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भारतीय राजनीति में हिन्दुत्व कहां है?

WEB DESK by WEB DESK
Jan 17, 2022, 11:36 pm IST
in भारत, संघ, दिल्ली
प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी ने श्री गुरुजी के 51वें जन्मदिवस पर एक वक्तव्य दिया था, जिसका हिंदी अनुवाद पाञ्चजन्य

प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी ने श्री गुरुजी के 51वें जन्मदिवस पर एक वक्तव्य दिया था, जिसका हिंदी अनुवाद पाञ्चजन्य

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प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता तथा सांसद डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी ने श्री गुरुजी के 51वें जन्मदिवस पर नागपुर में एक वक्तव्य दिया था, जिसका हिंदी अनुवाद पाञ्चजन्य के 19 मार्च, 1956 के अंक में प्रकाशित किया गया था। अपने भाषण में उन्होंने श्री गुरुजी के सफल नेतृत्व और संघ कार्यों की  प्रशंसा की थी।    

देश के कई ख्याति प्राप्त साहित्यकार और इतिहासकार भी अपनी लेखनी से पाञ्चजन्य को समृद्ध बनाते रहे हैं। इसी क्रम में भारत में दलीय प्रणाली के विकास पर 'भारत के राजनीतिक दल और हिंदुत्व' शीर्षक से एक आलेख 11 नवंबर, 1957 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसे प्रयाग विश्वविद्यालय में राजनीति विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा था। इसमें उन्होंने दलीय प्रणाली के दोषों का उल्लेख करते हुए इन्हें जनतंत्र विरोधी बताया था। डॉ. ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं, ‘इस प्रणाली ने मानव मस्तिष्क को दास बना दिया है और व्यक्ति को निज बुद्धि के अनुसार निर्णय करने से रोक दिया है।

दलीय मंच न तो व्याख्या करते हैं और न समझाते हैं। वे तो आकर्षण उपस्थित करते हैं और भ्रांतियों को जन्म देते हैं। दलों के कारण सत्ता कुछ लोगों के समूह के हाथों में केंद्रित हो जाती है।’ उनका लेख प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित और प्रोफेसर माइरन वीनर द्वारा लिखित पुस्तक 'पार्टी पॉलिटिक्स इन इंडिया' के संदर्भ में है। इसमें वीनर ने जनसंघ, हिन्दू महासभा, रा.स्व.संघ और राम राज्य परिषद को 'साम्प्रदायिक' बताया था, जबकि मुस्लिम लीग का जिक्र तक नहीं किया। इसकी आलोचना करते हुए डॉ. प्रसाद ने स्पष्ट किया है कि हिंदुत्व पर आस्था व्यक्त करने वाले दल साम्प्रदायिक नहीं हो सकते, क्योंकि उनके समक्ष 33 कोटि हिंदू समाज की सेवा का लक्ष्य है। 


भले ही ये विशाल भारतीय समाज के अभिन्न अंग बन चुके हैं, लेकिन ये कन्वर्टेड मुसलमान भारत में बसे विदेशी मुसलमानों की अपेक्षा मजहबी दृष्टि से कहीं अधिक कट्टर साबित हुए हैं। फिरोजशाह तुगलक और सिकंदर लोदी का जन्म हिंदू माताओं के गर्भ से हुआ था, किंतु वे दल्ली के किसी भी अन्य सुल्तान की अपेक्षा कहीं अधिक उन्मादी मुसलमान सिद्ध हुए।


 

एक अन्य अंक में आगरा विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर डॉ. आदर्श लाल श्रीवास्तव ने "मुसलमानों का भारतीयकरण: एक जटिल समस्या" शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि भारतीय करण की मांग के बारे में मुसलमानों को भी सम्मिलित करना गुनाह है या इतिहास की अनिवार्य पुकार? वोटलोलुप, चरित्रहीन राजनीति के चश्मे से देखा जाए तो शायद गुनाह होगा, लेकिन राजनीति को भेदकर सत्य का दर्शन कराने वाली इतिहास दृष्टि से देखा जाए तो मुसलमानों के भारतीयकरण की मांग आवश्यक ही नहीं तो सबसे जटिल समस्या है। इसमें उन्होंने इंग्लैंड और जर्मनी का उदाहरण देते हुए लिखा है कि कैसे कैथोलिक मतावलंबी अंग्रेजों पर 100 साल तक (16वीं-17वीं सदी तक) यह संदेह करते रहे कि वे अपनी मातृभूमि की अपेक्षा रोम के पोप और बहुधा स्पेन तथा पुर्तगाल के प्रति अधिक वफादार हैं।

इसी तरह, 19वीं सदी में जर्मन चांसलर बिस्मार्क को जर्मन रोमन कैथोलिको के प्रति दमन नीति का अवलंबन करने के लिए विवश होना पड़ा था, क्योंकि वह भी चर्च तथा राज्य के बीच विभाजित निष्ठा के रोग से ग्रस्त थे। उसी प्रकार एक प्रबुद्ध भारतीय मुसलमान के लिए देशभक्ति के साथ अपने मजहब निष्ठा का संबंध में बैठाना काफी बड़ा सिरदर्द है। हालांकि यह ऐतिहासिक सत्य है कि भारत के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज पहले हिन्दू ही थे। लेकिन इतने से ही देश के प्रति उनकी निष्ठा को स्वीकार करके नहीं चला जा सकता। भले ही ये विशाल भारतीय समाज के अभिन्न अंग बन चुके हैं, लेकिन ये कन्वर्टेड मुसलमान भारत में बसे विदेशी मुसलमानों की अपेक्षा मजहबी दृष्टि से कहीं अधिक कट्टर साबित हुए हैं। फिरोजशाह तुगलक और सिकंदर लोदी का जन्म हिंदू माताओं के गर्भ से हुआ था, किंतु वे दल्ली के किसी भी अन्य सुल्तान की अपेक्षा कहीं अधिक उन्मादी मुसलमान सिद्ध हुए। मजहब और कुरान मुसलमानों को इस बात की इजाजत नहीं देती है कि वे गैर मुस्लिमों पर विश्वास करें और उनके साथ सामाजिक संबंध जोड़ें। इसके अलावा मुसलमान देश से अधिक दारुल इस्लाम के प्रति अधिक निष्ठावान होते हैं। भले ही खिलाफत का अंत हो गया, लेकिन भारतीय मुसलमान खुद को मृत खलीफा की प्रजा ही मानते रहे।

इसी तरह, एक अंक में इतिहासकार डॉ. यदुनाथ सरकार ने "भारत को इतिहास की चुनौती' शीर्षक से प्रकाशित एक आलेख में लिखते हैं कि जो राष्ट्र अतीत से शिक्षा नहीं लेता उसका पतन अवश्यंभावी है। अपने लेख में उन्होंने स्वतंत्र भारत की राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक तथा कई अन्य समस्याओं का स्पष्ट तथा निर्भीक विवेचन करते हुए इटली के इतिहास से उनकी तुलना की है और अंत में यह सुझाव दिया है कि वर्तमान दुरव्यवस्था से देश को बचाने का एक ही उपाय है, निस्पृह समाज सेवकों की संगठित सेना का निर्माण। 

प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता तथा सांसद डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी ने श्री गुरुजी के 51वें जन्मदिवस पर नागपुर में एक वक्तव्य दिया था, जिसका हिंदी अनुवाद पाञ्चजन्य के 19 मार्च, 1956 के अंक में प्रकाशित किया गया था। अपने भाषण में उन्होंने श्री गुरुजी के सफल नेतृत्व और संघ कार्यों की  प्रशंसा की थी।    

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