समाज में परिश्रमी और लगन से कार्य करने वालों की कोई कमी न तो आज है और न ही पहले कभी रही है। हां, इतना अवश्य है कि कुछ लोग अपने हिस्से का काम न करके उसे दूसरों पर टाल देते हैं और जब उनका काम नहीं होता है, तो ऐसे लोग ही कहने लगते हैं कि लोग काम ही नहीं करना चाहते। ऐसे लोगों के लिए संत रविदास कहते हैं, ‘‘अपने जीविका-कर्म के प्रति हीनता का भाव न लाते हुए कर्म करो, क्योंकि यह भगवान के समान पूजनीय है।’’
ऐसे आशावादी और कर्म की ओर प्रेरित करने वाले संत रविदास का जन्म काशी में एक चर्मकार परिवार में वि.सं.1433 में माघ महीने की पूर्णिमा को हुआ था। रविवार के दिन जन्म होने के कारण उन्हें रविदास कहा गया। ऐसे उन्हें रोईदास, रैदास, रहदास आदि नामों से भी जाना जाता है।
जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।
एक बार एक शिष्य ने उन्हें गंगा स्नान करने के लिए साथ चलने को कहा। इस पर उन्होंने कहा,‘‘एक व्यक्ति को मैंने वचन दिया है कि आज ही उन्हें जूते मिल जाएंगे। यदि गंगा स्नान के लिए गया तो मेरा वचन भंग हो जाएगा। यह भी होगा कि मेरा मन यहीं लगा रहेगा। इस कारण मुझे गंगा स्नान का लाभ नहीं मिलेगा।’’ इसके साथ ही उन्होंने कहा,‘‘मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो, वही काम करना उचित है। मन सही है तो एक कठौते के जल में ही गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।’’ इसके बाद से ही कहावत प्रचलित हो गई-‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’
उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब भारत में मुगलों का शासन था और चारों ओर गरीबी, भ्रष्टाचार और अशिक्षा का बोलबाला था। उन दिनों स्वामी रामानंद जी काशी में पंच गंगाघाट पर रहते थे। रविदास ने उन्हीं को अपना गुरु बना लिया। स्वामी रामानंद ने उन्हें राम की भक्ति करने की आज्ञा दी। गुरुजी के सान्निध्य में ही उन्होंने योग साधना और ईश्वरीय साक्षात्कार किया। इसके साथ ही उन्होंने वेद, पुराण आदि का ज्ञान प्राप्त किया। इस ज्ञान के कारण ही वे एक कर्मयोगी बने।
संत रविदास जी की महानता और भक्ति भावना
के प्रमाण उनके जीवन की अनेक घटनाओं में
मिलते हैं। एक बार सदना पीर ने संत रविदास
के साथ इस इच्छा से शास्त्रार्थ किया कि वे हार
जाएंगे तो उन्हें मुसलमान बना लिया जाएगा।
संत रविदास जी की महानता और भक्ति भावना के प्रमाण उनके जीवन की अनेक घटनाओं में मिलते हैं। एक बार सदना पीर ने संत रविदास के साथ इस इच्छा से शास्त्रार्थ किया कि वे हार जाएंगे तो उन्हें मुसलमान बना लिया जाएगा। इसके बाद उनके लाखों शिष्यों को मुसलमान बनाने में कड़ी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन सदना का दाव उल्टा पड़ गया। वह संत रविदास के विचारों से इतना प्रभावित हुआ कि खुद ही हिंदू बन गया।
संत रविदास ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भारत भ्रमण करके समाज को उत्थान की नई दिशा दी। वे सामाजिक समरसता के प्रतीक महान संत थे। वे नशे का घोर विरोधी थे।
चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या थीं। आज भी चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी है। मान्यता है कि वे वहीं से स्वर्गारोहण कर गए।
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