करपात्री जी की पुण्यतिथि (7 फरवरी) पर विशेष
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के भटनी ग्राम में सरयूपारीण सनातनी ब्राह्मण दम्पति रामनिधि व उनकी धर्मपत्नी शिवरानी के घर श्रावण शुक्ल द्वितीया (10 अगस्त सन् 1907) को पुत्र रूप में जन्मी इस विलक्षण विभूति का मूल नाम हरि नारायण ओझा था। बचपन से ही सांसारिक विषयों से उदासीन रहने वाले अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि के इस बालक ने मात्र छह-सात वर्ष की आयु में प्रयाग के एक आश्रम में रहकर जीवन दत्त महाराज से संस्कृत भाषा सीख कर धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू कर दिया था। नौ साल की अल्पायु में उनका विवाह महादेवी नामक बालिका से हो गया; परन्तु विवाह के बाद भी उनका विरक्त स्वभाव जरा भी नहीं बदला। वे हिमालय जाकर तप साधना करना चाहते थे किन्तु पिता की बात का मान रखते हुए कुल धर्म की रक्षा के लिए संतान के जन्म तक दाम्पत्य बंधन में बंधे रहे। कन्या रत्न का जन्म होते ही 17 वर्ष की किशोरवय में गृहत्याग ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से गुरु दीक्षा लेकर नैष्ठिक ब्रह्मचारी बन गये। फिर गुरु आज्ञा से मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले की ऐतिहासिक नगरी नरवर जाकर उन्होंने षड्दर्शन के प्रकांड विद्वान आचार्य स्वामी विश्वेश्वराम और अच्युत मुनि से दर्शन शास्त्र, भागवत, न्याय शास्त्र और वेदांत का सम्पूर्ण ज्ञान मात्र 13 माह में प्राप्त कर लिया। फिर काशी आकर गंगातट पर फूस की कुटिया बनाकर और कर (हथेली) को पात्र (बर्तन) बनाकर आहार संयम का महासंकल्प धारण कर कठोर साधनात्मक पुरुषार्थ में जुट गये। कहा जाता है कि वे प्रत्येक प्रतिपदा को गंगातट नखर में धूप में एक लकड़ी की कील गाड़कर एक टांग पर खड़े होकर पूरे चौबीस घंटे नाम जप किया करते थे। जब सूर्य की धूप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती, जहां 24 घंटे पूर्व थी तभी वे तब दूसरे पैर का आसन बदलते थे। वर्षों की इस गहन साधना के उपरान्त दीक्षा गुरु शंकराचार्य ब्रह्मानंद सरस्वती ने 24 वर्ष की आयु में विधिवत संन्यास दंड धारण कराकर उनको स्वामी हरिहरानंद सरस्वती नाम से प्रतिष्ठित किया। यद्यपि तब तक वे करपात्री जी के नाम से पूरे क्षेत्र में अच्छे खासे लोकप्रिय हो चुके थे। दंडी स्वामी बनने के उपरांत उन्होंने पूरे देश में लम्बी लम्बी पदयात्राएं कर हिन्दू धर्म का व्यापक जनजागरण किया। उनकी याददाश्त ‘फोटोजेनिक’ थी। दृष्टि के सामने से गुजरते ही कोई भी श्लोक उनके स्मृति पटल पर सदा के लिए में अंकित हो जाता था। शास्त्रार्थ अथवा प्रवचन करते समय वे सहज ही बता देते थे कि अमुक श्लोक अमुक पुस्तक के अमुक अध्याय के अमुक पृष्ठ का है।
भारत के आजाद होने के बाद जब संविधान सभा में गौ-हत्या को कानूनन अपराध घोषित करने की मांग उठी तो नेहरू जी जैसे छद्म धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री के कारण यह कानून अस्तित्व में नहीं आ पाया। 1960 में जब पुनः गौ-हत्या निरोधक कानून संसद में लाया गया तो अधिकांश सांसदों के इसके पक्ष में होने के बावजूद नेहरू ने कहा कि यदि यह कानून पारित हुआ तो वे इस्तीफा दे देंगे। इस धमकी के कारण यह कानून संसद से पास नहीं हो सका। नेहरू जी की मृत्यु के बाद 1965 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा, अखिल भारतीय रामराज्य परिषद, विश्व हिन्दू परिषद आदि हिन्दू संगठनों ने दिल्ली में बैठक कर “गौ रक्षा महाभियान समिति” का गठन किया। करपात्री जी समिति के अध्यक्ष चुने गये। इस बैठक में गौ-हत्या के विरुद्ध कानून बनाने की मांग के लिए देशव्यापी जनांदोलन की रणनीति बनी। अगले वर्ष 1966 में देश में आम चुनाव होने थे और देश के हिन्दू वर्ग खासकर संत समाज को नाराज कर इंदिरा गांधी का चुनाव जीतना खासा मुश्किल था। वे करपात्री जी की लोकप्रियता से भी बखूबी परिचित थीं। इसलिए उन्होंने देश में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध का वचन देकर करपात्री जी से आशीर्वाद मांगा। चुनाव प्रचार में गौ संरक्षण का मुद्दा जोर-शोर से उठाया। यहां तक कि पार्टी का चुनाव चिन्ह भी गाय और बछड़ा था। इस पर करपात्री जी और अन्य सभी प्रमुख हिन्दू संगठनों ने चुनाव में इन्दिरा गांधी को समर्थन दे दिया। पर प्रधानमंत्री बनते ही इंदिरा वादे से मुकर गयीं। करपात्री जी द्वारा कई बार याद दिलाने पर भी उन्होंने गोहत्या प्रतिबंध पर कोई कदम नहीं उठाया। अंततः स्वामी जी को आंदोलन का मार्ग चुनना पड़ा। किंतु उसकी परिणिति इतनी भयावह होगी; इसकी कल्पना उन्होंने स्वप्न में भी नहीं की थी। कहते हैं कि स्वामी जी के आह्वान पर सात नवम्बर 1966 को संसद भवन परिसर में देशभर के संत समाज का विशाल धरना-प्रदर्शन शुरू हुआ। हिन्दू पंचांग के अनुसार उस दिन विक्रमी संवत 2012 कार्तिक शुक्ल की अष्टमी यानी ‘गोपाष्टमी’ थी। इस धरने में पुरी के जगद्गुरु स्वामी निरंजनदेव तीर्थ समेत चारों शंकराचार्य, जैन मुनि सुशील कुमार, सार्वदेशिक सभा के प्रधान लाला रामगोपाल, हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो. रामसिंह, ‘कल्याण’ के प्रथम सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक श्रीगोलवलकर, भारत-साधु समाज के अध्यक्ष श्री गुरुचरणदास और संत प्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी जैसे विशिष्ट व्यक्तियों की उपस्थिति में आर्य समाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि विभिन्न धार्मिक समुदायों से जुड़े साधु–संतों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था। महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन की घोषणा ने इस आन्दोलन में नये प्राण फूंक दिये थे। किन्तु कांग्रेस सरकार ने हजारों की संख्या में जुटे उन गोभक्तों के आन्दोलन को विफल करने के लिए आंसू गैस के गोले बरसाये तथा माइक के तार कटवा दिये गये। फिर भी जब गोभक्तों का जोश न थमा तो बर्बरता की हदें पार करते हुए निर्मम लाठी चार्ज कर गोलियां चलवा दी गयीं। इस गोलीबारी सैकड़ों निर्दोष साधु-संत मारे गये। इस जघन्य हत्याकांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने अपना त्याग पत्र दे दिया था।
सनद हो कि इस खबर को छापने की हिम्मत गोरखपुर से छपने वाली आध्यात्मिक पत्रिका ‘कल्याण’ के सिवा किसी अन्य पत्र-पत्रिका ने नहीं दिखायी। ‘कल्याण’ के गौ विशेषांक में इसे विस्तार से प्रकाशित किया गया। पत्रिका के अनुसार उक्त घटना से अत्यंत आहत करपात्री जी ने इंदिरा गांधी को श्राप देते हुए कहा था- तूने गौ हत्यारों को गायों की हत्या करने की छूट देकर जो घोर पाप किया है, वह क्षमा के योग्य नहीं है। मैं आज तुझे श्राप देता हूं कि ‘गोपाष्टमी’ के दिन ही तेरे वंश का नाश होगा। पत्रिका के अनुसार घटनास्थल पर जब करपात्री जी ने यह श्राप दिया था तो प्रभुदत्त ब्रह्मचारी भी वहां मौजूद थे। इंदिरा गांधी की मृत्यु ‘गोपाष्टमी’ के दिन हुई थी।
देश की यह महान आध्यात्मिक विभूति मोक्ष नगरी काशी के करपात्री धाम में सात फरवरी 1982 ई. को रविवार चतुर्दशी को पुष्य नक्षत्र में गंगास्नान कर शिव-शिव नामोच्चारण करती हुई ब्रह्मलीन हो गयी। उनकी इच्छानुसार उनकी पार्थिव देह को पुरी पीठाधीश्वर श्री स्वामी निरंजनदेव तीर्थ द्वारा गंगा में जलसमाधि दे दी गयी।
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