हिन्दू देवता कोरी आस्था नहीं हैं। ये वैदिक काल के ऋषि चित्त की प्रगाढ़ अनुभूतियां हैं। ऋग्वेद में देवताओं के लिए 'देव' शब्द का प्रयोग हुआ है। वैदिक साहित्य में देव का अर्थ प्रकाशमान है। सृष्टि विराट है, यहां अनंत रहस्य हैं। ऋग्वेद और उसके पूर्ववर्ती ऋषियों ने प्रकृति की विराट शक्तियों में दिव्य तत्व देखा। जो दिव्यता प्रकृति में थी, वही उनके हृदय में दीपित हुई। दिव्य दीप्ति से प्रकाशमान चित्त की प्रगाढ़ भाव—दशा में काव्य फूटा। जहां-जहां दिव्यता, वहां-वहां देवता। समूचा ऋग्वेद ऐसी ही दिव्यशक्तियों की असाधारण काव्य स्तुति है। पश्चिमी विद्वानों को शिकायत है कि ऋग्वेद का देवतंत्र अविकसित और अधूरा है। ये यूनानी देवताओं की तर्ज पर सुनिश्चित आकृति और आकार वाले नहीं हैं। अनेक विद्वान इसी आधार पर वैदिक सभ्यता और हिन्दू धर्म व संस्कृति पर पिछड़ेपन का आरोप लगाते हैं। उनका आरोप सही नहीं है। ऋग्वेद के देवतंत्र में दार्शनिक चिन्तन है। इनका मानवीकरण भी है, लेकिन दर्शन के तल पर समूचा अस्तित्व एक ही रहता है इसलिए देवों के पृथक अस्तित्व भी हैं। साथ में अद्वैत भी है। ऋग्वेद के देवता पहले से हैं। ये ऋग्वेद के रचनाकाल में भी स्तुतियां पाते हैं, लेकिन तब तक उच्च स्तर के दार्शनिक चिन्तन का भी विकास हो चुका है। दर्शन और विज्ञान का विकास देवताओं की प्रतिमाएं ढहाता है, उन्हें मजबूत नहीं करता। यूनान में सुकरात ने देवताओं की खोज का ही दार्शनिक काम शुरू किया था कि उन्हें प्राणदण्ड भोगना पड़ा।
ऋग्वेद के ऋषि पूर्व स्थापित देवतंत्र के द्रष्टा दार्शनिक हैं। ऋग्वेद का देवतंत्र ऋग्वेद के पहले का है। उसका विकास भारत में हुआ है। ऋग्वेद में देवों का मानवीकरण है। देवों की चरित्रगत विशेषताओं के अनुरूप उनका पृथक्करण है। दर्शन इस मानवीकरण को मिटा भी रहा है। ऋग्वेद के ऋषि तत्वबोध से युक्त हैं। दुनिया की अन्य देव-आस्थाओं की तरह वे देवताओं को सृष्टि का रचनाकार नहीं मानते। ये यथार्थवादी हैं, वे पूर्वकाल को भी कई खण्डों में बांटते हैं। एक समय देवताओं से भी पहले का है, जब असत् से सत् उत्पन्न हुआ (ऋ. 10.72.3)। देवता इसी समय के बाद स्वीकृत हुए। ऋषि देवताओं की खोज और वर्णन का संकल्प लेते हैं- देवानां नु वयं जाना प्र वोचाम विपन्यया हम देवों के प्रादुर्भाव का वर्णन उत्तम वाणी से करते हैं। ऋषि कहते हैं असत् से सत् आया। सम्पूर्णता से दक्ष आए। दक्ष से अदिति आई।(यहां सृष्टि के सतत् प्रवाह का वर्णन है। ब्राह्मणस्पति(अदिति ने लोहार की तरह इन्हें पकाया,गढ़ा)अदिति क्षमता से अमृत बंधु देवों का जन्म हुआ— तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृत बन्धव:।(वही,2—5)इसके बाद ऋषि देवों को सम्बोधित करते हैं, 'हे देवो! जब आप इस विस्तृत सलिल(मूल तत्व जल)में प्रतिष्ठित हुए तब आपके नृत्य से तीव्र रेणु प्रकट हुए अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपायत'(वही, 6)। देवता प्रकृति की शक्तियां हैं। सृष्टि रचना के पूर्व अव्यक्त अवस्था में वे पृथक नहीं हैं। इसीलिए देवों से पहले के युग की बात कही गई है। उस युग में असत् में सत् उत्पन्न हुआ। जब सृष्टि का सृजन हुआ तब देव भी जन्मे। ऋग्वेद में सम्पूर्ण व्यक्त जगत का एक नाम है अदिति। अदिति द्युलोक है, अंतरिक्ष है, माता-पिता और पुत्र है, पांचों जन है, जो उत्पन्न हो चुका है और होगा, वह सब अदिति है।(1.89.10) आदित्य सूर्य भी उसी से उत्पन्न हुए हैं।
यास्क ने 'निरुक्तं' (7.1) में देवता की परिभाषा की है— तद्यानि नामानि प्राधान्य स्तुतीनां तद्देवतम् अर्थात् ऋषियों ने प्रमुखता से जिनकी स्तुति की, वे देवता हैं। इस तरह लोकजीवन में भी कण-कण देवता हैं। लेकिन ऋग्वेद से लेकर उत्तरवैदिक काल तक मुख्य देवता 33 ही हैं। विश्वामित्र अग्नि से प्रार्थना( ऋ.3.6.9) करते हैं, 'हे अग्निदेव! हमारे यज्ञ में आप 33 देवों को पत्नियों सहित लाएं।' इससे यह भी पता चलता है कि सभी प्रमुख देवता विवाहित हैं। लेकिन देवता और भी थे। विश्वामित्र एक मंत्र(3.9.9) में कहते हैं, 'तीन हजार तीन सौ उनतालीस (त्रीण शता त्री सहस्त्राणि त्रिंशच्च देवा) देवताओं ने अग्नि की पूजा की है।'' भारतीय लोकमानस ने 33 कोटि (प्रकार) देवताओं को कहीं—कहीं 33 करोड़ भी मान लिया है। लेकिन शतपथ ब्राह्मण(19.6.3.5) में 33 देवताओं की सूची है। आठ वसु हैं, 11 रुद्र हैं, 12 आदित्य तथा इन्द्र और प्रजापति सहित कुल 33 देवता हैं।
वृहदारण्यक उपनिषद्(3.9) में याज्ञवल्क्य ने शाकल्य को बताया कि मंत्रों के अनुसार देवता 3306 हैं। शाकल्य ने कहा ठीक है लेकिन देवों की संख्या बताओ। याज्ञवल्क्य ने कहा,33 फिर 33 देवों को 'महिमा' की संज्ञा देते हुए कहा 'महिमान एवेषामेते' फिर 33 देवों की वही नामावली भी दोहराई। शाकल्य ने पूछा, आठ वसुवायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्रमा और नक्षत्र ये वसु हैं, सो क्यों? ऐसा इसलिए कि 'सर्व हितमिति तस्माद वसव इति समूचा विश्व इन्हीं के भीतर (बसता) है।' इस पर शंकराचार्य का प्रीतिकर भाष्य है, 'जगदिदं सर्व वासयन्ति वसन्ति च, ते यस्माद वासयन्ति वे' यानी ये सम्पूर्ण जगत् अपने अन्तस में बसाए हुए हैं, स्वयं भी इसी में बसते हैं इसीलिए वसु हैं। याज्ञवल्क्य ने बताया पुरुष की 10 प्राण— इन्द्रियां और 11वां आत्मा मन। ये शरीर छोड़ते समय संबंधियों को रुलाते हैं। शंकराचार्य के भाष्य में 'रोदन के निमित्त होने से रुद्र कहलाते हैं।' (वही) तब 12 आदित्य कौन हैं? याज्ञवल्क्य ने बताया 'संवत्सर के घटक 12 माह आदित्य हैं, ये सबका 'आदान' (ग्रहण) करते हैं। सो आदित्य हैं। शंकराचार्य की खूबसूरत टिप्पणी है, 'यद् यस्मादेवमिदं सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति' यानी इस सबका आदान इस सबकी आयु का आदान करते चलते हैं इसलिए आदित्य हैं।' (वही 788) तब इन्द्र और प्रजापति कौन हैं? शाकल्य ने पूछा। स्तनपित्नु (सम्पूर्ण सृष्टि की आंतरिक ऊर्जा) ही इन्द्र हैं और यज्ञ प्रजापति हैं। यह स्तनपित्नु क्या है, और यज्ञ क्या है? उसने स्पष्टीकरण मांगा। याज्ञवल्क्य ने कहा अशनि ही इन्द्र है। यज्ञ पशु हैं। शंकराचार्य ने बताया अशनि वज्रवीर्य अर्थात् बल है। वसु सांसारिक यज्ञ चक्र के संचालक हैं। (वही पृष्ठ 789)
यास्क ने निरुक्त(7.14—9.43)में देवताओं के तीन विभाग किए हैं— (1) पृथ्वी स्थानीय (2) अंतरिक्ष स्थानीय और (3)द्यु स्थानीय। पृथ्वी स्थानीय देवों में अग्नि, बृहस्पति, सोम, नदियां और अन्य पृथ्वी क्षेत्रीय प्राकृतिक रूप हैं। द्यु (आकाश) स्थानीय देवताओं में द्यौ, वरुण, मित्र, सूर्य, सविता पूषन, विष्णु, आदित्य विवस्वान, अश्विनी देव और ऊषा आदि हैं। अंतरिक्ष स्थानीय देवताओं में इन्द्र, मित्र, रुद्र, मरुद्गण, अज, आदित्य आदि आते हैं। सभी देवों की स्तुतियों में रूप, गुण के साथ-साथ मानवीकरण उभरते हैं, प्रकृति की शक्तियां और उनकी दिव्यता अलग-अलग देखी जा सकती है, लेकिन दार्शनिक बोध में वे सब एक ही हैं। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में एक शक्ति की धारणा है। प्रकृति की सारी शक्तियां इसी शक्ति के अंतर्गत हैं। इसी सर्वव्यापी शक्ति को कोई भी नाम दे सकते हैं। दूसरे मंडल के पहले सूक्त में अग्नि, इंद्र, विष्णु, ब्रह्मणस्पति, वरुण, अंश (सूर्य), रुद्र, भग, ऋभु आदि के अतिरिक्त अदिति, इला, सरस्वती भी हैं। यही बात संक्षेप में 'एकं सद्' वाले प्रसिद्ध मंत्र में कही गई है। उसे लोग इंद्र, मित्र, वरुण, सुपर्ण, गरुत्मान, अग्नि, यम, मातरिश्वा कहते हैं, वे एक हैं, ज्ञानी उसे अनेक नामों से पुकारते हैं। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।(1.164.46)नाम अनेक हैं, पर सत्य एक है। उसे ऊँ कहें, अदिति, पुरुष, अज, परमात्मा, राम, कृष्ण, शिव किसी भी नाम से पुकारें, वही एक सम्पूर्ण और अविभाज्य अखण्ड सत्ता है।
टिप्पणियाँ