आज से लगभग साढ़े छह सौ वर्ष पूर्व 1398 की माघ पूर्णिमा को काशी के मड़ुआडीह ग्राम में संतोख दास और कर्मा देवी के पुत्र रूप में जन्में संत रविदास की गणना देश में मतांतरण के खिलाफ अलख जगाने वाले भक्तिकालीन कवियों में प्रमुखता से होती है। तत्कालीन समाज में विदेशी मुस्लिम शासक सिकंदर लोदी के क्रूर अत्याचारों व आतंक से दुखी हो वे उस आततायी मुस्लिम शासक के प्रतिकार को उठ खड़े हुए और जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ स्वर मुखर किया। मध्ययुग के दिशाभ्रमित समाज को समाज को उचित दिशा देने वाले इस महान संत का समूचा जीवन तमाम ऐसे अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्य को सच्चा जीवन-मार्ग अपनाने को प्रेरित करता है।
यह वह समय था जब दिल्ली के शासक सिकंदर लोदी के राज में हिन्दू धर्मावलम्बियों का जीना दूभर था। तीर्थयात्रा, पूजापाठ, शवदाह, हिन्दू रीति से विवाह आदि पर नाजायज तरीके से जजिया कर लगाये जाने से देश का हिन्दू समाज त्राहि-त्राहि कर रहा था। हिन्दू परंपराओं के पालन पर कर वसूली और मुस्लिम मत मानने वालों को छूट देने के पीछे एकमात्र भाव यही था कि हिन्दू धर्मावलम्बी तंग आकर इस्लाम स्वीकार कर लें। हिंदु जनता को धन का प्रलोभन देकर और डरा-धमका कर धर्म परिवर्तन आम बात थी। कहा जाता है कि इन विषम परिस्थितियों से मोर्चा लेने के लिए तदयुगीन भारत के लोकप्रिय भारतीय संत स्वामी रामानंद ने हिन्दुओं के खो रहे स्वाभिमान को पुनर्जागृत करने के लिये विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि संतों को जोड़कर जिस द्वादश भगवत शिष्य मण्डली का गठन किया था; उसके सूत्रधार और प्रमुख संत रविदास ही थे। अपने सद्गुरु रामानंद जी की प्रेरणा व उनके आदेश से संत रविदास ने स्वधर्म के रक्षण के लिए उस कठिन संघर्ष के दौर में मुस्लिम शासकों को खुली चुनौती देते हुए सम्पूर्ण भारत में भ्रमण कर अपने प्रखर जन जागरण द्वारा न केवल धर्मांतरण को रोका बल्कि घरवापसी का कार्यक्रम भी जोर शोर से चलाया। अपनी ‘’रैदास रामायण’’ में वे लिखते हैं –
“वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान
फिर क्यों छोड़ इसे पढ लूं झूठ कुरआन
वेद धर्म छोडूं नहीं कोसिस करो हजार
तिल-तिल काटो चाहि, गला काटो कटार”
कहा जाता है कि सिकंदर लोदी ने सदन नाम के एक कसाई को संत रविदास के पास मुस्लिम धर्म अपनाने का सन्देश लेकर भेजा था किन्तु वह सदन कसाई उस महान संत के व्यक्तित्व व आचरण से इतना प्रभावित हुआ कि वह वैष्णव पंथ स्वीकार कर रामदास के नाम से सदा सदा के लिए विष्णु भक्ति में लीन हो गया। जरा विचार कीजिये कि यदि उस समय संत सिकंदर लोदी के लालच में फंस जाते या उससे भयभीत हो जाते तो इस देश के हिन्दू समाज को कितनी बड़ी ऐतिहासिक हानि होती किन्तु पूज्य संत रविदास को कोटि कोटि नमन कि वे जरा भी टस से मस न हुए।
संत रविदास को भारतीय सामाजिक एकता का प्रतिनिधि संत यूं ही नहीं माना जाता। आतातायी मुस्लिम शासकों को चुनौती देकर देश की निर्धन, अशिक्षित और पिछड़ी जातियों में स्वधर्म के प्रति सम्मान का भाव जागृत करने का जो स्तुत्य प्रयास उन्होंने किया, उसी का सुफल है कि आज भी इन जातियों में मुस्लिम मतांतरण का प्रतिशत बहुत कम देखने को मिलता है। कृष्ण की परम अनुरागी भक्त मीराबाई को देश में कौन नहीं जानता! मीराबाई के स्वरचित पदों में संत रविदास का स्मरण गुरु रूप में मिलता है–
‘’गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी। सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।‘’
अपनी अनूठी रचनाधर्मिता के आधार पर उन्होंने जिस समतामूलक समाज की परिकल्पना की; वह अपने आप में क्रान्तिकारी है। वे सामाजिक समानता तथा समरसता के लिए सतत जनजागरण करते रहे। संत कबीर के समसामयिक व उनके गुरुभाई रविदास ने "जात-पात पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई" की उक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ कर दिखाया।
संत रैदास जैसे भक्तिकालीन संतों ने अपनी अनुपम शिक्षाओं के द्वारा जीवन जीने का जो मार्ग दिखाया, उसी पर चलते हुए हमने अपनी आधुनिक संवैधानिक व्यवस्थाओं को कायम किया है। हमारी सामाजिक व्यवस्था मूलत: मध्यकालीन भक्ति आंदोलन से उपजे दया, प्रेम, करुणा, क्षमा, धैर्य, सौहार्द, समानता, विश्वबंधुत्व और सत्यशीलता जैसे चारित्रिक गुणों पर ही आधारित है। उनकी चाहत एक ऐसे समाज की थी जिसमें राग, द्वेष, ईर्ष्या, दुख व कुटिलता का कोई स्थान न हो। उन्होंने घृणा और सामाजिक प्रताड़ना के बीच टकराहट और भेदभाव मिटाकर प्रेम तथा एकता का संदेश दिया।वे ऐसे आदर्श समाज की परिकल्पना करते हैं जिसमें धर्म के नाम पर बाह्माडम्बर व धार्मिक कुरीतियां और जाति-पाति का भेदभाव न हो –
जात पात के फेर महि, उरिझ गई सब लोग
मनुषता को खात है, रविदास जात का रोग।।
संत रैदास के समय में समाज में आर्थिक विषमता काफी बढ़ी हुई थी। इस समस्या के निवारण के लिए उन्होंने जिस तरह श्रम को महत्व देकर आत्मनिर्भरता की बात कही, वह उनकी दूरदर्शी दृष्टि का परिचायक है। गरीबी, बेकारी और बदहाली से मुक्ति के लिए उनका श्रम व स्वावलंबन का दर्शन आज भी अत्यन्त कारगर है। उनको यह बात बखूबी मालूम थी कि सामाजिक एकता तभी आ सकती है जब सभी के पास अपना घर हो, पहनने के लिये कपड़े हो तथा खाने के लिए पर्याप्त अन्न होगा –
ऐसा चाहूँ राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सब सम बसे, रविदास रहै प्रसन्न।।
रैदास जी के इसी श्रम के दर्शन को समझकर महात्मा गांधी ने अपने "रामराज्य" लिए पारम्परिक हथकरधा तथा कुटीर उद्योगों को महत्व दिया था। भारत की यह महान आध्यात्मिक विभूति कहती है, " रे मन तू अमृत देश को चल जहां न मौत है न शोक है और न कोई क्लेश।" अपनी क्रान्तिकारी वैचारिक अवधारणा, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना तथा युगबोध की मार्मिक अभिव्यक्ति के कारण उनका धर्म-दर्शन आज भी पूर्ण प्रासंगिक है।
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