पूर्णिया जिले के जलालगढ़ प्रखंड के चक गांव के किसान लंबोदर महतो कहते हैं, ''इस बार धान की खेती बाढ़ के कारण खत्म हो गई। इसके बाद गेहूं और मक्का बोने का समय आया तो डीएपी खाद नहीं मिली। इस कारण जो फसल लगी, वह कमजोर है। अब फसल में यूरिया और पोटाश डालना जरूरी है, तो इन दोनों की भी भारी कमी है। ऐसे में उत्पादन कम होना तय है। इसका मतलब है किसान ने जो खर्च किया है, वह भी उसे नहीं मिलेगा। इसका असर किसान पर तो पड़ेगा ही, आम उपभोक्ता को भी नुकसान होगा।''
लंबोदर जैसी पीड़ा बिहार के हर किसान की है। भागलपुर जिले के गोपालपुर गांव के सत्तन यादव कहते हैं, ''खाद मिलती है, लेकिन कालाबाजारी में और काफी महंगी। डीएपी की 1150 रु. वाली बोरी 1600—1700 रु. में मिल रही है। ऐसे में यदि कोई किसान 10 बोरी डीएपी लेता है, तो उसे 6,000 रु. अतिरिक्त खर्च करने पड़ रहे हैं और यह खर्च भी हर किसान नहीं कर सकता है। इसलिए सरकार खाद की किल्लत को जल्दी दूर करे।''
कटिहार जिले के पोखरिया गांव के किसान प्रदीप कहते हैं, ''इन दिनों यूरिया की बेहद जरूरत है, लेकिन मिल नहीं रही है। किसी दुकानदार के पास है तो वह उसके साथ कुछ और सामान खरीदने की बात कहता है। जैसे कोई दुकानदार कहता है कि कीटनाशक लोगे तभी यूरिया मिलेगी। जब कीटनाशक की जरूरत ही नहीं है, तो किसान उसे क्यों खरीदेगा! लेकिन मजबूरीवश किसानों को ऐसा करना पड़ रहा है। इससे खेती की लागत बढ़ रही है और उपज क्या होगी, यह तो कोई नहीं बता सकता।''
बांका जिले के रजौन के एक किसान भवेश चौधरी का कहना है कि 2014 से पहले यानी डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार के समय खाद की कमी होती थी। 2015 के बाद तो खाद की कोई कमी नहीं थी, लेकिन इस बार ऐसी कमी हुई है कि किसान खेती करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।
रसायन और उर्वरक मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 1 अक्तूबर, 2021 से 18 दिसंबर, 2021 के बीच की अवधि में बिहार को 288.065 हजार मीट्रिक टन डीएपी खाद की जरूरत थी, लेकिन इसकी उपलब्धता केवल 276.567 हजार मीट्रिक टन ही रही। यानी लगभग 11.5 हज़ार मीट्रिक टन की कमी रही।
समाचार संपादक, पाञ्चजन्य | अरुण कुमार सिंह लगभग 25 वर्ष से पत्रकारिता में हैं। वर्तमान में साप्ताहिक पाञ्चजन्य के समाचार संपादक हैं।
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