इस बार विधानसभा चुनाव पंजाब के राजनीतिक इतिहास में अनोखा साबित होने जा रहा है। यह पहला अवसर है जब चुनाव बहुकोणीय होते दिखाई दे रहे हैं। एक ओर सत्ताधारी कांग्रेस है तो दूसरी ओर उसे सत्ता की दौड़ से बाहर कर अपना दबदबा कायम करने के लिए भाजपा, अकाली दल (बादल)-बसपा गठजोड़ और आम आदमी पार्टी पूरा जोर लगा रही है। वहीं, किसान संगठनों का संयुक्त समाज मोर्चा जीतने लिए कम, बल्कि दूसरों का खेल बिगाड़ने के लिए अधिक जोर लगाता दिख रहा है। चुनावों में अगर कांग्रेस हारती है तो उसका गिरता आभा क्षेत्र और कमजोर होगी। वहीं, आआपा अगर इस बार सफल नहीं हुई तो पंजाब विजय के उसके सपने पर लगभग पूर्ण विराम लग जाएगा और उसकी राष्ट्रीय पार्टी बनने की आकांक्षा भी धरी रह जाएगी। यही स्थिति अकाली दल (बादल) की है। अगर वह पराजित होता है तो प्रदेश की राजनीति में उसके हाशिए पर जाने का खतरा बढ़ जाएगा।
भाजपा का नया प्रयोग
पंजाब की राजनीति में भाजपा पहली बार गठबंधन की अगुआई करती हुई चुनाव लड़ रही है। उसके लिए खोने को कुछ भी नहीं है, लेकिन जीतने को पूरा पंजाब है। अगर वह जीतने में सफल रही तो यह उसके लिए नई शुरुआत होगी। अगर मुद्दों की बात करें तो राज्य में नशा, भ्रष्टाचार, विकास, आतंकवाद व सिख विरोधी दंगे, हिंदू विरोध, सुरक्षा, कृषि व पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दे हैं। लेकिन अभी तक चुनाव प्रचार केवल निजी आरोप-प्रत्यारोपों पर ही केंद्रित थे, लेकिन 8 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वर्चुअल रैली के बाद आतंकवाद, सिख विरोधी दंगे, नशा, भ्रष्टाचार, किसानों व देश की सुरक्षा आदि से जुड़े विषय चुनावी मुद्दे बनते दिख रहे हैं। इसमें अतिश्योक्ति नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी की रैली ने एक तरह से राज्य का चुनावी एजेंडा तय कर दिया है।
इन सीटों पर मुकाबला जोरदारपंजाब की कुछ सीटों पर मुकाबला जबरदस्त है। यहां कई दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर है। अमृतसर पूर्वी सीट: सिद्धू बनाम मजीठियानवजोत सिंह सिद्धू अमृतसर पूर्वी सीट से चुनाव लड़ रहे हैं, जहां अकाली दल बादल के विकम्रजीत सिंह मजीठिया और भाजपा के डॉ. जगमोहन सिंह राजू से उन्हें कड़ी चुनौती मिल रही है। कांग्रेस के खिलाड़ी अपनी ही क्रीज में कैद नजर आ रहे हैं। अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलते रहे सिद्धू की हालत ऐसी हो गई है कि पार्टी के कार्यकर्ता भी उन्हें कम ही पसंद कर रहे हैं। सिद्धू जब भाजपा में थे तो अमृतसर सीट से सांसद बने थे। बाद में 2014 लोकसभा चुनावों में भाजपा ने दिवंगत अरुण जेटली को टिकट दिया तो उस समय कांग्रेस के टिकट पर कैप्टन अमरिंदर सिंह चुनाव लड़़े और जीते भी। अमृतसर इलाके की कांग्रेस में ही कैप्टन के अच्छे संबंध हैं और यही संबंध सिद्धू की राह में कांटे बने हुए हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बिना हताश सिद्धू व उनकी पत्नी नवजोत कौर सिद्धू अकेले ही प्रचार में लगे हैं। इसी हताशा का परिणाम है कि उनकी पत्नी को कहना पड़ा कि राजनीति उनके लिए घाटे का सौदा साबित हुई है, अगर वे इसमें सफल नहीं हुए तो वापस अपने पुराने पेशे में लौट जाएंगे। अंदरखाने सुनने को मिल रहा है कि कांग्रेस खुद सिद्धू के गले में विजयी माला देखना नहीं चाहती। अबोहर: मजा चखाने को तैयार मतदाताहरियाणा, राजस्थान और पाकिस्तान की सीमा से सटा दक्षिण पंजाब का अबोहर भाजपा प्रत्याशी अरुण नारंग व कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष चौ. सुनील कुमार जाखड़ के चलते चर्चा में है। अरुण नारंग भाजपा के वही विधायक हैं जो मलोट शहर में किसान आंदोलन के दौरान असामाजिक तत्वों की गुंडागर्दी के शिकार हुए। नारंग अरोड़वंशी समाज से संबंधित हैं और उनके साथ हुए दुर्व्यवहार को अरोड़वंशी समाज अपना अपमान मान रहा है और किसान आंदोलन का समर्थन करने वाली कांग्रेस, आआपा और अकाली दल से बदला लेने के लालायित दिख रहा है। अरुण नारंग का मुकाबला कांग्रेस प्रत्याशी संदीप जाखड़ से है जो चौधरी सुनील कुमार जाखड़ के भतीजे व पूर्व मंत्री सज्जन कुमार जाखड़ के बेटे हैं। हिंदू होने के चलते मुख्यमंत्री पद से वंचित रहे जाखड़ सक्रिय राजनीति से लगभग संन्यास ले चुके हैं। अबोहर से ही पंजाब में कांग्रेस की हिंदू विरोधी छवि बनी और आज यह मुद्दा धीरे-धीरे एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। यहां से कांग्रेस हारती भी है तो हिंदू कांग्रेसियों को इसका मलाल न होगा। |
कथित किसान आंदोलन के चलते एक समय पंजाब में भाजपा का नाम लेना भी अपराध माना जाने लगा था,लेकिन उसने भरपूर संख्या में किसानों, पंथक नेताओं, बुद्धिजीवियों, सेवानिवृत अधिकारियों को मैदान में उतारा है। शुरू में प्रचार में पिछड़ती दिखने वाली भाजपा व सहयोगियों का प्रचार अभियान जोर पकड़ता दिख रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह पहले लोकसभा व राज्य सभा और बाद में वर्चुअल रैली में तथ्यात्मक तरीके से मुद्दे उठाए उसने राज्य की राजनीति की दिशा ही बदल दी। कांग्रेस पृष्ठभूमि से आए पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस और पंथक नेता सुखदेव सिंह ढींढसा के अकाली दल (संयुक्त) के साथ गठजोड़ को भाजपा का नया प्रयोग कहा जा सकता है। भाजपा जहां अपने दम पर पहली बार चुनाव लड़ रही है, वहीं उसके दोनों सहयोगी पुरानी पार्टी से अलग होकर अपनी नई पहचान बनाने की कवायद में हैं। खास बात यह है कि इनके अधिकतर उम्मीदवार नए, ऊर्जावान व बेदाग चेहरे हैं और उनकी इसी छवि का लाभ गठजोड़ को मिलता दिख रहा है। गठजोड़ राज्य की राजनीति में जो कुछ भी हासिल करेगा, वह भविष्य की राजनीति का आधार बनेगा और प्रदेश की राजनीति को बदलेगा।
कांग्रेस में अंदरूनी घमासान
चुनाव नजदीक आते ही सत्ताधारी दल कांग्रेस में पहले से चल रही आपसी कलह और बढ़ हो गई है। राहुल गांधी द्वारा चरणजीत सिंह चन्नी पर दोबारा दांव लगाने के बाद अंदरूनी संषर्घ और तेज होता दिख रहा है। कहने को तो मुख्यमंत्री पद के दूसरे दावेदार और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने पार्टी हाईकमान के इस फैसले को स्वीकार कर लिया, लेकिन अगले ही दिन उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर सिद्धू ने यह कहते हुए तहलका मचा दिया कि उनके पति सिद्धू मुख्यमंत्री पद के योग्य उम्मीदवार हैं, लेकिन कुछ लोगों ने राहुल गांधी को भ्रमित कर दिया। बहरहाल, पार्टी नेतृत्व को चन्नी के दलित चेहरे पर विश्वास है और पार्टी के राष्ट्रीय नेता भी यह दावा कर चुके हैं कि चन्नी का लाभ उन्हें पूरे देश में मिलेगा। लेकिन चन्नी अपने भांजे के चलते भ्रष्टाचार के आरोपों का शिकार हो रहे हैं। ऊपर से सिख विरोधी दंगेऔर सूबे में उठ रहे आतंकवाद के मुद्दे कांग्रेस की नींद उड़ा सकते हैं। पार्टी की हिंदू विरोधी छवि भी अच्छा खासा नुकसान पहुंचा सकती है।
आआपा का दोहरा चेहरा
चुनावों की तारीख घोषित होने से कई महीने पहले ही आआपा ने सूबे में चुनाव प्रचार करना शुरू कर दिया था, लेकिन मतदान की तारीख करीब आते-आते मुद्दों के अभाव में वह हांफती दिखाई देने लगी है। पार्टी ने संगरूर के अपने सांसद भगवंत सिंह मान को अपना मुख्यमंत्री चेहरा घोषित किया है, लेकिन उन पर लोकसभा में शराब पी कर जाने के लगे आरोपों और नशे की हालत में गिरे होने के प्रकाशित चित्रों ने पार्टी की स्थिति को हास्यास्पद बना दिया है। पार्टी के नेता व उम्मीदवार पंजाब में नशे पर रोक लगाने की बात करते हैं तो विरोधी उन्हें भगवंत मान की इन्ही करतूतों की याद दिलवाना नहीं भूलते। नशे को लेकर पंजाब सरकार के साथ-साथ आआपा भी रक्षात्मक मुद्रा में है। नशाखोरी के मुद्दे पर भी आआपा का दोहरा चेहरा दिखाई देता है। एक ओर आआपा दिल्ली में शराब की नदियां बहा कर युवाओं तक नशा पहुंचा रही है, वहीं पंजाब में वह नशे पर रोक लगाने का दम भरती है। फिलहाल आआपा नेताओं को केवल मीडिया द्वारा गढ़े गए नैरेटिव का ही सहारा मिलता दिख रहा है, जिसमें उसकी चर्चा अधिक है, परन्तु वह धरातल पर कम ही दिखाई दे रही है। आआपा नेता जोर-शोर से प्रचारित कर रहे हैं कि कांग्रेस हिंदू विरोधी है। इसलिए उसने अपने पूर्व प्रदेश अध्यक्ष चौधरी सुनील कुमार जाखड़ को मुख्यमंत्री नहीं बनाया, लेकिन सच्चाई यह है कि आआपा भी कम नहीं है। उसने भी सिख चेहरे पर ही दांव लगाया है।
बठिंडा में सत्ता विरोधी लहरमालवा के महानगर कहे जाने वाले बठिंडा में राज्य के वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल सत्ता विरोधी लहर में घिरे लग रहे हैं। उन्हें कैप्टन के नेतृत्व वाली पंजाब लोक कांग्रेस व भाजपा के प्रत्याशी राज नंबरदार व आआपा के जगरूप गिल कड़ी टक्कर दे रहे हैं। यहां पास ही तलवंडी साबो से कांग्रेस के बागी उम्मीदवार हरमंदर जस्सी के चलते इलाके में कांग्रेस की हालत और भी कमजोर हो गई है, क्योंकि जस्सी डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम के समधी हैं। इलाके में कांग्रेस को डेरा प्रेमियों की नाराजगी झेलनी पड़ रही है। |
अकाली के पास स्टार प्रचारकों की किल्लत
अकाली दल (बादल) के सबसे वरिष्ठ नेता प्रकाश सिंह बादल जीवन के 95 बसंत देखने के बाद भी लंबी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन पार्टी को उनकी कमी खल रही है। उनके सुपुत्र सुखबीर सिंह बादल व पुत्रवधु हरसिमरत कौर बादल ने पार्टी का मोर्चा संभाला हुआ है। ग्रामीण इलाकों में होने वाली उनकी रैलियों में भीड़ भी अच्छी जुट रही है, लेकिन पार्टी को स्टार प्रचारकों की कमी से जूझना पड़ रहा है। इस बार अकाली दल (बादल) का बसपा के साथ गठजोड़ है, पर राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि पंजाब में विशेषकर सिख समाज की जातीय बनावट के चलते पार्टी को गठजोड़ का उतना फायदा होता दिखाई नहीं देता। अकाली दल को जट्ट सिखों की और बसपा को दलितों की पार्टी माना जाता है। सूबे के ग्रामीण अंचल में दोनों समुदायों के बीच बहुत कम ही बनती है। तीन कृषि कानून मुद्दे पर भाजपा से अलग होने के बाद अकाली दल की स्थिति कटी पतंग सी दिखने लगी है जो कभी ऊपर चढ़ जाती है तो कभी गोते खाने लगती है। यह चुनाव जहां अकाली दल की कड़ी परीक्षा लेगा, वहीं उसकी राजनीतिक भविष्य भी तय करेगा।
पटियाला: कैप्टन का गढ़कैटन अमरिंदर सिंह की वजह से पटियाला शहरको हॉट सीटों में शुमार किया जा रहा है। पटियाला कांग्रेस का गढ़ माना जाता है, लेकिन इस बार सियासी समीकरण बदल चुके हैं। कांग्रेस में मचे सियासी घमासान के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर अपनी सियासी पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस बना ली। पटियाला में कैप्टन की पकड़ अच्छी है। जब वे कांग्रेस में थे तो पटियाला को कांग्रेस का गढ़ कहा जाता था। इस बार पटियाला शहर से वे अपनी पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस से सियासी मैदान में हैं। इस वजह से यहां दिलचस्प मुकाबला देखने को मिल सकता है। सियासी गलियारों में यह चर्चा जोरों पर है कि कैप्टन के पार्टी छोड़ने के बाद क्या कांग्रेस अपनी साख बचा पाएगी या फिर कैप्टन अपना परचम बुलंद करेंगे? हालांकि इस सीट पर कैप्टन का 20 साल तक कब्जा रहा। 2002 से 2014 तक वे यहां से विधायक रहे। 2014 में लोकसभा चुनाव में अमृतसर से जीतने के बाद उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था। 2014 उपचुनाव में इस सीट से उनकी पत्नी परणीत कौर जीतीं। 2014 से 2017 तक वह पटियाला से विधायक रहीं। इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की टिकट पर फिर से कैप्टन ने जीत हासिल की। चन्नी के लिए सबसे सुरक्षित सीट कौन?चरणजीत सिंह चन्नी अपनी परंपरागत सीट चमकौर साहिब के साथ भदौड़ (आरक्षित) से भी चुनाव लड़ रहे हैं। ये दोनों सीटें पंजाब के मालवा इलाके की हैं। पंजाब की राजनीति का इतिहास खंगाल कर देख लीजिए, सत्ता सुख वही पाता है जो मालवा जीत जाता है। कांग्रेस ने यहां की दोनों सीटों से चन्नी को उम्मीदवार बनाकर दलित सिख वोट बैंक पर सेंध लगाना चाहती है। भदौड़ विधानसभा सीट पर आआपा कब्जा है। इस सीट को आआपा गढ़ भी माना जाता है। |
वोटकटवा की भूमिका में संयुक्त समाज मोर्चा
दिल्ली में सिंघु बॉर्डर पर साल भर चले कथित किसान आंदोलन में हिस्सा लेने वाले पंजाब के कुछ किसान संगठनों ने संयुक्त समाज मोर्चा बना कर राजनीतिक मोर्चा सम्भाला है, जो वोटकटवा साबित होंगे। कहने को तो किसान संगठनों ने कुछ शहरी लोगों व उद्योगपतियों को भी टिकट दिया है, परन्तु अधिकतर उम्मीदवार किसान हैं और इनका असर भी गांवों तक सीमित है। ग्रामीण इलाकों में किसान नेता कांग्रेस, अकाली दल बादल और आआपा को ही नुकसान पहुंचाते दिख रहे हैं, जो कथित आंदोलन के दौरान इनके लिए चूल्हे-चौके का प्रबंध कर रहे थे।
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