एस. गुरुमूर्ति
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी.एस. तिरुमूर्ति ने 76 साल पुराने इस संगठन को अब्राहमिक मतों की तरफदारी करने और केवल उन्हीं के लिए चिंता जताने के रवैये पर आड़े हाथों लिया। ग्लोबल काउंटर टेररिज्म काउंसिल द्वारा आयोजित इंटरनेशनल काउंटर टेररिज्म कॉन्फ्रेंस (18 जनवरी, 2022) में दिए एक विशिष्ट संबोधन में उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र इस्लामोफोबिया, क्रिश्चियनफोबिया, यहूदीफोबिया जैसे अब्राहमिक मतों के विरुद्ध उन्माद पर गहरी चिंता जताया करता है। लेकिन, गैर-अब्राहमिक पंथों-हिंदू, सिख और बौद्ध के विरुद्ध बन रहे ऐसे माहौल के प्रति निस्पृह दिखता है। उसे इस मुद्दे पर भी ध्यान देना होगा।
उन्होंने वैश्विक आतंकवाद, जिसके कारण हर साल करीब 25,000 लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़ते हैं, के खिलाफ की जा रही लड़ाई को नजरअंदाज करने के निहित उद्देश्यों को भी उजागर किया जिसके तहत अलग-अलग देशों और क्षेत्रों में होने वाली आतंकी घटनाओं को संयुक्त राष्ट्र स्थानीय झड़पों या दंगों की श्रेणी में दर्ज कर हाशिए पर खिसका देता है।
आतंकवाद की कहानी पर पर्दा डालना
तिरुमूर्ति ने सबसे पहले ‘राजनीतिक, पांथिक और अन्य निहित उद्देश्यों से प्रेरित सदस्य राष्ट्रों द्वारा’ आतंक की परिभाषा को सुविधानुसार बदलने की प्रवृत्ति पर ध्यान आकर्षित किया। ‘उभरते खतरों’ की बात करते हुए उन्होंने इशारा किया कि ये किसी देश के उग्र राष्ट्रवाद और दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद जैसे घरेलू राजनीतिक मुद्दों समेत आतंकवादी घटनाओं को अच्छी और बुरी की श्रेणी में डालकर आतंकवाद की कहानी को एक दूसरा ही स्वरूप देने के प्रयास में लगे हैं।
तिरुमूर्ति ने चार प्रमुख बिंदुओं को रेखांकित करते हुए उनका असली चेहरा बेनकाब किया:
- यह रवैया वैश्विक आतंकवाद विरोधी रणनीति पर संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के स्वीकृत सिद्धांतों के खिलाफ है।
- यह 9/11 के पूर्व प्रचलित ‘आपके आतंकवादी’ और ‘मेरे आतंकवादी’ वर्गीकरण प्रक्रिया को पुनर्जीवित करता है।
- यह दक्षिणपंथी-वामपंथी दलों के वैचारिक मुद्दों के व्यापक परिदृश्य को भी आतंकवाद के वर्गीकरण में शामिल कर देता है जो चुनावी जनादेश के तहत लोकतांत्रिक राजनीति का हिस्सा होते हैं।
- हिंसा की उन कथित घटनाओं पर भी यह आतंक का लेबल लगा देता है जो राष्ट्रीय या क्षेत्रीय मसलों तक ही सीमित होती हैं।
- भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बयान को याद करते हुए तिरुमूर्ति ने कहा कि आतंकवादी सिर्फ आतंकवादी हैं और कोई आतंक अच्छा या बुरा नहीं। तिरुमूर्ति ने कहा कि आतंक की घटनाओं पर लगाम लगाना ही आतंकवाद के खिलाफ चुनौती का समाधान है।
गैर-अब्राहमिक पंथों के विरुद्ध उभरे फोबिया की उपेक्षा
उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र ने अक्सर अब्राहमिक मतों से संबंधित फोबिया को ‘रेखांकित’ किया है, लेकिन गैर-अब्राहमिक पंथों से संबंधित फोबिया के बारे अनजान बना रहता है। तिरुमूर्ति ने दुनिया का ध्यान भारतीय पंथों की स्पष्ट लेकिन अव्यक्त चिंता की ओर आकर्षित किया।
पश्चिमी बुद्धिजीवियों ने मतों-पंथों को अब्राहमिक और गैर-अब्राहमिक श्रेणी में बांटते हुए जो चर्चा छेड़ रखी है, उसकी तरफ इशारा करते हुए तिरुमूर्ति द्वारा भारतीय पंथों के प्रति संयुक्त राष्ट्र के पूर्वाग्रह को दुनिया के सामने उजागर करना अंतरराष्ट्रीय विमर्श में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। पश्चिमी अकादमिक विमर्श में इन दो श्रेणियों के अंतर पर चर्चा तो आम है लेकिन भू-राजनीतिक परिदृश्य में यह एक नया तेवर है जहां अब तक संबंधित मुद्दों पर राजनीतिक रूप से सीधा-सादा वक्तव्य देने का चलन रहा है। तिरुमूर्ति ने अब इसे भू-राजनीतिक बहस का हिस्सा बना दिया है।
अब्राहमिक और गैर-अब्राहमिक मत-पंथ दो अलग-अलग आदर्शों का पालन करते हैं पर उन पर एक सामान्य लेबल-पंथ- लग गया है। वास्तव में, पंथ के लेबल को छोड़कर उनके बीच ज्यादा समानताएं नहीं। अब्राहमिक मतों को भारतीय पंथों के बीच जो व्यवहार मिलता है, उसका श्रेय प्राचीन वैदिक सूक्ति ‘एकम् सत विप्रा बहुधा वदंती’ (ईश्वर एक ही है, पर संत लोग उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं) को जाता है जिसे 1893 में स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद में अपने प्रसिद्ध भाषण में उद्धृत किया था। लेकिन, यह धारणा कि दोनों पंथ समान हैं, सच नहीं। उसने भारतीय चिंतन और भारतीय पंथों के बारे में वैश्विक विमर्श को भ्रमित कर दिया है।
सैद्धांतिक रूप से सहिष्णुता पर भेद
हमारे सेक्युलर और उदारवादी बुद्धिजीवी भी अक्सर हिंदू धर्म को एक सहिष्णु धर्म मानते हुए सिर नवाते दिख जाते हैं। उनसे पूछें कि अगर हिंदू धर्म सहिष्णु है, तो दूसरे मत-पंथ? वे जवाब देने से परहेज करेंगे। सहनशीलता प्रकृति का उपहार नहीं। यह एक ऐसा गुण है जिसे पोषित करने की आवश्यकता है। जहां सैद्धान्तिक रूप से सहिष्णु आस्था सहिष्णुता को पोषित करती है, वहीं सैद्धान्तिक रूप से असहिष्णु आस्था असहिष्णुता को कई गुना बढ़ा देती है। दशकों पहले, 1976 में, सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने ईसाई सदस्यों वाले एक हिंदू परिवार को एक अविभाजित हिंदू परिवार बताया और एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका को उद्धृत करते हुए कहा कि हिंदू धर्म, जो सभी मतों-पंथों को स्वीकार करता है, ‘सैद्धांतिक रूप से सहिष्णु’ है। इसे एक मिसाल के रूप में उद्धृत करते हुए 1995 में न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि हिंदू धर्म सिर्फ धर्म नहीं, बल्कि राष्ट्रीय परंपरा, भारत की जीवन शैली और संस्कृति का स्वरूप प्रस्तुत करता है। अयोध्या फैसले के एक साल पहले न्यायमूर्ति एस.पी. भरूचा और न्यायमूर्ति ए.एम. अहमदी ने कहा था कि ‘सहिष्णु हिंदू धर्म’ ने भारत में अन्य मतों-पंथों को विकसित होने में मदद की। लेकिन यह केवल सहनशीलता ही नहीं, बल्कि हिंदू धर्म की सभी मतों-पंथों को सत्य मानने की विशेषता है जिससे अन्य संप्रदाय भी विकसित हुए, जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में कहा था।
लेकिन, तीनों अब्राहमिक मत इसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि अन्य मतों-पंथों को असत्य बताते हैं। द इनसाइक्लोपीडिया में कहा गया है कि हिंदू धर्म सैद्धांतिक रूप से सहिष्णु है, वहीं यह भी कहता है कि अब्राहमिक मतों का एकेश्वरवादी सिद्धांत अन्य सभी मतों-पंथों को असत्य मानता है। उनकी यह मान्यता ‘आंशिक रूप से विश्व इतिहास में एकेश्वरवादी मत के कट्टर, आक्रामक और असहिष्णु रुख की व्याख्या करती है।’
भू-राजनीति में अब्राहमिक और गैर-अब्राहमिक मान्यताओं के मूल अंतर को प्रस्तुत करके तिरुमूर्ति ने सनातन धर्म के सहिष्णुता और अब्राहमिक मतों के असहिष्णुता के सिद्धांतों के संबंध में एक भू-राजनीतिक बहस की नींव रख दी है।
कट्टरपंथी, गैर-कट्टरपंथी
अब्राहमिक और गैर-अब्राहमिक मत-पंथों के बीच का अंतर एक और गंभीर मसले पर बहस की स्थिति पैदा करता है जिसका राष्ट्रीय और भू-राजनीति में सबसे अधिक दुरुपयोग किया जा रहा है-मजहबी कट्टरवाद। मजहबी कट्टरवाद पर अमेरिकन एकेडमी आॅफ आर्ट्स एंड साइंसेज ने एक प्रोजेक्ट पेश किया है जिसका नाम फंडामेंटलिज्म प्रोजेक्ट है। इस प्रोजेक्ट के संपादक हैं संस्थान के सह-संस्थापक प्रसिद्ध ईसाई विद्वान और लूथरन पादरी मार्टिन ई. मार्टी और मशहूर ईसाई विद्वान आर. स्कॉट एप्पलबी जिन्होंने लंबे समय तक भारत में काम किया था। प्रोजेक्ट में विभिन्न मत-पंथों के दुनिया भर के विद्वान शामिल थे। इसे पूरा होने में आठ वर्ष (1987-94) लगे जिसके बाद पांच विशाल खंडों में 3,500 पृष्ठों का एक उत्कृष्ट संकलन पेश हुआ। संपादकों ने पहले खंड ‘फंडामेंटलिज्म आॅब्जर्व्ड’ में यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि ‘कट्टरपंथी परिवार के सदस्यों में कट्टरवाद उनके सगे या दूर के संबंधियों: हिंदू, सिख, बौद्ध और कन्फ्यूशियसी की तुलना में केवल मजहबी पुस्तक में चिह्नित लोगों-यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों- पर ज्यादा मजबूत प्रभाव डालता है।’
उन्होंने आगे कहा, मिशनरी प्रयासों को तेज करना हो या चरमपंथ को सही ठहराना, दोनों ही स्थितियों में दक्षिण एशियाई और सुदूर पूर्वी पांथिक परंपराओं से जुड़े पवित्र ग्रंथ उनके व्यवहारों को इतनी प्रबलता से प्रभावित नहीं करते जितनी अब्राहमिक मजहबी पुस्तकें करती हैं। अब ‘चरमपंथ को सही ठहराना’ और ‘मिशनरी प्रयासों को तेज करना’ जैसे शब्दों पर गौर करें तो साफ दिखता है कि इसके बीज असहिष्णुता के सिद्धान्त द्वारा ही बोए जाते हैं। प्रोजेक्ट में यह भी पाया गया कि ‘पवित्र पुस्तक त्रुटिहीन है’ की अकाट्य मान्यता अब्राहमिक परंपराओं की प्रबल भावनाओं में सांस लेती है और वही कट्टरवाद को जन्म देती है। फिर भी, सेक्युलर भारतीयों का समुदाय फंडामेंटलिज्म प्रोजेक्ट की अनदेखी कर, या उससे अनजान रहने के कारण दिन-प्रतिदिन हिंदुओं पर ही कट्टर होने का आरोप लगाता रहता है। वहीं, दूसरी तरफ, अब्राहमिक मान्यताओं के प्रति वे मौन धारण कर लेते हैं जिसे फंडामेंटलिज्म प्रोजेक्ट में साफ तौर पर कट्टरवाद उन्मुख प्रवृत्ति बताया गया है।
विरोधाभासी सहिष्णुता
क्या होता है जब असहिष्णु और सहिष्णु, कट्टरपंथी और गैर-कट्टरपंथी सिद्धांत आमने-सामने खड़े हों? विज्ञान के एक बेहद प्रभावशाली दार्शनिक कार्ल पॉपर ने (ओपन सोसाइटी एंड इट्स एनिमीज, 1945) लिखा है: ‘(अन्य विरोधाभासों की तुलना में) विरोधाभासी सहिष्णुता के बारे में लोग ज्यादा नहीं जानते: अपार सहिष्णुता एक दिन सहिष्णुता के अस्तित्व को ही समाप्त कर देती है। अगर हम असहिष्णु लोगों के प्रति भी सहिष्णु बने रहे, अगर हम असहिष्णुता से समाज की रक्षा नहीं कर पाए, तो सहिष्णु लोग मिट जाएंगे और उनके साथ सहिष्णुता भी।’ पॉपर ने मानो वर्तमान समय की ही भविष्यवाणी कर दी थी। उन्होंने कहा था, ‘असहिष्णु समुदाय अपने अनुयायियों को विवेकसंगत तर्क सुनने से मना करेंगे और उन्हें बल और पिस्तौल से तर्कों का जवाब देना सिखाएंगे।’ क्या आज विश्व में छाया आतंक उसी विचारधारा के साथ सक्रिय नहीं? पॉपर का पाठ बताता है ‘इसलिए हमें सहिष्णुता के नाम पर असहिष्णुता को बर्दाश्त न करने के अधिकार का उपयोग करना चाहिए।’
जब सहिष्णुता की असहिष्णु को बर्दाश्त करने की हद टूट जाती है तो सहिष्णु असहिष्णु हो जाता है। कुछ उदारवादी, जो इस बात पर हो-हल्ला मचाते हैं कि हिंदू धर्म यहूदी यानी अब्राहमिक मतों की तरह प्रतिक्रिया करने लगा है, वे पॉपर के विरोधाभास में जकड़ी सहिष्णुता के सिद्धांत को पूरी तरह से मानते हैं। फिर भी, वे बहुत ईमानदारी से इस बात को नहीं निभाते और सहिष्णु हिंदुओं पर ही असहिष्णु होने का आरोप मढ़ देते हैं। परिणाम यह होता है कि भारतीय पंथों को तीन तरफा आघात झेलना पड़ता है-वे असहिष्णु समूहों द्वारा सताए जाते हैं; उदारवादी उन्हें ही असहिष्णु ठहराते हैं और असहिष्णु को सहिष्णु का प्रमाणपत्र थमा देते हैं। वास्तव में यह प्रवृत्ति विकृत मानसिकता की परिचायक है।
भारतीय पंथों को बुरा कहने से छवि पर असर
अगर एक अब्राहमिक मत-इस्लाम या ईसाई -की छवि असहिष्णु के रूप में स्थापित होती है तो इससे भारत की छवि को बहुत कम नुकसान होगा। लेकिन अगर हिंदू धर्म या किसी भारतीय पंथ को असहिष्णु के रूप में दुष्प्रचारित किया जाए तो साफ है कि इसका सीधा असर भारत के छवि पर पड़ेगा।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब ‘ग्लिम्प्सेस आॅफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में स्वामी विवेकानंद के कथन -हिंदू राष्ट्रवाद किसी के खिलाफ नहीं- को स्वीकार तो किया लेकिन आगे यह भी कहा कि हिंदू राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच के अंतर को समझना भी मुश्किल है। अपनी उल्लेखनीय किताब हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने कहा कि हिंदू धर्म भारत को एकजुट करता है। महर्षि अरबिंदो और डॉ. एनी बेसेंट ने कहा कि भारत तब तक जीवित रहेगा जब तक हिंदू धर्म जीवित रहेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू धर्म की समीक्षा करने से इनकार करते हुए यह फैसला सुनाया है कि हिंदू धर्म भारत की परंपरा, संस्कृति और जीवन शैली है।
यह क्या संदेश देता है? यही कि भारत की छवि और हिंदू धर्म की छवि अविभाज्य है। अगर हिंदू धर्म की छवि मलिन होती है तो विश्व पटल पर भारत की छवि भी खराब हो जाएगी। भारतीय वामपंथी, उदारवादी,अति पंथनिरपेक्ष बुद्धिजीवी वर्गों तथा राजनीतिक नेतृत्व ने दशकों से हिंदू धर्म की छवि को नुकसान पहुंचाया है। विश्व स्तर पर लोकप्रिय पंडित नेहरू ने यहां तक कहा कि ‘मुस्लिम सांप्रदायिकता अधिक आक्रामक है, लेकिन हिंदू सांप्रदायिकता अधिक खतरनाक है’।
आज पीछे मुड़कर देखने पर यह एक अविवेकी बयान लगता है। अतीत के ऐसे सेकुलर और उदारवादी कथन अब पुराने और निरर्थक हो चुके हैं और आज का बुद्धिजीवी वर्ग दुनिया को हिंदू धर्म के मूल रूप से परिचित करा रहा है जो एक सहिष्णु धर्म है, जबकि अब्राहमिक मत सहिष्णु नहीं; और अब्राहमिक मत कट्टरपंथी हैं, जबकि हिंदू धर्म नहीं। भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग जो भारत के लिए एक सम्मानजनक ब्रांड बनाना चाहते हैं, उन्हें हिंदू धर्म से चिपकी पुरानी व्याख्याओं को मिटाकर इसकी गरिमा और महान परंपरा का परिचय विश्व को देना होगा और नए आख्यान में यह बताना होगा कि हिंदू धर्म केवल सैद्धांतिक रूप से सहिष्णु नहीं, बल्कि व्यावहारिक तौर पर भी अन्य मतों को उदार हृदय से स्वीकार करता है; यह कट्टरवाद का बिल्कुल पोषण नहीं करता। यह स्वयं विरोधाभासी सहिष्णुता का शिकार है; और फिर भी इसे ही असहिष्णु बताकर इसकी छवि को मलिन किया जा रहा है।
तिरुमूर्ति बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने विश्व मंच के भू-राजनीतिक परिदृश्य में सात दशकों से भारतीय विद्वानों, देश, मीडिया और बुद्धिजीवियों द्वारा अनाथों सी उपेक्षित पड़ी भारतीय सभ्यता की गरिमा को पुनर्स्थापित करने का काम किया है। साथ ही, इस बात पर भी उनकी सराहना होनी चाहिए कि उन्होंने भारतीय पंथों के बारे में प्रचलित निरर्थक और बेकार व्याख्याओं की जगह समकालीन ज्ञान के आधार पर उसके मूल परिचय को दुनिया के सामने पेश करने के लिए नई संभावनाओं के दरवाजे खोलने का महती कार्य किया है।
(लेखक तुगलक के संपादक हैं तथा आर्थिक-राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं )
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