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कलम के धनी भाऊराव देवरस

WEB DESK by WEB DESK
Jan 17, 2022, 09:05 pm IST
in भारत, संघ, दिल्ली
भाऊराव देवरस

भाऊराव देवरस

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भाऊराव देवरस ने विभिन्न विषयों पर पाञ्चजन्य में अनेक लेख लिखे। इन सब में उन्होंने अपनी बात न केवल पूरे तार्किक ढंग से रखी है बल्कि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, बांग्लादेशी हिन्दू शरणार्थियों की स्थिति तथा तत्कालीन सरकार और कांग्रेस नेतृत्व पर भी चोट की है

1970 में इंदिरा कांग्रेस ने संघ पर प्रतिबंध लगाने की पूरी तैयारी कर ली थी। इसके लिए सरकार संसद में एक विधेयक भी लेकर आई। लेकिन अपने इरादों में कामयाब नहीं हो पाई। सरकार ने गुरु दक्षिणा निधि पर आयकर लगाने की भी कोशिश की, लेकिन उसमें भी उसे मुंह की खानी पड़ी। इस पर भाऊराव देवरस ने पाञ्चजन्य के 28 सितंबर, 1970 के अंक में एक तर्कपूर्ण लेख लिखा, जिसका शीर्षक था- 'मुस्लिम लीग राष्ट्रीय और संघ राष्ट्र विरोधी'। इसमें वे लिखते हैं कि इस देश में मुस्लिम लीग का इतिहास कौन नहीं जानता?

ब्रिटिश राज्य का सहयोग, पाकिस्तान को जन्म देना, राष्ट्र जीवन से मुसलमान समाज को अलग रखने का प्रयास, यही जिसका इतिहास है और जो आज भी अपने समाज को राष्ट्र जीवन से अलग रखने की चेष्टा कर रही है, वह मुस्लिम लीग राष्ट्रीय है और देश की एकता के लिए प्रयत्नशील स्वयंसेवक संघ सांप्रदायिक! इसमें उन्होंने संघ का विरोध करने और इस पर प्रतिबंध लगाने के इंदिरा कांग्रेस और कम्युनिस्टों के कुत्सित प्रयासों को लेकर भी टिप्पणी की।

 

उन्होंने कहा कि संघ के स्वयंसेवक खुले मैदान में जो प्रतिदिन एकत्र होते हैं और कार्यक्रम करते हैं ऐसे कार्यक्रमों को कोई गुप्त कैसे कह सकता है। व्यायाम संबंधी कार्यक्रमों के आधार पर ही क्या इसे अर्धसैनिक कहा जा सकता है? देश में और भी अनेक दल हैं, व्यायामशालाएं हैं- जैसे कांग्रेस का सेवादल है, उसके अपने शारीरिक कार्यक्रम हैं, गणवेश हैं। यदि वे अर्धसैनिक नहीं हैं तो केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अर्धसैनिक कैसे है?

26 दिसंबर, 1971 को प्रकाशित लेख में उन्होंने भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद बांग्लादेश के सीमावर्ती क्षेत्र जेसोर का चित्रण प्रस्तुत किया है। कैसे पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सेना के डर से हथियार और गोला-बारूद छोड़कर भाग खड़े हुए थे और आजादी की खुशी में बांग्लादेशी नागरिक भारतीय सैनिकों को कंधे पर उठा रहे थे

 पाञ्चजन्य के जय जवान विशेषांक में उन्होंने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की हार पर तंज कसते हुए लिखा कि दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम राष्ट्र के रूप में 28 साल तक पाकिस्तान ने जो अहंकार भरी गर्जनाएं की थीं, वह पूरी तरह धराशायी हो गया। ‘हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़ कर लेंगे हिंदुस्तान’ का नारा भी अब कब्रिस्तान में दफनाए जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। बांग्लादेश की आजादी के साथ ही द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत मृत्यु को प्राप्त हुआ और मजहब के नाम पर 1000 मील की दूरी पर स्थित दो स्वतंत्र भूखंडों को जोड़कर एक राष्ट्र या राज्य गढ़ने का प्रयत्न खोखला और मिथ्या साबित हुआ। साथ ही, युद्ध में जीत का चुनावी फायदा लेने के कांग्रेस सरकार के फैसले पर भी उन्होंने चोट की। अमेरिकी विरोध और उसकी धमकियों तथा चीन द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में और उसके बाहर पाकिस्तान का खुला समर्थन करने के बावजूद युद्ध में भारत की जीत को उन्होंने आत्मविश्वास बढ़ाने वाला करार दिया। 

इसी तरह, 5 मार्च, 1972 के अंक में उन्होंने बांग्लादेशी शरणार्थियों की वापसी से जुड़े कुछ अनुत्तरित सवालों को रेखांकित किया था। उनका जोर इस बात पर था कि बांग्लादेश से बड़ी संख्या में जो शरणार्थी आए थे, उनमें 90 प्रतिशत हिंदू थे, जबकि मुसलमान 10 प्रतिशत ही थे। शरणार्थियों को भेजने की व्यवस्था में एकरूपता भी नहीं थी। लेख में उन्होंने 24 वर्षों के दौरान बांग्लादेश में मुसलमानों के अत्याचार के कारण हिंदू शरणार्थियों के मन में उपजे भय और संशय को स्वाभाविक बताते हुए मुस्लिम समाज को सेकुलर बनाने के प्रयासों पर चिंता जताई है और बांग्लादेश की अंदरूनी स्थिति को देखते हुए वहां से भारतीय सेना की वापसी पर सवाल उठाए हैं।

16 अप्रैल 1972 के अंक में भाऊराव देवरस ने चुनाव के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तिरुपति में भगवान वेंकटेश्वर की पूजा करने और मध्य प्रदेश में चुनावी सभा मे शिवरात्रि के पावन दिवस का बड़ी श्रद्धा से उल्लेख करने पर भी एक लेख लिखा था। इसमें उन्होंने कहा था कि अचानक प्रधानमंत्री ने इतनी धार्मिक श्रद्धा कैसे उमड़ पड़ी? जबकि इंदिरा गांधी ने 31 अक्टूबर, 1971 को लंदन में एक एक सवाल के जवाब में कहा था कि मुझे ईश्वर में विश्वास नहीं है, वह सिर्फ बैसाखी है। उन्होंने इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व को परस्पर विरोधी करार देते हुए चुनाव काल में उनके देवदर्शन को महज चुनावी स्टंट बताते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि सत्तारूढ़ दल को चुनाव में मुसलमानों का वोट मिलने की संभावना नहीं थी, इसलिए वह हिंदुओं को रिझाने में लगी हुई थीं। 

इसके अलावा पाञ्चजन्य में उनके कुछ संस्मरण भी प्रकाशित हुए। 26 दिसंबर, 1971 को प्रकाशित लेख में उन्होंने भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद बांग्लादेश के सीमावर्ती क्षेत्र जेसोर का चित्रण प्रस्तुत किया है। कैसे पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सेना के डर से हथियार और गोला-बारूद छोड़कर भाग खड़े हुए थे और आजादी की खुशी में बांग्लादेशी नागरिक भारतीय सैनिकों को कंधे पर उठा रहे थे। वहीं, 28 नवंबर, 1971 के लेख में उन्होंने गढ़वाल का आंखों देखा हाल प्रस्तुत किया है। इसमें मनोहारी तीर्थस्थली की अनदेखी और वहां की गरीबी का उल्लेख तो किया ही है, वहां पर्यटन की संभावनाओं की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया है।    

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