आज देश में हिन्दू धर्म के पालन और प्रचार की स्थिति के विषय में आप क्या सोचते हैं?
कहा जा सकता है कि मुस्लिम राज्य की स्थिति से तो आज स्थिति अच्छी है, लेकिन सरकार हिन्दुत्व के प्रति एकदम निरपेक्ष है। हिन्दू धर्म किसी ने आरंभ किया, ऐसा हम नहीं कह सकते। यह तो भगवान के समान अनादि है। गीता में कहा गया है कि जिसका जन्म नहीं होता उसका नाश भी नहीं होता। हिन्दू धर्म की उत्पत्ति नहीं तो नाश भी नहीं…परन्तु ह्रास हो रहा है। 1300 वर्ष तक विदेशी आक्रमणों के बाद भी हम हैं, परन्तु ह्रास हो रहा है। सूर्य-चन्द्रमा का नाश नहीं होता-परन्तु ह्रास होता है। जैसे रात्रि में सूर्यास्त परन्तु प्रात:काल फिर नए सिरे से सूर्योदय।
वर्षा में गंगा में अनेक झीलें मिल जाती हैं। इसी प्रकार विदेशी संस्कृति का प्रभाव बढ़ने पर लोगों के विचारों में परिवर्तन आता है। इसी कारण आज के युगधर्म में धर्म-कर्म के प्रति अनास्था उत्पन्न हो रही है। पानी के बहाव के साथ तैरना कोई आश्चर्य की बात नहीं पर विपरीत तैरना, इसमें साहस लगता है।
रामायण में कुछ भाइयों का वर्णन आया है। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न चार भाई, चारों की माता अलग थीं-फिर भी आपस में कितना प्रेम। बाली और सुग्रीव दो भाई, दोनों की माता एक थीं, फिर भी दोनों एक-दूसरे के शत्रु। एक भाई ने दूसरे को मरवाया। रावण, विभीषण और कुंभकर्ण, ये तीनों भी भाई-माता एक, फिर भी स्वभाव भिन्न, प्रकृति भिन्न, रावण-रजोमुखी, न्याय-अन्याय का विचार नहीं, प्रत्येक इच्छित चीज को चोरी से प्राप्त करना, सीता माता को चोरी से लाया। कुंभकर्ण-तपोगुणी-सदैव सोना, जागना तो इच्छा करना, खाना यही काम।
हमें देशभक्त बनना होगा। बिना किसी लाभ के विचार के, बिना सीट का विचार किए तो आत्मसंतुष्टि, मन की शांति, देश का कल्याण-यही इच्छा मन में रखना। संसार में जो जन्म लेता है वह मरता भी है। लोग कहें कि कैसा अच्छा आदमी मर गया। सदैव लोग हमें बाद में दो मिनट मौन रखकर, रोकर ही हमारा स्मरण समाप्त न कर दें। ऐसा हमें प्रयास करना चाहिए।
विभीषण-सतोगुणी, न्याय-अन्याय का विवेक। रावण के सीता को चुरा कर लाने का कुंभकर्ण ने जगने पर विरोध किया। रावण को सीता को वापस करने को कहा-परन्तु फिर सो गया। साधारण समाज तो आज अन्याय को देखकर केवल मौखिक विरोध कर अपने कार्य में लग जाता है।
विभीषण ने भी विरोध किया। अन्याय का साथ छोड़ दिया। भाई होने पर भी रावण का त्याग किया। यह धार्मिक वृत्ति का लक्षण है। अन्त में रावण और कुंभकर्ण मारे गये। विभीषण का पट्टाभिषेक (राजतिलक) हुआ। आजकल राजनीति में सीट, कुर्सी, पद के लिए दल परिवर्तन है, पर विभीषण ने इसके लिए पक्ष नहीं बदला, बिना किसी आशा—आकांक्षा के रावण का त्याग किया। हमारा भाईचारा भी बिना किसी आशा और आकांक्षा का होना चाहिए। आज भी हम अंग्रेजों के संस्कार, परम्परा कानूनों पर ही चल रहे हैं-इसी कारण देश में अनेक समस्याएं हैं। स्वतंत्रता का अर्थ ही है संस्कृति का पुनरुत्थान। परन्तु हमारा दुर्भाग्य कि भारत में ऐसा नहीं। जितनी भूलें हमारे पूर्वजों ने गत एक हजार वर्षों में नहीं कीं, आजादी के बाद शासकों ने उतनी की हैं। उन्हीं के दुष्परिणाम आज हम देख रहे हैं।
जापान भी हमारे साथ ही आजाद हुआ। उनके यहां जितने लोग मरे, हमारे तो उतने गिरफ्तार होकर जेलों से बाहर आ गए। जापान के लोगों ने ज्यादा कष्ट सहे, काफी नुकसान हुआ; फिर भी वह आज हमसे आगे है। कारण, उन्होंने अपने देश और धर्म की आस्था के आधार पर कर्म का निर्माण किया।
स्वामी जी, देश की परिस्थिति में परिवर्तन लाने के लिए संन्यासियों की भूमिका क्या होनी चाहिए? प्राय: आज यह देखा जाता है कि बड़े-बड़े आलाशीन मठों में वे रहते हैं और सामान्यजन की ओर उनका ध्यान नहीं रहता।
(हंसते हुए) हरिद्वार, ऋषिकेश में बहुत संन्यासी हैं। उन्हें ले जाओ पकड़कर वनवासी क्षेत्रों में। उन्हें जाना चाहिए, यही तो संन्यासी का धर्म है। ईसाई मिशनरी कितनी तेजी से करोड़ों रुपए खर्च कर वनवासी क्षेत्रों में धर्मान्तरण करते हैं-वह भी लोभ—लालच के बल पर। लेकिन हिन्दू समाज जागता ही नहीं। सरकार भी हिन्दू धर्म से ज्यादा ईसाई मिशनरियों का साथ देती है, क्योंकि उनके वोट चाहिए। अब धीरे-धीरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद जैसी संस्थाओं के कारण हिन्दू चेतना फैली है। यह आशाजनक स्थिति है। इस वातावरण को जोर देकर बढ़ाना चाहिए।
छुआछूत, दहेज जैसी सामाजिक बुराइयों के विषय में आपका क्या रुख है?
अस्पृश्य कहे जाने वाले हिन्दुओं को हमने मंदिर में पुजारी (अर्चक) बनाने का प्रशिक्षण देना शुरू किया है। मन बदलने होंगे। अस्पृश्यों की सामाजिक, आर्थिक स्थिति में परिवर्तन करना पड़ेगा। तब स्वयंमेव अस्पृश्यता मिट जाएगी।
जहां तक दहेज की बुराई का प्रश्न है, इस विषय में माताओं को पहल करनी चाहिए। हर मां यह सोचे कि उसके विवाह में माता-पिता को दहेज के कारण कितना कष्ट हुआ था, इसलिए अपने बेटे की शादी में वह दहेज न ले। एक माता ही दूसरी माता के हृदय का कष्ट समझ सकती है। माताएं न लें तो दहेज की बुराई भी खत्म हो जाएगी। दहेज की प्रथा के वर्तमान रूप को शास्त्रों का समर्थन नहीं है। दहेज न लाने के कारण बहुओं को सताना एक अधार्मिक काम है, पाप है।
प्रस्तुति : तरुण विजय
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