डॉ. आनंद पाटील
कुछ दिनों पूर्व चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने आर्थिक संकट को देखते हुए तथा अपने प्रभाव को बढ़ाने के उद्देश्य से श्रीलंका एवं मालदीव का दौरा किया था परंतु, ऋण-जाल के आधिक्य पर इनकी सजगता ने चीन की मंशा को विफल कर दिया है। रिपोर्ट्स बताती हैं कि श्रीलंका लगभग दिवालिया हो चुका है और वह अपने इतिहास में पहली बार इतने भयावह आर्थिक संकट से गुजर रहा है। महंगाई दिन-प्रतिदिन परवान चढ़ रही है। देखते-देखते 5 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गए हैं। जिस पर्यटन से विदेशी मुद्रा की गाढ़ी कमाई होती थी, उसे कोरोना ने बुरी तरह जकड़ रखा है। श्रीलंकाई वर्तमान दुर्दशा के लिए एक ओर कोरोना, तो दूसरी ओर चीनी ऋण-जाल को दोष दे रहे हैं। ज्ञातव्य है कि कोरोना भी चीन द्वारा ही प्रसारित बताया जाता रहा है। ऐसे में, पुन: चीनी सहायता की मंशा को भांपकर इन देशों ने उसे और अधिक पैर पसारने का अवसर नहीं दिया है।
किसी भी देश की सम्प्रभुता, उसकी आत्मनिर्भरता और भावात्मक रूप से जुड़े मित्र राष्ट्रों के वांछित सहयोग से ही अक्षुण्ण रह सकती है। किसी भी साम्राज्यवादी शक्ति का आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप देश की शक्ति और सम्प्रभुता को क्षीण ही करता है। तुलसीदास ने ‘पराधीन सपनेहुं सुखु नाहीं’ में पराधीनता को अकारण ही अभिशाप नहीं माना। कवि गिरधर कविराय ने ‘घर-आंगन आवै अनगैरी, हित की कहै बनाय जानिए पूरो बैरी’ में सार्वकालिक संदेश दिया है। श्रीलंका एवं मालदीव में चीन की निरंतर बढ़ती रुचि, लालसा और उसे प्रतिफलित करने हेतु हस्तक्षेप दोनों देशों को नवऔपनिवेशिक पराधीनता के गर्त में धकेल रहा है।
यद्यपि चीन साम्यवाद का झण्डाबरदार देश है, तथापि अविवादित रूप से वह एक साहूकार देश है और ‘मुक्त व्यापार’ के नाम पर विस्तारवादी सोच के साथ नव-उपनिवेश बनाने में सतत क्रियाशील है। उसकी ‘बेल्ट एण्ड रोड’ योजना में आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक एवं सामरिक दृष्टि भी अंतर्निहित है। श्रीलंका एवं मालदीव भी इस परियोजना से जुड़े हैं। इससे चीन विश्व में अपनी बाजार पैठ ही नहीं, अपितु हर तरह से पैठ बनाकर वैश्विक ‘महाशक्ति’ बनने के लिए आतुर है। रिपोर्ट्स के अनुसार श्रीलंका की स्थिति अतिविकट है। एक ओर ऋण का बोझ है, तो दूसरी ओर कोरोना महामारी से सारी अर्थव्यवस्था ठप्प हो चुकी है। ऐसे में, चीन के वांग यी ने ‘हित की कहै बनाय’ के तर्ज पर नवीन प्रस्तावों के साथ श्रीलंका और मालदीव का दौरा किया था परंतु, ‘गैर’ एवं ‘बैर’ भाव की प्रत्याशित जाग्रति के कारण चीन को विफलता मिली है।
चीनी कर्जजाल में फंसा श्रीलंका
श्रीलंका पहले से ही चीन के 5 अरब डॉलर से अधिक ऋण-बोझ तले दबा हुआ है। ऐसे में, आर्थिक संकट से उबरने के लिए गत वर्ष श्रीलंका ने चीन से ही 1 अरब डॉलर का ऋण लिया है। इससे श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भंडार की अधिकतम राशि चीनी ऋण का ‘ब्याज’ चुकाने में चली जाती है। श्रीलंका के लिए आगामी एक वर्ष में घरेलू और विदेशी ऋण मिलाकर 7.3 अरब डॉलर का भुगतान करना अनिवार्य है। जबकि नवंबर 2021 के अंत तक श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग 1.6 अरब डॉलर तक गिर चुका है। स्मरणीय है कि चीन ने श्रीलंका को इतनी अधिक मात्रा में ऋण दिया है कि वह चाहकर भी 100 वर्षों तक उससे मुक्त नहीं हो सकता है। ऐसी ही लाचारी में वह चीन की वित्तपोषित परियोजनाओं के ऋण-जाल में फंसता जा रहा है।
चीनी साम्राज्यवाद का दंश
हंबनटोटा पोर्ट ऐसी ही परियोजना थी, जिसे 2017 में चीन मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स लिमिटेड को 1.12 अरब डॉलर में 99 वर्षों के लिए पट्टे पर दिया गया है। चीन के द्वारा हंबनटोटा का मनोनुकूल दोहन करने की रिपोर्ट्स भी आती रही हैं। ऐसी परिस्थिति में वांग यी ने श्रीलंका के विदेश मंत्री जी. एल. पीरिस के साथ बातचीत के दौरान हिंद महासागर द्वीप देशों के विकास के लिए एक फोरम स्थापना का नया प्रस्ताव रखा था, जिससे चीनी प्रभाव बढ़ने की संभावना थी। एक ओर चीन का विस्तारवाद है, तो दूसरी ओर उसका ऋण रूपी परोपकारी मुखौटा!
उल्लेखनीय कि चीन ने हंबनटोटा पोर्ट को बहुउद्देशीय (रणनीतिक) बंदरगाह बनाकर श्रीलंका को फंसा रखा है। गत वर्ष ‘मित्रता की मिसाल’ पेश करते हुए उसने बिना अनुमति के ही रेडियोएक्टिव पदार्थों से भरा जहाज पोर्ट पर खड़ा कर दिया था। श्रीलंका चीन द्वारा निर्मित ऐसी आपद स्थितियों से घिरा हुआ है। चीन के बढ़ते हस्तक्षेप को श्रीलंका के सार्वजनिक स्थान एवं सरकारी कार्यालयों में लगे साइन बोर्डों की भाषा के जरिए भी देखा जा सकता है। तमिल श्रीलंका की एक राष्ट्रभाषा है परंतु उसकी जगह मंडारिन का प्रयोग किया जा रहा है। यह चीन के ‘भाषायी साम्राज्यवाद’ का अन्यतम उदाहरण है। देखना होगा कि श्रीलंका और मालदीव ड्रैगन को कैसे नियंत्रित करते हैं।
सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट के अनुसार, चीन के ‘बेल्ट एण्ड रोड’ के अंतर्गत श्रीलंका और मालदीव दोनों ही ऋण-संकट की चपेट में हैं। इस दृष्टि से मालदीव को ‘अत्यधिक कमजोर’ माना जा सकता है, जबकि श्रीलंका को ‘काफी कमजोर’ माना जाता है। इसलिए श्रीलंका देश की अर्थव्यवस्था और राजनीति में बढ़ती चीनी घुसपैठ से चिंतित हैं।
श्रीलंका-मालदीव में चीन के प्रति सतर्कता
यूरोपियन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज की रिपोर्ट में वांग यी के दौरे की विफलता के कारण रेखांकित हैं कि राष्ट्रवादी श्रीलंकाई और मालदीवियों में अपनी सम्प्रभुता को लेकर गहरी चिंता थी। उन्हें लगा कि ऋण-जाल की कूटनीति के आत्यंतिक उपयोग से चीन उनकी सम्प्रभुता का निरंतर अपक्षरण कर रहा है। विशेषत: सुशिक्षित श्रीलंकाई आशंकित थे कि देश की विकट आर्थिक स्थिति चीन के लिए शोषण का माध्यम बन सकती है। ध्यातव्य है कि गत वर्ष श्रीलंका सरकार ने चीन-समर्थित कोलंबो पोर्ट सिटी को नियंत्रित करने वाला एक विवादास्पद विधेयक पारित किया है। श्रीलंका के प्रभावशाली बौद्ध भिक्षुओं ने इस बिल का विरोध करते हुए कहा कि वे अपने देश में कभी भी ‘चीनी उपनिवेश’ की अनुमति नहीं देंगे।
संभवत: देश की सम्प्रभुता और संसाधनों को बचाने की दृष्टि से मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह ने भारत के साथ संबंध प्रगाढ़ कर चीनी प्रभाव और ऋण-जाल को सीमित किया है। 2018 में सोलिह चीन समर्थक अब्दुल्ला यामीन को हटाकर राष्ट्रपति बने थे। सोलिह के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत-मालदीव संबंध पटरी पर आए हैं। सोलिह ने चीन के आक्रामक शोषणकारी रवैये को देखते हुए समीकरणों को संतुलित करने का प्रयास किया है।
भारत से मिला सहयोग
भारत ने हाल ही में एक वित्तीय पैकेज में श्रीलंका को मुद्रा विनिमय, ऊर्जा सुरक्षा और खाद्य और चिकित्सा आयात के लिए ऋण की गारंटी दी है। माले में वांग यी के आगमन से ठीक एक दिन पहले भारत ने मालदीव में आठ उच्च प्रभाववाली सामुदायिक विकास परियोजनाओं के लिए राशि जारी की। ये परियोजनाएं एम्बुलेंस की खरीद और शिक्षा से संबंधित हैं। अत: स्थानीय लोगों को सीधे प्रभावित करेंगी।
श्रीलंका के तमिल प्रगतिशील गठबंधन के नेता मनो गणेशन भारत की भू-राजनीतिक चिंताओं की सराहना करते हुए भारत को अपना ‘निकटस्थ परिवार’ और चीन ‘दूर का रिश्तेदार’ मानते हैं। उन्होंने द्वीप के दक्षिणी हिस्से में चीन के नियंत्रण को देखते हुए ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ की याद दिलायी है।
तमिल नेशनल एलायंस जाफना जिले के विधायक एस. श्रीधरन ने चीन की परियोजनाओं पर जारी कथित कार्यों पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि ‘भारत को इस प्रकार भड़काएं नहीं। चाहें जितनी समस्याएं हों, तमिल हमेशा भारत के साथ खड़े रहेंगे क्योंकि उनके साथ हमारा सीधा संबंध है।’ इससे भारत-श्रीलंका संबंध की भावात्मक एकता का अनुमान लगता है।
चीन की गिद्धदृष्टि को देखते हुए भारत ने अग्रज की भूमिका का निर्वाह किया है और 912 मिलियन डॉलर ऋण के साथ-साथ भारत से भोजन एवं ईंधन की खरीद के लिए 1.5 बिलियन डॉलर का सहज सुलभ ऋण देकर उसे तनावपूर्ण स्थिति से राहत दी है। भारत के विपरीत अधिकांश चीनी ऋणों की ब्याज दरें कमर्शियल हैं। भारत जैसे भावात्मक मित्र राष्ट्रों का यह दायित्व भी है कि अपने पड़ोसी मित्र राष्ट्रों पर कोई आँच न आने दे और उनका साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा दुरुपयोग, दोहन एवं पतन न होने दे।
चीन जब किसी देश को पूर्णत: आश्रित बनाता है, तो उसकी स्थिति घुटनों के बल बैठाने से लेकर नाक रगड़ने तक अतिदयनीय बना देता है। पाकिस्तान की दुर्दशा से विश्व परिचित है ही। चीन ने अपनी ऋण-जाल में पाकिस्तान के बुरी तरह दबोच रखा है। दृष्टव्य है, संरचनात्मक स्तर पर समतामूलक समाज की कल्पना करनेवाली सैद्धांतिकी के गर्भ से उत्पन्न तानाशाही का प्रदर्शन करते हुए चीन ने पहले तो पाकिस्तान के मजदूरों को चीनी मजदूरों की तुलना में असमान मजदूरी दी। जब पाकिस्तानी मजदूरों ने चीन की इस असमानता के विरुद्ध विद्रोह किया, तो चीन की ओर से ‘चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर’ एवं ‘बेल्ट एंड रोड’ जैसी 62 अरब डालर की परियोजनाओं पर रोक लगा दी। दासू हाइड्रोपावर परियोजना के रोजगार अनुबंध भी रद्द कर दिए। चीन की दृष्टि में गुलामों को बोलने की ही स्वतंत्रता नहीं होती, भला विरोध-प्रदर्शन की कैसे हो सकती है? पूरा विश्व जान रहा है कि पाकिस्तान के पास चीनी तानाशाह के पैर सहलाने से इतर कोई उपाय नहीं है। चीन की यही फितरत है कि वह राजनीतिक शतरंज की बिसात पर अन्य देशों को बिछाकर अपना विस्तारवादी खेल खेलते हुए दबदबा बनाना चाहता है। श्रीलंका और मालदीव को भी वह इसी प्रकार घेरने का काम कर रहा है।
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