समरसता संघ के स्वभाव में 1925 से ही रही है। आगे चलकर इस आग्रह के पीछे बालासाहब देवरस बड़ी प्रेरणा रहे। उनके योगदान को आप कैसे देखते हैं?
समरसता की दृष्टि संघ के स्वभाव में ही है। परंतु संघ की शक्ति क्रमश: बढ़ी है। संघ में तो संघ के जन्म से ही यह व्यवहार है, परंतु बालासाहब जब सरसंघचालक बने, उस समय समाज द्वारा संघ से कुछ सुनने और कुछ मात्रा में उस पर विचार करने और प्रयोग करने की स्थिति भी बन रही थी। आज संघ की बात समाज सोचेगा, करेगा इसका परिमाण बहुत बड़ा है, तब उतना बड़ा नहीं था, लेकिन इसका प्रारंभ हो चुका था। संघ का यह समतामूलक, समरसतामूलक दृष्टिकोण समाज के लिए भी आवश्यक है। (यह दृष्टिकोण) समाज में भी जाना चाहिए। इस दृष्टि से सरसंघचालक बनते ही बालासाहब ने विषय रखा कि अब संघ का मुख्य ध्येय सामाजिक समरसता है। इसकी स्पष्टता स्वयंसेवकों में भी हो और समाज में भी हो, इसलिए बालासाहब ने बहुत सोच-समझकर वसंत व्याख्यानमाला का भाषण कुछ महीनों तक तैयारी के बाद दिया।
वसंत व्याख्यानमाला में बालासाहब के ऐतिहासिक उद्बोधन के बाद संघ कार्य में कौन-कौन से नए आयाम जुड़े?
समाज के साथ जब कार्य शुरू हुआ तो स्वाभाविक रूप से अनेक बातों में नए आयाम जुड़े। समाज के इस भेदभाव के शिकार वर्ग की समस्याएं क्या हैं? उनका मन क्या है? और जो समाज में एक खाई उत्पन्न हुई है, उसके बारे में, उसे पाटने के उपाय क्या होने चाहिए, इस बारे में चिंतन शुरू हुआ। उसमें से सामाजिक समरसता मंच जैसी गतिविधि शुरू हुई।
सामाजिक विभेदों को दूर करने के लिए और उपाय होने चाहिए?
एक सदा के लिए चलने वाला उपाय है कि अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, आजीविका के और सामाजिक आचरण में, सभी भेदभावों को नकारते हुए उचित भूमिकाएं लेना। प्रत्यक्ष व्यवहार की बातों के लिए अपनी आदत बदलना। पूजनीय गुरुजी ने एक बार बहुत अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया। एक स्वयंसेवक ने कहा कि मेरी झोंपड़ी में आएं, चाय पीने के लिए, पास में ही है। वह झोंपड़ी में रहने वाला स्वयंसेवक था। गुरुजी ने कहा, चलो। एक तो ऐसा वर्ग, दूसरा बहुत गरीब। गुरुजी गए तो एक-दो कार्यकर्ता भी साथ थे। आधी झोंपड़ी में यह भी दिख रहा था कि घर की माता चाय बना रही है। बर्तन गंदा जैसा था, छलनी नहीं थी, कपड़े से चाय छानी गई, कपड़ा भी कैसा था, चाय आई तो एक ने कहा, मैं चाय नहीं पीता, दूसरे ने कहा, सुबह से बहुत चाय पी चुका हूं। गुरुजी ने चाय पी ली। बाहर जाने के बाद कार्यकर्ताओं ने पूछा, गुरुजी आपने ऐसी चाय कैसे पी ली? गुरुजी ने कहा, आप लोग उसकी चाय देख रहे थे! मैं तो उसका प्रेम पी रहा था। यही सहजता रखिए। प्रेम-सम्मान समाज की जरूरत है।
समरसता की राह में कठिनाइयां क्या हैं?
सबसे बड़ी जरूरत आदत बदलने की है। दो हजार वर्षों से हम जो कर रहे हैं, उसमें कई बातों में धर्म के नाम पर अधर्म हो रहा है। अपनी पुरानी बातों का मोह यदि छोड़कर नहीं जाता, तो उस मोह को तोड़कर, सत्य के साथ खड़ा होना पड़ेगा। समरसता सतत कार्य है।
आपने कहा कि समरसता सतत चलने वाला काम है। इसमें समाज के विभिन्न घटकों की क्या भूमिका हो सकती है?
एक तो बड़ा अच्छा उदाहरण दीनदयालजी ने रखा है कि गढ्डे में कोई गिरा है और उसको निकालना है तो ऊपर वाले को झुकना होगा। तभी वह हाथ दे सकता है। और नीचे वाले को अपनी ऐड़ियां उठाकर हाथ ऊपर उठाने होंगे। तभी वह उस हाथ को पकड़ सकता है। यह प्रयत्न शुरू हुआ है। ऊपर से झुकने का संकोच हटना चाहिए। ये एक बात है। ऊपर वाले घटक को झुकने का प्रयास करना चाहिए। और नीचे वाला घटक अपनी ऐड़ियां उठा कर हाथ ऊपर कर रहा है, उसमें उसकी जितनी मदद हो सकती हो, वह करनी चाहिए।
सामाजिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में संघ की भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
संघ की सबसे मूलगामी योजना प्रत्यक्ष व्यवहार के आधार पर सबको जोड़ना है। बाहर की परिस्थिति कुछ भी हो, समाज के सब वर्गों के लोग आपस में मित्र बनें। और जैसे एक वर्ग के लोगों में जो मित्र बनते हैं, फिर उनके परिवार भी मित्र बनते हैं, आना-जाना शुरू होता है, पारिवारिक आत्मीयता का व्यवहार होता है, उसी तरीके से सभी वर्गों के परिवार आपस में मिलते-जुलते रहें। जहां-जहां इस प्रकार का व्यवहार होता हो, ‘रोटी व्यवहार-बेटी व्यवहार’ तक में समता लाने का प्रयास होता हो, वहां-वहां अपना हाथ लगे, मदद हो, उसको बल मिले, उसकी विजय हो। यह हमारा कार्य है।
‘एक कुआं, एक मंदिर, एक श्मशान’ के आपके आह्वान के बाद आपको समाज के विभिन्न मत संप्रदायों के अग्रणी नेतृत्व से किस प्रकार की प्रतिक्रियाएं मिलीं?
लगभग सारी प्रतिक्रयाएं अनुकूल रही हैं। विचार के तत्व को तो सौ प्रतिशत ने स्वीकार किया, लेकिन जिनको संघ की जानकारी नहीं है, अथवा जिनको विरोध ही करना है, उन्होंने इसके साथ ही जोड़ दिया कि अच्छा, अब जाग गए क्या? अब तक कहां थे? यह एक प्रकार है। यानी मंदिर, पानी, श्मशान एक हो- इस बात का विरोध नहीं किया, लेकिन मेरे कहने पर शंका का एक प्रश्नचिन्ह लगा दिया। अथवा यह कहा कि यह केवल बोलने की बातें हैं। विषय का सीधा विरोध कहीं नहीं हुआ। बहुत सारा समाज इससे आनंदित हो गया। संघ के सरसंघचालक ऐसा कहते हैं- इस बात से अन्यायग्रस्त समाज में तो एक आशा का संचार हुआ।
समाज समरस हो, एकात्म हो, इसके लिए समाज अपने सामने क्या उदाहरण रख सकता है, उसकी प्रेरणा क्या होगी?
वास्तव में जो प्रेरणा है वह हमारी संस्कृति में है- सत्य, करुणा, शुचिता, तपस्या-धर्म के ये चार पात्र हैं। सत्य क्या है? सत्य हमारी सबसे बड़ी मान्यता है कि सबमें एक ही तत्व है और उसी का आविष्कार सब हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं, कोई अपना-पराया नहीं। सब अपने ही हैं। अब इसका स्वाभाविक परिणाम है कि यदि कोई दुर्व्यवस्था हो तो अपनों के लिए करुणा मन में होनी ही चाहिए। धर्म यानी समाज की धारणा इन दो तत्वों से शुरू होती है कि सब मेरे ही अपने हैं, मैं ही सब में हूं, सब मुझमें हैं और इसलिए कोई दुर्व्यवस्था में न रहे, यह देखना मेरा काम है। यह करुणा आत्मीयता से उपजती है। ऐसा व्यक्ति यदि पवित्र है, स्वार्थी नहीं है, विकारों से दूषित नहीं है, लोभ-दंभ, मोह, काम-क्रोध उसमें नहीं है तो वह अपना जीवन लोक कल्याणकारी ही बनाएगा। लोक कल्याणकारी जीवन उसे धर्म की धारणा देगा। इसलिए धर्म यानी समाज की धारणा-इन चार बातों का ध्यान रखना चाहिए। यह हमारी संस्कृति का आदेश है।
भारतीय दर्शन की बात करें, तो विविधता में एकता हिन्दू समाज की शक्ति है, इसमें भेद पैदा करने की होड़ क्यों है?
भेद पैदा होने का एक कारण तो अपनी आत्मविस्मृति है। मैं आपको अपना प्रतिद्वंद्वी मानने लगूं, तो स्वाभाविक तौर पर, अपनी हित-रक्षा के स्वार्थ में मैं आपकी हित-रक्षा की अनदेखी करने लगूंगा, कभी-कभी आपके हित का विरोध भी करूंगा। देश पर आक्रमण करने वाला, जो कम से कम उस दिन तो आपका और मेरा दोनों का विरोधी होता है। लेकिन आपस में भेद होने के कारण मैंने ऐसा नहीं माना, और आपको नीचा दिखाने के लिए मैंने उसको बुला लिया। बाबासाहेब आंबेडकर ने भी संविधान सभा की बहस में यही कहा कि किसी ने अपने बल पर भारत को नहीं जीता। हमारे अपने भेदों के कारण वे जीते और गद्दारी के कारण हमने अपना देश उनके हवाले किया। यह हमारे देश के इतिहास का हिस्सा रहा है। इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।
आप देश में लगातार प्रवास करते हुए समरसता का विषय रख रहे हैं। आप इसका फलित कैसे देखते हैं?
मुझे लगता है कि समरसता पर आग्रह रखें और इन बातों के पीछे अपना व्यवहार सब पहलुओं पर स्थापित करें, वही हम लोग कर रहे हैं। इससे एक दिन यह बात सिरे चढ़ेगी और समाज इसको मानेगा, क्योंकि लोगों को बांटने वाले और उस पर अपना खेल खेलने वाले लोग बहुत थोड़े दिन के हैं। मुझे लगता है कि, जैसा कि बाबासाहेब कहते थे भेदरहित, समतायुक्त, शोषणमुक्त राष्ट्र व समाज का सपना लेकर हजार सालों में बहुत उठापटक हुई है। बहुत लोगों ने काम किया है। लेकिन तब से लेकर अब तक चले सारे प्रयासों का सम्मिलित फल आने वाले समय में हमें मिलने वाला है और भेदरहित समाज का निर्माण होने वाला है।
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