प्रधानमंत्री नेहरू जी और दूसरे नेताओं का यह कहना कि गोवंश की हत्या पर विभिन्न राज्य अपनी-अपनी व्यवस्था के अनुसार कानून बना लें, ठीक नहीं। जब तक सारे देश में एक साथ गोवध बन्द नहीं होगा तब तक एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में गाय- बैल ले जाकर कत्ल किए जाते रहेंगे। एक ओर कहा जाता है, राज्य सरकारों को गोवध बन्द करने की खुली छूट है। जैसा चाहें वे कर सकते हैं पर वास्तव में केन्द्र सरकार और उसके नेता सम्पूर्ण गोवध निषेध का कानून बनाने से रोकते हैं। जैसा कि भारत सरकार के कृषि मंत्रालय से जारी किए गए 20 दिसंबर,1952 के पत्र से स्पष्ट है। इस पत्र द्वारा संविधान की धारा 48 के अर्थ का अनर्थ ही नहीं किया गया,बल्कि सभी राज्यों को सम्पूर्ण गोवध बन्दी का कानून बनाने से भी रोका गया। निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि केन्द्र सरकार ने भोपाल में राज्य सरकार की योजना होते हुए भी गोहत्या-निषेध का कानून नहीं बनने दिया तथा हैदराबाद में विधेयक उपस्थित करने में भी रुकावट डाली। पिछले छह साल के अनुभव से निश्चित तौर पर यह परिणाम निकलता है कि भारत सरकार और उसके नेता अनुपयोगी ही नहीं, उपयोगी गोधन का भी वध् जारी रखना चाहते हैं।
अंग्रेजी राज्य के समय प्राय: कसाईखानों में ही गोवध होता था। उसकी संख्या का अनुमान किया जा सकता था, परन्तु आज तो कसाई निर्भय होकर घरों और खुले खेतों तक में गोहत्या करते हैं।
अत: मालूम नहीं किया जा सकता कि देश में गोवध की संख्या कितनी है, पर गोमांस और बछड़ों की खालों के निर्यात से यह अनुमान किया जा सकता है कि गोहत्या बढ़ रही है। उदाहरणतया 1942-43 में अविभाजित भारत से बछड़ों की ढाई लाख खालें विदेशों को भेजी गई थीं, पर 1952-53 में भारत से बीस लाख बछड़ों की खालों का निर्यात हुआ है। इनमें बछड़ों की खालें प्राय: कत्ल से प्राप्त की गई हैं, क्योंकि मृत्यु से बछड़ों की अधिक खालें प्राप्त नहीं होतीं। जो मिलती भी हैं वह अच्छी नहीं होतीं, अत: प्राय: खालें कत्ल से ही प्राप्त की जाती हैं। बछड़ों के अतिरिक्त अन्य प्रकार की खालें, चमड़े और चमड़े का सामान तथा हड्डी का निर्यात भी बढ़ रहा है। 1952-53 में दिल्ली से हवाई जहाज द्वारा चार टन या 112 मन खालें, जिनका मूल्य 3459.7 रु. था, भेजी गईं। अंग्रेजों के समय में बूढ़े और निकम्मे पशुओं का मांस जारी रखना चाहते हैं।
अंग्रेजी राज्य के समय प्राय: कसाईखानों में ही गोवध होता था। उसकी संख्या का अनुमान किया जा सकता था, परन्तु आज तो कसाई निर्भय होकर घरों और खुले खेतों तक में गोहत्या करते हैं। अत: मालूम नहीं किया जा सकता कि देश में गोवध की संख्या कितनी है, पर गोमांस और बछड़ों की खालों के निर्यात से यह अनुमान किया जा सकता है कि गोहत्या बढ़ रही है। उदाहरणतया 1942-43 में अविभाजित भारत से बछड़ों की ढाई लाख खालें विदेशों को भेजी गई थीं, पर 1952-53 में भारत से बीस लाख बछड़ों की खालों का निर्यात हुआ है। इनमें बछड़ों की खालें प्राय: कत्ल से प्राप्त की गई हैं, क्योंकि मृत्यु से बछड़ों की अधिक खालें प्राप्त नहीं होतीं। जो मिलती भी हैं वह अच्छी नहीं होतीं, अत: प्राय: खालें कत्ल से ही प्राप्त की जाती हैं। बछड़ों के अतिरिक्त अन्य प्रकार की खालें, चमड़े और चमड़े का सामान तथा हड्डी का निर्यात भी बढ़ रहा है। 1952-53 में दिल्ली से हवाई जहाज द्वारा चार टन या 112 मन खालें, जिनका मूल्य 3459.7 रु. था, भेजी गईं। अंग्रेजों के समय में बूढ़े और निकम्मे पशुओं का मांस जीवन-मरण का प्रश्न है। यह हमारे देश के निर्माण और उत्थान से संबंध रखता है। अत: हम सब भारतीयों को चाहे किसी भी पक्ष से सहमत हों, इस पर ध्यान देना चाहिए।
नेहरू की निराधार दलीलों का उत्तर
भारतीय संस्कृति, प्राचीन परम्परा, विशेषज्ञों की सम्मति और संविधान की धारा 48 द्वारा गोवध निषेध का समर्थन होने पर किसी अन्य दलील की आवश्यकता नहीं, पर प्रधानमंत्री नेहरू तथा पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित और कसाइयों के लाभ को राष्ट्रहित से अधिक मानने वाले सज्जनों द्वारा जनता में जो भ्रम फैलाया जा रहा है उसे दूर करने के लिए उनकी दलीलों का उत्तर देना आवश्यक और अनिवार्य है। नेहरू ने 24 सितम्बर, 1953 को कृषि मंत्रियों के सम्मुख भाषण दिया, जिसका सारांश यह है- 1. अपंग और वृद्ध गोवंश का वध बन्द करना देश के लिए हानिकारक है। 2. गोपूजा करने वाले ही गायों को निकम्मा बनाते हैं। 3. जिन देशों में गोपूजा नहीं होती वहां गायें अच्छी होती हैं। 4. गोवध जारी रहा तो चुनाव पर प्रभाव पड़ेगा, यह ठीक नहीं। हमें चुनाव में निर्भय होकर स्पष्ट तौर पर लूली, लंगड़ी, गायों की हत्या को जारी रखने की नीति बनानी चाहिए।
सरकारी पशु विशेषज्ञों की सिफारिश तथा संविधान की धारा 48 के अनुसार वृद्ध, अपंग गोवंश की हत्या का भी निषेध होना चाहिए। गांधी जी ने 17 जुलाई, 1927 के ‘नवजीवन’ में लिखा है, ‘‘बाजार में बिकने वाली तमाम गायें ज्यादा से ज्यादा कीमत देकर राज्य खरीद ले। तमाम बूढ़े, लूले, लंगड़े और रोगी ढोरी की रक्षा तो राज्य को करनी ही चाहिए।’’
अत: यदि सरकार बुद्धिमानी से काम ले, अपने जंगलों की घास का, जो अरबों मन प्रतिवर्ष व्यर्थ जाती है, ठीक—ठीक उपयोग करे तो अनुपयोगी पशु हानिकारक नहीं, करोड़ों रु. वार्षिक आमदनी का साधन बन सकते हैं। गोवंश को गोपूजकों ने नहीं, बल्कि सरकार की कुटिल और उपेक्षा की नीति ने निकम्मा बनाया है। आज भी अधिक से अधिक दूध देने वाली नौजवान गायों, बछड़ों, बछिया तक का वध जारी है। अच्छी गायें कत्ल हो जाती हैं। जो बचती हैं वह निकम्मी होती हैं। अच्छे सांडों और चारे के साधन का प्रबन्ध सरकार ही कर सकती थी। यह न होने से भी गोवंश निकम्मा हुआ।
पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से साधनों की कमी तथा गरीबी के कारण जनता ने भी परवाह नहीं की, पर वास्तव में जनता की अपेक्षा गाय को निकम्मा बनाने का काम सरकार ने ही किया है।
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