आपने अपना धर्म परिवर्तन क्यों किया?
जी नहीं, मैंने कोई धर्म परिवर्तन नहीं किया। पिछले छठे खानदान तक मेरा परिवार ब्राह्मण परिवार था, जिसने किसी खास मजबूरी के कारण इस्लाम कबूल किया था। आज वह सत्य सामने है और मजबूरियां भी नहीं, इसलिए मैं अपने ही घर में वापस आ रहा हूं। आप इसे धर्म परिवर्तन न कहकर पुनर्गृहप्रवेश कहें तो अच्छा रहेगा। रही बात क्यों किया, तो मेरा यह निश्चित मत एवं विश्वास है (अपने अध्ययन के आधार पर) कि हिन्दुस्तान की 90 प्रतिशत आबादी हिन्दुस्तानी नस्ल से ही ताल्लुक रखती है। जो मुगलों के दौर में या उसके बाद मुख्तलिफ (विभिन्न) लालच एवं दबाव की वजह से धर्म परिवर्तन करती रही।
''आपको अपने पुराने घर'' की याद आने का क्या कारण हो सकता है?
जब मैंने नजरें खोलीं तो एक ऐसे घर में स्वयं को पाया जहां का वातावरण सिर्फ इस्लामी वातावरण था और यही कारण है कि मेरी शिक्षा भी मजहबी शिक्षा ही रही। मेरे अंदर एक जज्बा पैदा हुआ कि मैं अपने पिछले खानदान के बारे में कुछ मालुमात हासिल करुं। इसके लिए मैंने काफी छानबीन की और मैं ब्राह्मण खानदान का (हिन्दू) निकला।
दूसरी बात मेरे अंदर पैदा हुई कि मैं जरा अपने पूर्वजों के धर्म का अध्ययन करूं। इस तालिमी जमाने में दूसरे मजहब की छानबीन के सिलसिले में मुझे मुस्लिम संस्थाओं में काफी दिक्कत और परेशानी उठानी पड़ी। यह एक ऐसा मौका था जब मेरे दिमाग में इस शक ने जन्म लिया कि अगर इस्लाम सही और बेहतर मजहब है तो फिर इस तरह का प्रतिबंध क्यों? मैं अपने अध्ययन के आधार पर यकीन के इस हद तक पहुंचा हूं कि हिन्दू धर्म (वैदिक धर्म) ही असल है।
इस्लाम के एक अच्छे विद्वान के नाते बताएं कि हिन्दुइज्म में इस्लाम की तुलना में कौैन सी विशेषताएं हैं?
हिन्दुइज्म के अध्ययन से मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि हिन्दू कानून में सबको बराबरी का दर्जा दिया गया है। हिन्दुस्तान में हर पराई औरत अपनी मां, बहन या बेटी के समान है। दूसरे की दौलत मिट्टी के ढेले के समान है। कहां है-‘मातृवत् परदारेषु पर द्रव्येषु लोष्ठवत्।’ यहां यह भी कहा गया कि दुनिया के न सिर्फ समस्त इंसान को, बल्कि प्राणिमात्र को मित्र समझना चाहिए। यही एक अकेला धर्म है जहां दुनिया के हर मजहब, पंथ या समुदाय के लोगों की सुख शांति हेतु नि:स्वार्थ भाव से ईश्वर से प्रार्थना की जाती है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:…मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्’। मैंने अमली तौर पर भी देखा, यह बात एक हद तक सत्य है, जबकि इस्लाम ने व्यक्तिगत आराधना पर एवं घृणा तथा हिंसा पर बल दिया। जिहाद एवं जुल्म के लिए प्रेरणा देकर इंसान को क्रूर बनाया।
क्या मुसलमान इस्लामिया निजी कानून को राष्ट्रीयता से ज्यादा अहम मानते हैं?
मेरी समझ एवं अनुभव के अनुसार आमतौर पर मुसलमान इस्लाम एवं कौम से मुहब्बत करता है, मुल्क से नहीं, जबकि हिन्दुइज्म के पूजारी राष्ट्रवादिता में विश्वास रखते हैं। जहां तक मुस्लिम कानून का ताल्लुक है, यह कौम-मुस्लिम—सिर्फ अपने स्वार्थ की हद तक ही मानती है।
(पाञ्चजन्य: 11 अक्तूबर, 1981)
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