रमी राजपूत भी उसके विरुद्ध एक शब्द नहीं कह सके। ये औरंगजेब से यह भी नहीं पूछ सके क्या हिन्दू होना पाप है, अपराध है! स्वामी रामदास ने अपने 'आनंद वन भुवन' नामक ग्रंथ में उस समय की समस्त निराशामयी स्थिति का चित्रण किया है। उन्होंने हिमालय से कन्याकुमारी तक समस्त भारत का भ्रमण किया और देखा कि न तो कोई धर्म-कर्म कर सकता है, न ही कोई संध्या कर सकता है। उनका हृदय रो पड़ा।
शिवाजी का प्रादुर्भाव
ऐसे समय में 19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी दुर्ग में शिवाजी का जन्म हुआ। एक ओर स्वामी रामदास तथा दूसरी ओर माता जीजाबाई के विचारों ने उन्हें प्रभावित किया। जीजाबाई पर भी तत्कालीन वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ा होगा। जिस समय शिवाजी गर्भ में थे, जीजाबाई के पिता लखैजी यादव शिवाजी के पिता शाहजी पर आक्रमण कर रहे थे। गर्भवती जीजाबाई को साथ लेकर लड़ना शाहजी के लिए जब कठिन हो गया, तो उन्होंने जीजाबाई को शिवनेरी के दुर्ग में छोड़ दिया। क्या जीजाबाई के मन पर इस समस्त स्थिति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक नहीं था? यही कारण है कि उन्होंने अपने अंतर में निश्चय कर लिया कि मेरा पुत्र गुलाम नहीं बनेगा। उनका यह निश्चय उसी प्रकार था जिस प्रकार चाणक्य ने निश्चय किया था कि कोई आर्य गुलाम नहीं बनेगा।
शीश न झुक सका
मां से प्राप्त ये संस्कार गुरु दादा कोणदेव के प्रखर जीवन के संपर्क में आकर और अधिक विकसित हो उठे। वह पराक्रम का तो युग ही था। शिवाजी घोड़े की सवारी, शस्त्रास्त्र विद्या आदि में निपुण हो गए। लोगों को इकट्ठा करके वे आगे बढ़े। साथियों के अन्त:करण में उन्होंने क्यों मरना और किसलिए मरना-का भाव जाग्रत किया। इसी बीच उनके पिताजी शाहजी ने अहमद शाह की नौकरी छोड़कर आदिलशाह की नौकरी शुरू कर दी। आदिलशाह ने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। जब उसे यह पता चला कि शाहजी को शिवाजी नामक पुत्र है, तो उसने शिवाजी को दरबार में बुलाया। जीजाबाई और शिवाजी को उस बुलावे से अति वेदना हुई। शिवाजी ने माताजी से स्पष्ट रूप से कहा कि यह कभी संभव नहीं हो सकता कि मैं यवन शासक के समक्ष अपना शीश झुकाऊं। माताजी ने उत्तर दिया, ठीक है, जो चाहो सो करो। शाहजी का आदेश इसके विपरीत था। वे चाहते थे कि शिवाजी आदिलशाह के सम्मुख शीश झुकाए। किन्तु शिवाजी को यह आदेश मान्य न हो सका। वे गए, किन्तु उनका शीश आदिलशाह के सामने नहीं झुका।
विजय का क्रम आरंभ
इस प्रकार शिवाजी पर स्वतंत्र वृत्ति से युक्त संस्कारों का प्रभाव पड़ता रहा। उनमें हिन्दू राज्य संस्थापना का विचार दृढ़ होता गया। 1646-47 में उन्होंने कल्याण के निकटवर्ती मुल्तानगढ़ पर अधिकार कर लिया। छोटी—सी अवस्था में शिवाजी द्वारा किया गया यह कर्म कितना महान था। आज के 16 वर्ष के किशोरों से शिवाजी की तुलना तो करें। कहां शिवाजी और कहां आज के किशोर! शिवाजी का यह प्रथम पराक्रम परकीय शासकों के लिए प्रबल चुनौती थी, जिसमें भाव भरा था-भारत की भूमि पर विदेशी साम्राज्य रहने नहीं देंगे। इस चुनौती के सामने आदिलशाह हार मान गया। किंतु हार मानकर भी कभी-कभी अफजल खां जैसों को शिवाजी पर काबू पाने के लिए भेजता रहा। पर जो शिवाजी पर काबू पाने आए, वे स्वयं वापस लौटकर न जा सके। औरंगजेब ने भी शिवाजी को अधीन करने के लिए अपने मामा शायस्ता खां को दक्षिण भेजा, किन्तु उसे अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। इसके बाद दिलेर खां अपना पराक्रम प्रदर्शित करने पहुंचा। किंतु पुरन्दर के किले के भीषण संघर्ष को देखकर उसकी रूह कांप गई।
दिलेर के बाद औरंगजेब ने मिर्जा राजा जयसिंह को दक्षिण भेजा। शिवाजी व्यर्थ में दोनों ओर हिन्दुओं का रक्त बहता हुआ नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने जयसिंह के पास एक पत्र भेजा। इस पत्र में उन्होंने लिखा, ‘‘यदि जयसिंह अपने सामर्थ्य के बल पर आए होते तो मैं उनके लिए आंखें बिछा देता, किंतु वे तो औरंगजेब के सरदार होकर आए हैं। व्यर्थ में हम दोनों आपस में लड़कर क्यों मरें? क्यों न दोनों मिलकर स्वदेश की रक्षा करें?’’ मिर्जा जयसिंह भी थके हुए थे। उन्होंने शिवाजी से कहा, ‘‘अच्छा, अधीनता स्वीकार करने की बात जाने दो, कम से कम एक बार औरंगजेब के दरबार में हो ही आओ।’’ सुरक्षा का पूरा—पूरा विश्वास प्राप्त करके शिवाजी आगरा पहुंचे। आगरा जाने से पूर्व शिवाजी ने विचार किया था कि महाराजा जयसिंह जैसे प्रभावी व्यक्ति को भारत का सम्राट बनाकर औरंगजेब की आलमगीरी के प्रभाव को समाप्त किया जाए। शिवाजी के आगमन का समाचार पाकर औरंगजेब ने बड़े भारी दरबार का आयोजन किया। शिवाजी का आसन द्वार के पास ही रखा गया था। जैसे ही शिवाजी दरबार में पहुंचे और उन्होंने अपना स्थान देखा, तो उनकी त्योरियां बदल गर्इं। आंखों से आग बरसने लगी। कड़क कर मिर्जा जयसिंह से उन्होंने पूछा, क्या मेरे लिए यही स्थान रखा गया है? शिवाजी के हाव-भाव देखते ही औरंगजेब की हालत खराब हो गई। तुरंत शिवाजी को बंदी बनाए जाने की आज्ञा देते हुए वह गुसलखाने में घुस गया। शिवाजी की आंखों में कैसा भाव रहा होगा, आज उसकी कल्पना मात्र की जा सकती है।
शिवाजी का संघर्ष पूरी तरह एक राष्ट्रीय संघर्ष था। उनके सामने आराध्य देव के नाम पर किसी क्षेत्र विशेष अथवा जाति विशेष की मूर्ति नहीं थी, बल्कि संपूर्ण भारत की अति तेजस्वी प्रतिमा ही जगमगा रही थी। हिन्दू राष्ट्र की पुनर्प्रतिष्ठा ही उनका लक्ष्य था। हिन्दू राष्ट्र की आकांक्षा के कारण ही उन्होंने और उनके उत्तराधिकारियों ने प्रयाग, काशी, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, पुष्कर तथा गढ़Þमुक्तेश्वर आदि तीर्थस्थानों को मुस्लिम आधिपत्य से मुक्त किया।
राज्याभिषेक
यद्यपि शिवाजी के आगरा जाने से पूर्व ऐसे गीत गाए जाने लगे थे जिनमें शिवाजी को साक्षात् शंकर का अवतार वर्णित किया जाता था, तथापि उनके बंदी बनने के समाचार ने सर्वत्र निराशा का वातावरण पैदा कर दिया। सब लोग दिल्ली की ओर निहारने लगे। शिवाजी के महान प्रयासों को असफल हुआ देखकर हिन्दुओं के दिल बैठने लगे। शिवाजी के रायगढ़ लौटने के पश्चात् भी इस स्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं हो सका। लोग शिवाजी से भेंट करने आते किंतु भविष्य के संबंध में निराशापूर्ण बातें करते। इस निराशा को दूर भगाने के लिए ही शिवाजी ने अपने राज्याभिषेक का आयोजन किया। इस संबंध में एक प्रश्न और उपस्थित होता है।
1646 में ही विजय का श्रीगणेश करने वाले शिवाजी ने 1674 में राज्याभिषेक क्यों कराया? इसका उत्तर यही है कि वे इस समय तक किसी ऐसे व्यक्ति को खोजते रहे जो अपने अतुलित प्रभाव के कारण समस्त समाज का आकर्षण बिन्दु बनते हुए विदेशी शासन को चुनौती दे सकता। किंतु इतने दिनों के प्रयास के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि औरंगजेब की शक्ति से भयभीत होने के कारण कोई भी राजा, महाराजा अथवा सरदार इस भार को उठाने के लिए तैयार नहीं था। इसी कारण अंत में उन्होंने स्वयं इस भार को अपने कंधों पर लिया। ज्येष्ठ सुदी त्रयोदशी को उनका राजतिलक हुआ। उनकी मुद्रा पर संस्कृत का एक श्लोक अंकित हुआ जिसका भाव था- जिस प्रकार प्रतिपदा की चन्द्रकोर छोटी होते हुए भी विश्ववंदनीय होती है, वर्धनी होती है, पूर्णिमा के चन्द्र्रमा में परिणत होने वाली होती है, उसी प्रकार यह राज्य भी विश्ववंदनीय है और इस भाव का प्रसार करने के लिए यह मुद्र्रा है। कवि भूषण ने कहा है कि शिवाजी ने हिन्दुत्व, स्मृति, पुराण तथा वेदों की रक्षा की और धर्म का विनाश करने वाले सब अत्याचारियों का सफाया हो गया। वे गुनगुना उठे-
काशी जी की कला जाती, मथुरा मसीह होत।
शिवाजी न होत तो सुन्नत होत सबकी।
केवल योद्धा नहीं, निर्माता भी
इस व्यापक राष्ट्रीय दृष्टि का परिचय उन्होंने जीवन के सभी क्षेत्रों में दिया। उस समय मुगल राज सत्ता द्वारा प्रचलित विदेशी राज्य प्रणाली को उन्होंने बदल डाला। भारतीय पद्धति के अनुसार राज्य शासन के प्रमुख आठ विभाग कर आठ आमात्यों को उन्हें सौंपा। उनकी यह अष्टप्रधान अमात्य संस्था प्राचीन भारतीय पद्धति की याद दिलाती है। उन्होंने एक राज-भाषा कोष का निर्माण कराकर उसके द्वारा भाषा शुद्धि का प्रयत्न भी किया। सैन्य व्यवस्था, नौ सेना दल और समुद्र्री बेड़े में भी उन्होंने विदेशियों की नकल नहीं की।
महान समाज सुधारक
गुलामी के कालखंड में समाज में घिर आई खराबियों को निकालने में भी उन्होंने दक्षता और दृढ़ता का परिचय दिया। समुद्र्र यात्रा निषेध जैसी रूढ़ियों को उन्होंने हटाया। हिन्दू समाज से पतित हुए लोगों को अपने धर्म में वापस लेने का कार्य स्वयं अपने हाथों से संपन्न किया। इतना ही नहीं, उनके साथ अपने पारिवारिक संबंध जोड़कर उन्हें समाज में सम्मान का स्थान प्राप्त करवाया। जो लोग धोखे अथवा डर से अथवा छल-प्रलोभन द्वारा अपने धर्म से च्युत होकर मुसलमान बन चुके थे, उनके लिए अपने समाज में वापसी का मार्ग खोज निकाला।
सिद्ध महापुरुष
नि:संदेह विगत एक हजार वर्ष से भारत पर होने वाले विदेशी आक्रमणों और उसके कारण निर्मित हुई दासता में पिसने वाली भारतीय जनता को अपमान, यातना और निराशा भरे जीवन से मुक्ति दिलाने वाले महापुरुष के रूप में छत्रपति शिवाजी ने गुलामी के कालखंड की दारूण परंपरा को अपने पराक्रम से समाप्त कर दिया। संपूर्ण भारत में व्याप्त विशाल मुगल सत्ता को जड़ से हिला डाला और स्वतंत्रता की पुन:स्थापना की। छत्रपति शिवाजी महाराज के कार्य दिव्य, विलक्षण और असामान्य कोटि में आते हैं, उनका साहस, पराक्रम, उनकी कूटनीतिक दक्षता, रण चातुर्य, तीक्ष्णबुद्धि और संगठन कुशलता सभी कुछ अद्वितीय थी। अपनी 50 वर्ष की आयु में इस महापुरुष ने इतिहास की दिशा मोड़ दी,हिन्दुओं में आत्मविश्वास और स्वाभिमान जगा दिया। शिवाजी ने अत्यंत साधारण घराने में उत्पन्न होकर भी स्वतंत्रता के लिए जो कुछ सफल प्रयास किए, उसके कारण समाज में आत्मविश्वास जगता रहा है। उन्होंने अपनी छोटी सी जागीर में स्वराज्य स्थापना का मंत्र फूंका। स्वयं अपना उदाहरण उपस्थित कर अपने चारों ओर के समाज के अति सामान्य जन में पौरुष, पराक्रम तथा विजय की इच्छा निर्मित की। हिन्दवी स्वराज्य का उनका कार्य संपूर्ण भारतवर्ष के लिए था। उनका संघर्ष पूरी तरह एक राष्ट्रीय संघर्ष था। उनके सामने आराध्य देव के नाम पर किसी क्षेत्र विशेष अथवा जाति विशेष की मूर्ति नहीं थी, बल्कि संपूर्ण भारत की अति तेजस्वी प्रतिमा ही जगमगा रही थी। हिन्दू राष्ट्र की पुनर्प्रतिष्ठा ही उनका लक्ष्य था। हिन्दू राष्ट्र की आकांक्षा के कारण ही उन्होंने और उनके उत्तराधिकारियों ने प्रयाग, काशी, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, पुष्कर तथा गढमुक्तेश्वर आदि तीर्थस्थानों को मुस्लिम आधिपत्य से मुक्त किया।
धर्म के लिए फकीरी धारण की
जीवन का हर क्षण युद्ध में लगा होने के बाद भी वे ईशचिन्तन में लीन रहते थे। इतनी व्यस्तता के बीच भी वे संत शिरोमणि रामदास, तुकाराम, मोरया गोस्वामी आदि साधु—संतों के चरणों में बैठने का समय निकाल पाते थे। शिवाजी महाराज का एक अति प्रसिद्ध वाक्य है- ‘आम्हीं धर्माकरता फकीरों धेतखी आहे।’ अर्थात् धर्मरक्षण के लिए हमने संन्यास ग्रहण किया है। इसी एक वाक्य से जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। देश, धर्म, भूमि के हितार्थ सर्वस्व बलिदान करने में जो अलौकिक आनंद होता है उसका अनुभव उन्होंने संपूर्ण राष्ट्र को कराया। इसीलिए पूर्ण विरागी शिवाजी ने अपने द्वार पर जय जय रघुवीर समर्थ का घोष करते हुए आने वाले समर्थ रामदास स्वामी की झोली में संपूर्ण राज्य अर्पित कर दिया और संन्यास की याचना की। और बाद में उसी धर्म संस्थापना कार्य के लिए प्रतिनिधि के रूप में सेवाभाव से राज्य संचालन का गुरुतर भार संभाला।
शिवाजी महाराज का आदर्श ही हमारे समाज को स्वत्व का साक्षात्कार कराकर बलशाली राष्ट्र बना सकता है।
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