देवभूमि हिमालय के संरक्षण, संवर्धन के लिए जिन सद्पुरुषों ने अनथक साधना की है, उनमें एक प्रमुख नाम डॉ० नित्यानन्द जी का भी है। एक सामाजिक कार्यकर्ता जीवन में कठिनाइयों को झेलता हुआ कैसे आगे बढ़ता है, इसका वे एक उदाहरण हैं। 9 फरवरी,1926 को आगरा में जन्मे, एक मेधावी छात्र के रूप में शिक्षा पूरी करने के बाद संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री नरहरि नारायण के सम्पर्क तथा पं० दीनदयाल उपाध्याय की प्रेरणा से वे संघ के प्रचारक बने। परिवार की जिम्मेदारी सिर पर होने के कारण अपने मार्गदर्शक भाऊराव देवरस के आग्रह पर वे कुछ वर्षो बाद परिवार में लौट कर आए और आजीविका के लिए अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। 80 रुपए मासिक पर एक हिन्दी विद्यालय में नौकरी शुरू की तथा विद्यालय के अतिरिक्त अधिकांश समय सामाजिक कार्यों में लगाया। पिताजी सरकारी नौकरी पर तो थे किन्तु आमदनी पर्याप्त नहीं थी। पैतृक सम्पत्ति के नाम पर आगरा में डेढ़ कमरे का एक मकान था जिसमें परिवार के सब सदस्य रहते थे। डॉ० नित्यानन्द जी बताते थे कि जर्मनी के एक प्रोफेसर एक बार वहां आकर रुके। उनकी टिप्पणी थी, “आपका मकान स्लम्स की तरह है, कैसे जिन्दगी बिताते हैं?” आर्थिक अभाव के कारण वह पैतृक मकान भी सस्ती कीमत पर बेच दिया गया। शिक्षण कार्य करते हुए 1954 में एम०ए० भूगोल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। बाद में उन्होंने अनेक स्थानों पर महाविद्यालयी सेवा के लिए आवेदन किया,तब जाकर बड़ौत, उत्तरप्रदेश के एक कॉलेज में नौ करी मिली, तत्पश्चात अलीगढ़ के धर्मसमाज कॉलेज में भूगोल के अध्यापक के रूप में अध्यापन कार्य किया। यहां पढ़ते समय उन्होंने पूर्वी राजस्थान पर शोधकार्य कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उनका कहना था,आगरा में जन्म लेने के कारण राजस्थान की वीरभूमि ने मुझे प्रभावित किया, इसीलिये मैंने इसे शोध का विषप बनाया ।
डॉ० नित्यानन्द जी की भूगोलवेत्ता के नाते हिमालय के प्रति रूचि, हिमालय पर अध्ययन की चेष्टा सदैव ही रही, हिमालय की प्रत्यक्ष सेवा तथा गहन अध्ययन का अवसर उन्हें वर्ष 1965 में प्राप्त हुआ, जब वे देहरादून के प्रतिष्ठित महाविद्यालय डी०बी०एस०पी० जी० कॉलेज में भूगोल के विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त होकर आये। कॉलेज प्रशासन लंबे समय से इस विषय के लिए सुयोग्य अध्यापक की खोज में था। वे यहां निरन्तर 20 वर्षों तक सेवारत रहे। विषय के प्रति छात्रों, सहयोगी अध्यापकों के मन में आकर्षण पैदा करना, हिमालय के भौगोलिक परिवेश का बारीकी से अध्ययन, देश विदेश से भौगोलिक जानकारी जुटाना, छात्रों की मेधाशक्ति का विकास, यह उनका प्रयास रहा। एक कर्तव्यनिष्ठ अध्यापक के रूप में महाविद्यालय में उनकी छवि थी। अनेक छात्रों को उन्होंने परिश्रमपूर्वक शोधकार्य कराया तथा हिमालय पर समग्र अध्ययन के लिए प्रेरित भी किया।वे अपने विद्यार्थियों को दूरदराज के पर्वतीय क्षेत्रों में साथ लेकर जाते थे। उन्होंने शोधार्थियों का आर्थिक सहयोग भी किया। उनके विद्यार्थियों की आज भी ढलती उम्र की पीढ़ी उनके इस योगदान की प्रशंसा करती है। वर्षों तक उत्तराखण्ड के अनेक विद्यालयों में भूगोल के जो अध्यापक रहे, उनमें से अधिकांश डॉ० नित्यानन्द जी के ही शिष्य थे। उन्हें शिक्षा जगत में भूगोल का विशेषज्ञ माना जाता है।
उत्तराखंड शासन ने देहरादून स्थित दून विश्वविद्यालय के अन्तर्गत ‘डॉ० नित्यानन्द हिमालयी शोध एवं अध्ययन संस्थान’ की स्थापना की है। यह संस्थान क्षेत्रीय विकास पर बल देते हुए उत्तराखंड हिमालय के सामाजिक, सांस्कृतिक, तथा आर्थिक पहलुओं के अध्ययन के लिए युवाओं को प्रेरित करेगा। इस संस्थान के माध्यम से डॉ० नित्यानन्द जी का दीर्घ सामाजिक जीवन तथा हिमालय पर उन का शोध तथा दृष्टि जनसामान्य को यहाँ के सर्वांगीण विकास के लिये प्रेरित तथा प्रोत्साहित करेगी। |
हिमालय के प्रति अगाध श्रद्धा के कारण उन्होंने उत्तराखण्ड हिमालय को अपना कार्यक्षेत्र बनाया तथा यहां के बहुआयामी परिवेश को अध्ययन के विषय के रूप में चुना। 1962 में चीन के आक्रमण से उत्पन्न समस्या के सन्दर्भ में उन्होंने विशेष शोध किया, तिब्बत के विषय पर गहनता से अध्ययन किया तथा देश की प्रतिष्ठित संस्था ‘साइंस कांग्रेस’ के मंच पर भी तिब्बत विषय पर अपने विचार स्पष्ट किए। उनके अनेक शोधपत्र राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। अमेरिका की प्रसिद्ध संस्था ‘Annals of Association of American Geographers’ की प्रतिष्ठित शोधपत्रिका में आपका शोधपत्र प्रकाशित हुआ। यह गौरव विश्व के चुनिंदा विद्वानों को ही प्राप्त है। ‘The Holi Himalaya: A Geographical Interpretation of Garhwal’ आपकी एक अद्वितीय कृति है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए आर्थिक सहायता भी प्रदान की थी। यह ग्रन्थ गढ़वाल हिमालय का सामाजिक, सांस्कृतिक, तथा भौगोलिक अध्ययन है, शोधार्थियों के लिए यह आधारग्रन्थ माना जाता है। भूगोल के साथ ही उनका भारतीय इतिहास पर भी गहन अध्ययन था। वर्षों तक अनेक प्रशिक्षण वर्गों, सेमिनार, तथा कार्यशालाओं में उन्होंने भूगोल के साथ-साथ भारतीय इतिहास के गौरवशाली अध्याय को युवाओं के बीच रखा। भारतीय इतिहासकार गुलाबचंद, पनिक्कर, विनायक दामोदर सावरकर, तथा लोकमान्य तिलक की पुस्तकों का उन्होंने गहन अध्ययन किया तथा उनके राष्ट्रीय विचारों को अपने उद्बोधनो में प्रस्तुत किया। ‘भारतीय संघर्ष का इतिहास’, ‘मुस्लिम तुष्टिकरण की मृगमरीचिका’, उनकी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। आपका स्पष्ट मत था कि राष्ट्ररूपी वृक्ष अपना जीवनरस इतिहास से प्राप्त करता है। भारत का इतिहास पराजय का नहीं बल्कि गौरवशाली संघर्ष का है।
एक अध्येता के रूप में डॉ० नित्यानन्द जी ने उत्तरांचल के सुदूरवर्ती क्षेत्रों का अनेक बार प्रवास किया तथा युवकों को विकास की दिशा दी। वे 1970 से वर्ष 2000 तक लंबे समय संघ के प्रान्त कार्यवाह रहे। वे प्रवास पर जहां भी गए, विद्यार्थियों से वार्ता करना, उनका सामान्यज्ञान बढ़ाना, उन्हें विकास के प्रति प्रोत्साहित करना, यह उनकी विशेष रुचि थी। शैक्षणिक कार्य के अतिरिक्त पूर्णकालिक जैसा जीवन बिताते हुए वे अन्तिम समय तक संघ में प्रचारक के समान ही माने जाते थे।
21 अक्टूबर, 1991 के उत्तरकाशी भूकम्प से भागीरथी घाटी में भारी विनाश हुआ। इसी समय उनके प्रयास तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग से आपदा ग्रस्त क्षेत्र में सहायता तथा पुनर्वास कार्यों के लिए ‘उत्तरांचल दैवी आपदा पीड़ित सहायता समिति’ का गठन हुआ। डा. नित्यानन्द जी के आग्रह पर इस समिति को देशभर के संघ परिवार तथा अनेक सामाजिक धार्मिक संस्थाओं ने राहत सामग्री भेजी तथा आर्थिक योगदान किया। समिति के माध्यम से युवाओं को जुटाकर उत्तरकाशी जनपद के सीमान्त विकासखण्ड भटवाड़ी के दुर्गम क्षतिग्रस्त गांव तक पहुंचकर संघ के कार्यकर्ताओं तथा स्थानीय जनमानस ने डॉ० नित्यानन्द जी के मार्गदर्शन में राहत के रूप में सेवाकार्य किया। ऊपरी भागीरथी तथा जलकुर घाटी के10 ग्रामों में 427 भूकम्परोधी भवनों का निर्माण कर निर्धन, निराश्रित बालकों के लिए छात्रावास व छात्रवृत्ति की व्यवस्था की गई। वर्तमान में हिमाचल से सटी टौंस घाटी के नैटवाड़, केदार घाटी ऊपरी भागीरथी में संचालित अनेक छात्रावासों में बड़ी संख्या में छात्र आवासीय सुविधा के साथ अध्ययनरत हैं। डॉ० नित्यानन्द जी का मत था कि छात्रावास योग्य संस्कार प्रदान करने का एक सशक्त माध्यम है। उनके इन सब प्रयासों को देखने, समझने के लिए देशभर से अनेक सामाजिक संस्थाओं के लोग यहां आते रहे हैं। 23 अक्टूबर, 2007 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मा० के०एस० सुदर्शन यहां पधारे। इस सीमांत क्षेत्र में चल रहे विकास कार्यों को देखकर वे हर्षित हुए, उन्होंने अपने सम्बोधन में कहा, “यहां डॉ० नित्यानन्द जी के मार्गदर्शन में विकास का अनूठा उदाहरण देखने को मिलता है। मुझे इस बात का खेद है कि मैं यहां पहले क्यों नहीं आया?”
प्राकृतिक आपदा से सर्वाधिक क्षतिग्रस्त उत्तरकाशी जिले की ऊपरी भागीरथी घाटी के सीमान्त भटवाड़ी विकास खण्ड मनेरी में सेवाश्रम के नाम से केन्द्र बनाकर ढलती उम्र, अस्वस्थता, विपरीत जलवायु, तथा कठिन क्षेत्र,इन सब की परवाह न करते हुए वे निरन्तर 25 वर्षों तक यहीं रहकर संख्या द्वार अंगीकृत विकास कार्यों का मार्गदर्शन करते रहे। ‘80 के दशक में आपके प्रयास से शैक्षिक उन्नयन के लिये गढ़वाल कल्याण संस्थान’ की स्थापना हुई। इसके माध्यम से जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर में शिक्षा केन्द्रों का अभ्युदय हुआ। पहाड़ पर जनजातीय समाज के उन्नयन के लिए वे सदैव सक्रिय रहे। जौनसार बावर का जनजातीय समाज, नैनीताल की तराई में बसे थारू, बोक्सा, तथा कुमाऊं के सीमांत पर बसे भोटिया जनजाति के बीच शिक्षा व स्वास्थ्य का सघन कार्य हो, इस पर उन्होंने वर्षों तक आग्रह किया तथा समय-समय पर इन क्षेत्रों का सघन प्रवास भी किया। उन्हें इन पिछड़े क्षेत्रों का कोई सक्रिय, सजग युवा दिखता तो वे उसे अपने संपर्क में जोड़ लेते।
उत्तराखंड हिमालय की तलहटी पर दून, भाबर, और तराई के सुविधाजनक स्थानों में बसने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है। उनका मत था, – सीमांत की सुरक्षा की गारंटी यहां की बसावट के हाथों ही सुरक्षित है। कठिनाइयों से डरकर पलायन प्रोत्साहित नहीं होना चाहिए। उनका कहना था, “हमारे पूर्वजों ने वर्षों पहले यहां आकर इस दुर्गम अपरिचित क्षेत्र में रास्ते बनाए, खेत खलिहान विकसित किए, यहां के भौगोलिक परिवेश के अनुरूप भवन खड़े किए तथा पर्यावरण से बिना छेड़छाड़ किए एक स्वावलंबी जीवन व्यतीत किया यह सब बिना शासन के सहयोग के हुआ। जन सहयोग के आधार पर हुआ ।आज आवश्यकता इस बात की है कि स्थानीय संसाधनों का उपयोग करते हुए पहाड़ को आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ाएं”। |
उतराखण्ड के समग्र ग्रामीण विकास के लिये 1988 में उत्तराँचल उत्थान परिषद की स्थापना हुई। इसके पीछे मूल कल्पना नित्यानन्द जी की ही थी तथा मागदर्शन श्रद्धेय भाऊ राव देवरस का था।
देश में एक ख्यातिनाम समाजशिल्पी के रूप में उनकी पहचान थी। वे देश की अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं के भी सदस्य रहे। समय-समय पर सामाजिक विषयों पर आयोजित गोष्ठियों, विमर्श में उनको बुलाया जाता था। हिमालय के विकास, यहां की सामाजिक परिस्थितियों पर मन्त्रणा के लिए अनेक विद्वान मनीषि आपके पास आते रहे हैं। उत्तराखंड पृथक राज्य का स्वरूप क्या हो? उपलब्ध संसाधनों का उपयोग कैसा हो? इस संदर्भ में उनकी स्पष्ट सोच थी, गहन अध्ययन था। वर्ष 1988 में उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘उत्तरांचल प्रदेश क्यों? एक विवेचन’ ने उत्तराखंड राज्य निर्माण में मार्गदर्शक की भूमिका निभाई। इस पुस्तक का दूसरा संस्करण, ‘उत्तरांचल ऐतिहासिक परिदृश्य एवं विकास के आयाम’, 2004 में प्रकाशित हुआ तथा उनके सुझावों व परामर्श के आधार पर कुछ आयामों को जोड़ते हुए इस पुस्तक का तीसरा संस्करण उनके महाप्रस्थान से पूर्व प्रकाशित हुआ।
डॉ० नित्यानन्द जी ने निरन्तर 5 दशकों तक अमेरिका की प्राचीन सभ्यता ‘माया संस्कृति’ पर गहन अध्ययन किया तथा लेखन कार्य किया। माया के नाम से अमेरिका की प्राचीन सभ्यता को जिस प्रकार नष्ट किया गया, एक इतिहासकार तथा भूगोलवेत्ता के नाते वे इस क्रूरता पर व्यथित थे। इस पर जो कुछ उन्होंने लिखा, वह बुद्धिजीवियों के सामने आना चाहिए। उनका यह सपना भी साकार हुआ। उनकी मृत्यु से पूर्व इस विषय पर उनका एक ग्रंथ छपकर तैयार हुआ। इस चिरप्रतीक्षित पुस्तक के प्रकाशन पर वे अत्यधिक प्रसन्न थे। उत्तराखंड से निरन्तर हो रहे पलायन के प्रति वे सदैव चिन्तित रहते थे। वे कहते, –“दुर्भाग्य का विषय है कि पहाड़ खाली होते जा रहे हैं”। उत्तराखंड हिमालय की तलहटी पर दून, भाबर, और तराई के सुविधाजनक स्थानों में बसने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है। उनका मत था, – सीमांत की सुरक्षा की गारंटी यहां की बसावट के हाथों ही सुरक्षित है। कठिनाइयों से डरकर पलायन प्रोत्साहित नहीं होना चाहिए। उनका कहना था, “हमारे पूर्वजों ने वर्षों पहले यहां आकर इस दुर्गम अपरिचित क्षेत्र में रास्ते बनाए, खेत खलिहान विकसित किए, यहां के भौगोलिक परिवेश के अनुरूप भवन खड़े किए तथा पर्यावरण से बिना छेड़छाड़ किए एक स्वावलंबी जीवन व्यतीत किया यह सब बिना शासन के सहयोग के हुआ। जन सहयोग के आधार पर हुआ ।आज आवश्यकता इस बात की है कि स्थानीय संसाधनों का उपयोग करते हुए पहाड़ को आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ाएं”।
डॉ० नित्यानन्द जी सदैव प्रसिद्धि,सम्मान, तथा आत्मप्रशंसा से दूर थे। देश की अनेक रचनाधर्मी संस्थाओं ने उनके सम्मान हेतु कार्यक्रम आयोजित करने की इच्छा व्यक्त की, किन्तु उन्होंने विनम्रतापूर्वक उनके इस आग्रह को टाल दिया। एक बड़ा आग्रह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की ओर से था जिसका आयोजक भाऊराव देवरस सेवा न्यास था। उनसे आग्रह हुआ कि आपने इस आयोजन में पहाड़ पर हो रहे सेवाकार्यों की चर्चा करनी है। भाऊराव के नाम पर वे इस निमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर पाए। विश्वविद्यालय के सभागार में 19 नवम्बर, 1995 को श्री अन्ना हजारे के साथ आपको ग्रामविकास के कार्यों हेतु अलंकृत किया गया। देश की प्रतिष्ठित संस्था ’बड़ाबाजार कुमार सभा पुस्तकालय’, कोलकाता ने भी आपके कार्यों की प्रशंसा की तथा आपको सम्मानित किया।
वर्ष 2013 में केदारनाथ त्रासदी के समय संघ के स्वयंसेवकों द्वारा किये गए सेवाकार्यों का दर्शन करने सरसंघचालक मा॰ मोहनराव भागवत का यहां पदार्पण हो, यह उनकी इच्छा थी। दैवयोग से उनकी यह साध पूरी हुई। 4 अक्टूबर, 2013 को मौसम की प्रतिकूलता तथा अनेक अवरोधों के बावजूद सरसंघचालक मनेरी पधारे। इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में मोहन भागवत ने कहा, – “मैं डॉ० नित्यानन्द जी की प्रतिभा से वर्षों पहले से परिचित हूं, प्रभावित हूं, उनका जीवन समाज के सब लोगों के लिए अनुकरणीय है”। इस समय डॉ० नित्यानन्द जी अत्यधिक अस्वस्थ थे, किन्तु मन से प्रसन्न थे। वे शारीरिक दुर्बलता के बावजूद भी व्हील चेयर पर बैठ कर पूरे समय आयोजन में उपस्थित रहे। इस अवसर पर सीमांत विकासखंड भटवाड़ी के सुदूरवर्ती ग्रामों से उनके आह्वान पर पैदल चलकर बड़ी संख्या में ग्रामीण एकत्रित हुए।
1972 में गंगोत्री ग्लेशियर का अध्ययन करते समय उनको पक्षाघात हुआ था। 1981 में स्कीनिया (हृदय रोग) तथा 1997 में माइस्थेनिया ग्रेविस जैसे गम्भीर रोगों से पीड़ित होते हुए भी वे जीवन के अन्तिम समय तक निरन्तर सक्रिय रहे। अन्तिम समय में उनको अत्यधिक शारीरिक पीड़ा रही, वे कहते थे, – “मेरा काम पूरा हो गया, अब प्रस्थान की तैयारी है, यदि मैने जीवन में अच्छा काम किया हो तो ईश्वर मुझे अपने पास बुला ले। मेरे कारण किसी को कष्ट न हो।” उन्होंने एक इच्छा पत्र (will) भी लिखा जिसमें एक कार्यकर्ता के रूप में अपने मन के उद्गार व्यक्त किये थे तथा यह भी उल्लेख था कि मेरी कोई निजी सम्पत्ति नहीं है। भागीरथी के पवित्र तट पर दीर्घकाल तक मेरा कार्यक्षेत्र रहा, मेरी जीवनयात्रा यहीं पूरी हो यह मेरी इच्छा है। कर्मशील जीवन के 90 वर्ष पूर्ण करते हुए 8 जनवरी 2016 को वे ब्रह्मलीन हो गए तथा अपने पीछे छोड़ गए हिमालय की सेवा की प्रेरणा तथा सैकड़ों कार्यकर्ता जिन्हें डॉ० नित्यानन्द जी ने समाज कार्य के लिए स्वयं तराशा था।
डॉ० नित्यानन्द जी उन चुनिंदा विद्वानों में से एक थे जिन्होंने उत्तराखंड हिमालय का विस्तृत अध्ययन किया था। राज्य गठन के लिए उनका विशेष आग्रह तथा योगदान रहा। उत्तराखण्ड हिमालय में उनके द्वारा किए गए अविस्मरणीय सेवाकार्यों एवं उत्कृष्ट शैक्षिक योगदान को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड शासन ने देहरादून स्थित दून विश्वविद्यालय के अन्तर्गत ‘डॉ० नित्यानन्द हिमालयी शोध एवं अध्ययन संस्थान’ की स्थापना की है। यह संस्थान क्षेत्रीय विकास पर बल देते हुए उत्तराखंड हिमालय के सामाजिक, सांस्कृतिक, तथा आर्थिक पहलुओं के अध्ययन के लिए युवाओं को प्रेरित करेगा। इस संस्थान के माध्यम से डॉ० नित्यानन्द जी का दीर्घ सामाजिक जीवन तथा हिमालय पर उन का शोध तथा दृष्टि जनसामान्य को यहाँ के सर्वांगीण विकास के लिये प्रेरित तथा प्रोत्साहित करेगी।
लेखक – प्रेम बड़ाकोटी
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