डॉ. क्षिप्रा माथुर
देश हर साल बाढ़ और अकाल की आहट सुनकर कांपता है। बाढ़ कई जानें लेकर जाती है और अकाल खेत-किसान-मवेशी, सबको बेहाल कर जाता है। और जलवायु के बदलाव पर दुनिया में हो रही बहस के बीच खेती-बाड़ी के काम से उपजे कार्बन को कम करने के लिए भारत जैसे देशों पर दबाव बढ़ रहा है। यानी परम्परागत खेती से आधुनिक खेती की ओर जाने के रास्ते में क्या निवेश होने हैं, क्या नीतियां बननी हैं, इस पर दुनिया के मंचों पर बात हो रही है। सबसे ज्यादा दबाव भारत जैसे आधुनिकता में तेजी से बढ़ते देशों पर है। संघीय सरकार की योजना में किसान तो हैं मगर सूखे इलाकों के लिए जिस पैमाने पर काम की दरकार है, उसका फलक अभी उतना बड़ा नजर नहीं आ रहा। ये सिरा इसलिए जरूरी है कि देश को पैदावार देने वाली जमीन में 68 प्रतिशत हिस्सा सूखे इलाकों का है। बाकी इलाकों के लिए जहां नदियों के बहाव को मोड़ना अहम मुद्दा है, वहीं सूखे इलाकों के लिए स्थानीय समुदायों को साथ लेकर पानी के हर स्रोत को जिन्दा कर देना और फिर उसे बड़े पैमाने पर फैलाना ऐसा काम है जिसे गांव-गांव जल-आन्दोलन छेड़े बगैर हासिल करना मुमकिन नहीं।
सूखे की कीमत
सूखे इलाके सिर्फ वही नहीं हैं जहां पानी तरसा कर बरसता है बल्कि वो भी, जहां जमकर बरसता है पर उसे संभालने की तैयारी नहीं होती। जहां समाज पानीदार नहीं है, वो जमीनें भी सूखी ही हैं। जहां साझी संस्कृति को लेकर बेपरवाही है और एकल-सफलताओं का ढिंढोरा ज्यादा है, उनकी आगे की राह और भी मुश्किल है। इस रूखेपन से परे सनातन सोच सबको शामिल करते हुए, सबके हासिल पर टिकी है जिसके निशां अगर कहीं नजर आएं तो वो पूरी रोशनी में साफ-साफ और दूर तक नजर आने चाहिए। देश के 624 सूखे इलाकों में से हर साल सूखे की चपेट आने वाले करीब 113 जिले राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक सहित नौ राज्यों में हैं।
सरकारी योजनाएं खूब हैं, लेकिन साझी सोच से उन्हें जमीन पर उतारने की कवायद आज भी बड़ी है। पानी, खेती और मिट्टी की फिक्र करने वालों के लिए अब यही सबसे बड़ी चुनौती है कि योजनाओं को खींच कर अपने यहां लाने के साथ ही टिकाऊ खेती के लिए अपनी जमीन और किसानों के मन कैसे तैयार करें? जहां पानी को बांधने और बाजार के मुताबिक मुनाफे की खेती का मन बन रहा है, वहां संगठन की सोच को पुख्ता कैसे करें? दुनिया की कारोबारी ताकतें अब भारतीय खेतों पर नजर टिकाए हैं, उन्हें डेटा चाहिए। माइक्रोसॉफ्ट और अमेजन सहित पांच कम्पनियां इस दौड़ में उतर चुकी हैं। सरकारें भी उनके साथ हैं। मगर देश के अपने लोगों के बीच जो करार हो रहा है, असल में किसानों की किस्मत बदलने की जमीन वहीं तैयार हो रही है। इन मिसालों पर गौर करें तो ये उम्मीद की पैदावार हैं जिनके लिए खरीदार तैयार करना समझदारी और जिम्मेदारी दोनों है।
माढ़ा को तर करता ‘बेंद’
साल भर में 488 मिलीमीटर बारिश वाला महाराष्ट्र का सोलापुर जिला सूखे और किसानों के मजदूरी के लिए पलायन की वजह से ही सुर्खियों में रहा करता था। यहां के माढ़ा तालुक के 12 गांवों और 2 नगर पंचायतों ने इस पहचान को मिटाने का ऐलान किया तो पहला सिरा पानी का ही थामा। कुरूड़ गांव से गुजरता 37 किलोमीटर लम्बा बेंद नाला आज अपने पूरे बहाव में है तो वो दर्जन भर इलाकों के हजारों किसानों की तकदीर की ताजा तस्वीर भी है। आज के दौर में जहां खेती की जमीनों पर कारोबारियों और नेताओं की खराब होती नीयत के किस्से जग-जाहिर हैं, उस दौर में किसानों का अपने नदी-नालों की खुदाई के रास्ते में आई बेशकीमती जमीनें दिल खोलकर देना बड़ी खबर होनी चाहिए। इस खुली सोच को अपने हिस्से का मानकर चलने वाले माढ़ा के पढे़ लिखे युवाओं ने सूखे और पलायन का जो दर्द देखा था, उससे निजात पाना पहला ध्येय रखा। समुदाय सुलझा हो, जुड़ा हो और एक मन में पिरोया हुआ हो तो धनराज शिंदे जैसे जोश और सोच से भरपूर युवाओं को काम करने की जमीन मिल जाती है।
जिन नदी-नालों को सिर्फ कहावतों में सुना था, उनके निशान खोजे और बैठकर हिसाब-किताब लगाया। मिट्टी में दबे बेंद नाले की मरम्मत, खुदाई और छोटे बांध बनाकर पानी रोकने में होने वाले करीब नौ करोड़ के काम को सरकार के बूते करने में खासे पसीने आते। पानी को बांधने, मिट्टी की सेहत सुधारने, अच्छी फसलें और फिर किसानों के संगठन के जरिए ही बाजार तक पहुंचाने का पूरा खाका था दिमाग में। इस शिद्दत ने नदियों को जीवित करने में बेहद खामोशी से जुटी ह्णनामह्ण फाउण्डेशन का साथ हासिल किया और नौ करोड़ का काम समुदाय और संगठन की भागीदारी से 10-12 लाख में दो साल में ही निपटा लिया। ये मिट्टी-फसलों की संभाल करने वाले समाज की समझदारी थी जिसने बिना चूक किए बहाव के सारे रास्ते खोल दिए।
हौसलों और उम्मीद का गांव
नदियों के कुदरती बहाव पर कब्जे जमाकर उसका गला घोंटने के अपराध हर शहर और हर गांव में हो रहे हैं, मगर जो सूखे इलाके देश की उपजाऊ जमीन का 68 प्रतिशत हिस्सा है, उनमें से चन्द ही हैं जहां समुदाय बड़े बदलाव के लिए जुटकर उम्मीद की फसलें उगा रहे हैं। कुरूड़ गांव की सुमन सहित बगल के ही गांव भोसरे में महेश आनन्द, नितिन सुरभान, हनुमन्त, सहित कई किसान अपनी मेहनत की एक-एक बूंद का हासिल दिखाने के साथ ही ये भी बता देंगे कि जो पानी अब तक 600-700 फुट की गहराई पर पकड़ में आता था, बेंद नाले के जीवन्त होने से अब 5-7 फुट तक आ पहुंचा है। इसे कोई करिश्मा माने न माने, लेकिन ये इन्सान की लगन के सबूत तो हैं ही।
जिन नदी-नालों को सिर्फ कहावतों में सुना था, उनके निशान खोजे और बैठकर हिसाब-किताब लगाया। मिट्टी में दबे बेंद नाले की मरम्मत, खुदाई और छोटे बांध बनाकर पानी रोकने में होने वाले करीब नौ करोड़ के काम को सरकार के बूते करने में खासे पसीने आते। पानी को बांधने, मिट्टी की सेहत सुधारने, अच्छी फसलें और फिर किसानों के संगठन के जरिए ही बाजार तक पहुंचाने का पूरा खाका था दिमाग में। |
यहां के गांवों में मवेशियों की आबादी अच्छी-खासी है और घर-घर में कम से कम दर्जन भर गायें पल रही हैं। हर दिन हजारों लीटर दूध बिकने जाता है और अब तक फसल खराब होने पर कमाई का सिर्फ यही जरिया रह जाया करता था। आज इनके लिए हरा चारा भी है और पीने के पानी का इन्तजाम भी। भरे-पूरे मन वाले यहां के करीब डेढ़ हजार से ज्यादा परिवारों की पानी की फिक्र खत्म हुई तो अब खेती में नवाचार करने शुरू किए हैं। किसानों की आंखों का पानी अब गम का नहीं, खुशी का है। खुद तर हुए हैं तो यहां आने जाने वाले नेताओं के सामने ये बात पुरजोर तरीके से रखना नहीं भूलते कि इस नाले की आगे की खुदाई और हो क्योंकि उसकी जद में आने वाले चार गांवों को भी पानी का हिस्सा मिलना चाहिए। पिछले साल आई बाढ़ में टूटे बांधों की मरम्मत हो, ये जरूरत भी है।
डिजिटल कार्ड, खेत के ताल्लुक
महाराष्ट्र के नासिक सहित देशभर में किसान संगठित होकर अपनी कम्पनियां बना रहे हैं। एफपीओ बनाकर अपनी उपज को अपनी शर्तों और सही दाम में बाजार में बेचने के लिए इस साल तक किसानों की दस हजार कम्पनियां खड़ी होते देखने का लक्ष्य केंद्र सरकार ने रखा है। उद्यमिता को अपनाने वाले किसानों के लिए संगठित होकर काम करने की राह खोलने वाली नीतियों ने माढ़ा जैसी पहल को मजबूती दी है। मगर यहां के विट्ठलगंगा फॉर्म प्रोड्सूर कम्पनी के चार हजार किसानों के संगठन की असल कहानी पानी को जमीन की कोख से खींच लाने की बड़ी कामयाबी की है। साल भर में एक फसल के लिए तरसने वाले किसान पानी की फिक्र से बरी होकर, फसलों के नवाचार में लगे हैं। साल भर में दो फसलें ले पा रहे हैं, जैविक खाद के इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं। जवार, गेहूं, मक्का, तुहर, प्याज सहित अनार और अंगूर की खेती कर रहे हैं। देश-विदेश की मांग को ध्यान में रखकर आने वाले वक्त की योजना बनाकर यहां की हवा-मिट्टी में उगने और अच्छी कमाई वाली फसलों की जानकारी ले रहे हैं, उगा रहे हैं। संगठन की ओर से चलाए जा रहे आकुण्ठ फॉर्म में किसान शेयर धारक हैं। पांच कम्पनियों से उनका करार है और प्रयोगशाला जांच और दूसरी सुविधाओं के लिए भी सरकारी-गैर-सरकारी सहयोग लेकर आगे बढ़ रहे हैं। बीजों का चुनाव, खाद, मिट्टी की जांच, खेत की सेहत और बाजार की जरूरत सहित कमाई का लेखा-जोखा स्मार्ट कार्ड के जरिए हासिल हो जाता है। लेकिन डिजिटल दुनिया, तकनीक और मशीनों से बड़ी ताकत सोच की ही है।
स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं से एक संवाद के दौरान खेती को सबसे अच्छा पेशा बताते हुए कहा था कि पढ़े-लिखे युवाओं को गांवों में जाकर आधुनिक विज्ञान को खेती से जोड़ना चाहिए। आज माढ़ा जैसे इलाकों की तकदीर बदलने के लिए खेती और उद्यमिता को साथ लेकर चलने वाली पूरी जमीनी फौज है। पानी से मिट्टी और मिट्टी से खेत के ताल्लुक को पुख्ता करने की लगन में लगे समुदायों को देख-सुनकर देश के बाकी सूखे इलाके भी तर होने की गुंजाइश तलाश पाएं, ये जिम्मा और इसका हासिल सब साझा है।
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