इन्दुशेखर तत्पुरुष
आधुनिक विश्व को भारतीय परंपरा और तत्वज्ञान से परिचित कराने और प्रभावित करने वाले भारतीयों में सर्वाधिक योगदान स्वामी विवेकानंद का है। अपने प्रकांड ज्ञान, प्रखर तर्कशक्ति, निष्कलंक चरित्र, अटूट आत्मविश्वास और अथक परिश्रम से उन्होंने ऐसा चमत्कार कर दिखाया जो पिछली अनेक शताब्दियों में नहीं हो सका था। उन्होंने भारतीय जनमानस में जड़ जमाए बैठे पश्चिमोच्चता के गुब्बारे की भी हवा निकाल कर भारतीयों की हीन-ग्रंथि को छिन्न-भिन्न कर दिया। थके-हारे, शिथिल, क्लान्त, दुर्बल भारत को साहस के साथ खड़े होकर अपनी अमूल्य विरासत पर गर्व करना उन्होंने सिखाया।
शिकागो धर्म-सम्मेलन में संसार भर से आए धर्मधुरीणों के सामने भारतीय विचार और हिन्दू धर्म की उज्ज्वल पताका फहराने के समाचारों ने हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया। शिकागो धर्मसभा और उसके बाद अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस आदि अनेक देशों में उनके व्याख्यानों की जो धूम मची, उसने पश्चिमी विद्वानों, पत्रकारों, धर्मगुरुओं के दिमाग में भारतीय मनीषा को लेकर जमी काई को हटाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इधर भारतीय लोगों का भी इस युवा संन्यासी पर ध्यान तब गया जब अमेरिका से वह अपार कीर्ति और अकल्पनीय सम्मान साथ में लेकर भारत भूमि पर लौटेऔर विश्व धर्मसभा में उनके मंत्रमुग्ध कर देने वाले भाषणों की गूंज और श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट यहां तक पहुंची। भारतीयों के मानस पटल पर गहराई तक चिपकी हुई पश्चिमपरस्ती को देखकर कभी-कभी लगता है कि इस संन्यासी ने यदि विदेशों में अपनी विद्वत्ता का झंडा नहीं गाड़ा होता तो भारत में भी शायद ही यह इतना पूजनीय और महत्वपूर्ण समझा जाता।
इधर कुछ बुद्धिजीवियों में विवेकानंद को लेकर एक और दुराग्रह देखा गया। धर्म के नामोच्चार मात्र से चिढ़ने वाले ये मंदमति इस हिंदू संन्यासी को देखते भी तो भला कैसे? भगवा के दर्शनमात्र से भड़क उठने की संकीर्ण और असहिष्णु मनोवृत्ति के कारण स्वामी विवेकानंद के धर्म, संस्कृति, इतिहास बोध, भारतीय समाज संरचना, सभ्यता-विमर्श, साहित्य एवं कला दृष्टि आदि अनेक महत्वपूर्ण पक्षों पर उनके मौलिक विचार? अलक्षित ही पड़े रहे।
विवेकानन्द के काल पर हम दृष्टि केंद्र्रित करें तो यह 19वीं सदी का उत्तरार्ध, एक जटिल अंतर्द्वंद्व से गुजरता है। एक ओर पश्चिमी लोगों द्वारा कसा हुआ गुलामी का फंदा, तो दूसरी ओर उन्हीं का बिछाया हुआ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का सम्मोहक जाल। इस विषम स्थिति ने एक विचित्र मनोदशा को जन्म दिया। राष्ट्रीय चेतना से भरे हुए प्रत्येक जागरूक व्यक्ति के लिए इनमें से पहली स्थिति का प्रतिरोध और दूसरी का स्वागत एक सीमा तक आवश्यक प्रतीत होता था। किन्तु कठिनाई यह थी कि इस सीमा की पहचान कैसे की जाए? भारतीय ज्ञान परम्परा का निर्वाह और आधुनिक विज्ञान-तकनीकी का अंगीकार; इनमें क्या रखा जाए,क्या छोड़ा जाए, इसका गणित बहुत जटिल था। ऐसे में जिस महापुरुष ने भारतीय जनता को युगानुरूप श्रेष्ठतम मार्ग दिखाया, वह स्वामी विवेकानंद थे। भारतीय आत्मा को अक्षुण्ण रखते हुए सार्वभौमिक विचारों से संवाद उनकी प्रमुख विशेषता रही है। उनका स्वप्न था सनातन की नींव पर एक सशक्त और समृद्ध भारत का पुनर्निर्माण,जो पूरे संसार का पथप्रदर्शन करने में समर्थ हो।
प्रखर राष्ट्रीय चेतना और युगबोध
इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, साहित्य, कला आदि मानविकी विद्याओं से स्वामी जी का जीवंत सम्पर्क रहता था। योगी-संन्यासी सामान्यत: इसे अविद्या और लोकैषणा की वस्तु मान कर इन विषयों के प्रति उदासीन रहते हैं। किंतु स्वामी जी की प्रखर राष्ट्रीय चेतना और युगबोध उनको इन विषयों से असंपृक्त न रहने देता था। भारत और पश्चिमी देशों की तुलना करते हुए वे यथार्थपरक और तथ्यात्मक बात कहते हैं। ‘हिन्दू और यूनानी’ नामक लेख में वे लिखते हैं:- ‘यूनानी राजनीतिक स्वतंत्रता की खोज में था। हिन्दू ने सदैव आध्यात्मिक स्वतंत्रता की खोज की। दोनों ही एकपक्षीय हैं। भारतीय राष्ट्र की रक्षा या देशभक्ति की अधिक चिन्ता नहीं करता, वह केवल अपने धर्म की रक्षा करेगा, जबकि यूनानियों में और यूरोप में भी (जहां यूनानी सभ्यता प्रचलित है) देश पहले आता है। केवल आध्यात्मिक स्वतंत्रता की चिन्ता करना और सामाजिक स्वतंत्रता की चिन्ता न करना एक दोष है, किन्तु इसका उलटा होना तो और भी बड़ा दोष है। आत्मा और शरीर दोनों की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न किया जाना चाहिए।…’ ( वि.सा./खण्ड 1/ पृ. 286)
भारत की दुर्दशा का एक बड़ा कारण वे उस मध्यकालीन दोष को मानते हैं जो सामाजिक बंधनों का कारण बना। अत: वे इस बात का उल्लेख करते हुए कई बार क्षुब्ध हो उठते हैं। अपने प्रिय शिष्य आलासिंगा पेरुमल को अमेरिका से 29 सितंबर 1894 को लिखे एक पत्र में कहते हैं,-
‘विकास के लिए पहले स्वाधीनता चाहिए। तुम्हारे पूर्वजों ने पहले आत्मा को स्वाधीनता दी थी, इसलिए धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास हुआ, पर देह को उन्होंने सैकड़ों बंधनों के फेर में डाल दिया, बस इसी से समाज का विकास रुक गया। पाश्चात्य देशों का हाल ठीक इसके विपरीत है। समाज में बहुत स्वाधीनता है, धर्म में कुछ नहीं। इसके फलस्वरूप वहां धर्म बड़ा ही अधूरा रह गया, पर समाज ने भारी उन्नति कर ली।’….(वि.सा./खण्ड 3 / पृ.- 317, पत्रावली)
दरिद्र देवो भव
अपने देशकाल की नब्ज ठीक से पहचानने वाले स्वामी विवेकानंद इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते थे कि हिन्दूधर्म का भला और भारत का अभ्युदय तब तक नहीं हो सकता जब तक अगड़ी जातियों में नीची कही जाने वाली जातियों के साथ समरसता और सम्मान का भाव नहीं होगा। वे उन संन्यासियों की तरह नहीं थे जो केवल भजनोपदेश से इस देश का कल्याण हो जाना मानते हों, वे एक कर्मयोगी और योद्धा की तरह समाज के बीच में रहकर काम करने में विश्वास रखते थे। भारत माता के दीन-हीन पुत्रों के प्रति करुणा का अथाह सागर उनके चित्त में हिलोरें भरता था। अपने सहयोगियों को भी वे इस ओर कैसी प्रखरता के साथ प्रेरित करते थे, यह उनके द्वारा स्वामी अखण्डानन्द को 1894 में लिखे पत्र से विदित होता है, जिसमें वे लिखते हैं :-
‘… खेतड़ी नगर की गरीब और पिछड़े लोगों के घर-घर जाओ और उन्हें धर्म का उपदेश दो। उन्हें भूगोल तथा अन्य इसी प्रकार के विषयों की मौखिक शिक्षा भी दो। निठल्ले बैठे रहने और राजभोग उड़ाने तथा ‘हे प्रभु रामकृष्ण’ कहने से कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक कि गरीबों का कुछ कल्याण न हो।…’
तुमने पढ़ा है, मातृ देवो भव, पितृ देवो भव- अपनी माता को ईश्वर समझो, अपने पिता को ईश्वर समझो- परन्तु मैं कहता हूं दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव-गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दु:खी, इन्हें अपना ईश्वर मानो। इनकी सेवा करना ही परम धर्म समझो। किमधिकमिति। आशीर्वाद पूर्वक सदैव तुम्हारा, विवेकानंद … (वि.सा./खण्ड 3 / पृ.-357, पत्रावली)
आर्य आगमन के सिद्धांत को चुनौती
स्वामी विवेकानन्द ने विश्व के इतिहास और समाजों का गहन अध्ययन कर रखा था। पश्चिमी विद्वानों द्वारा स्थापित किए गए भारत में आर्य आगमन के आरोपित सिद्धांत को चुनौती देते हुए वे उन भारतीय विद्वानों को भी आड़े हाथ लेते हैं जो पश्चिम की इस मनगढ़ंत अवधारणा का आंखें मूंद कर अनुगमन करते हैं। ‘प्राच्य और पाश्चात्य’ विषयक लेख में वे लिखते हैं – ‘यूरोपीय पण्डितों का यह कहना कि आर्य लोग कहीं से घूमते-फिरते आकर भारत में जंगली जाति को मार-काट कर और जमीन छीन कर स्वयं यहां बस गए, केवल अहमकों की बात है। आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे भारतीय विद्वान भी उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हैं और यही सब झूठी बातें हमारे बाल-बच्चों को पढ़ाई जाती है-यह घोर अन्याय है। …यूरोपियनों को जिस देश में मौका मिलता है, वहां के आदिम निवासियों का नाश करके स्वयं मौज से रहने लगते हैं, इसलिए उनका कहना है कि आर्य लोगों ने भी वैसा ही किया है! यूरोप का उद्देश्य है-सबका नाश करके स्वयं अपने को बचाए रखना। आर्यों का उद्देश्य था-सबको अपने समान करना अथवा अपने से भी बड़ा बनाना।’
( वि.सा./खण्ड 10 / पृ. 110-112)
विवेकानंद भारत में आर्यों के आगमन की अवधारणा को तो असंगत बताते ही हैं, वे यूरोपियन लोगों की क्रूर पाशविकता और आर्यों के श्रेष्ठ जीवनमूल्य का भी उल्लेख करते हैं।
स्मरणशक्तिऔर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य
वेद,उपनिषद,पुराण और धर्मशास्त्रों के अंतरंग अध्येता विवेकानंद आधुनिक पश्चिमी वांङमय के भी गहरे जानकर थे। उनकी विलक्षण मेधा और सर्वङ्गम बुद्धि के कारण वे ऐसे-ऐसे ग्रन्थों के लंबे उद्धरण मुंहजुबानी सुना देते थे जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि यह धर्म-अध्यात्म-योग का पण्डित साहित्यिक कृतियों को भी कंठाग्र रखता है। श्री हरिपद मित्र ने अपने संस्मरण में ऐसी ही एक आश्चर्यजनक घटना का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं, ‘एक दिन बातचीत के सिलसिले में स्वामी जी पिकविक पेपर्स के दो-तीन पृष्ठ कण्ठस्थ बोल गए। मैंने उस पुस्तक को अनेक बार पढ़ा है। समझ गया उन्होंने पुस्तक के किस स्थान से आवृत्ति की है। सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। पूछने पर उन्होंने कहा, दो बार पढ़ा है। एक बार स्कूल में पढ़ने के समय और दूसरी बार आज से पांच-छह महीने पहले।…आश्चर्यचकित होकर मैंने पूछा, फिर आपको किस प्रकार यह स्मरण रहा? और हम लोगों को क्यों नहीं रहता? स्वामी जी ने उत्तर दिया, ‘एकाग्र मन से पढ़ना चाहिए; और खाद्य के सार भाग द्वारा निर्मित वीर्य का नाश न करके उसका अधिकाधिक परिपचन (Assimilation) कर लेना चाहिए।’ ( वि.सा./खण्ड 10 / पृ. 316-स्वामी जी के साथ दो चार दिन)
अंग्रेजी साहित्य से परिचित लोग जानते हैं कि पिकविक पेपर्स चार्ल्स डिकेन्स का चर्चित उपन्यास है जो 1836 में प्रकाशित हुआ था।
यह प्रसंग स्वामी जी की चमत्कृत कर देने वाली स्मरणशक्ति की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही; यहां एक और बात इस प्रसंग को विशेष उल्लेखनीय बनाती है। स्वामी जी मानव की स्मृति को प्रखर बनाए रखने का जो मूल कारण बताते हैं, वह है वीर्यरक्षा अर्थात् नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन। दुर्भाग्य से आज का ऐहिक सुखवादी संसार अपनी प्रचंड भोगलिप्सा के कारण इस आयुवेर्दीय सिद्धांत को लेशमात्र भी महत्व नहीं देता। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, शिक्षाविदों और भौतिकतावादियों ने विद्यार्थी के लिए प्रयत्नपूर्वक ब्रह्मचर्य के पालन की मान्यता का अवमूल्यन ही किया हैं। जबकि भारतीय परम्परा में विद्याध्ययन और शिक्षा के लिए निर्धारित प्रथम आश्रम का नाम ही ब्रह्मचर्याश्रम है। यह इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि शिक्षण-प्रशिक्षण के आवश्यक कारक बुद्धि, मेधा, स्मृति आदि का ब्रह्मचर्य से अविच्छिन्न सम्बन्ध है।
स्वार्थ को जीतना ही सभ्यता
हम जानते हैं कि मनुष्य की विकासयात्रा वस्तुत: उसकी सभ्यता के विकास की कहानी है, जो वह निरन्तर अर्जित करता रहा है। किन्तु प्रश्न यह है कि सभ्यता क्या है? और विकास की सही दिशा कौनसी है? समाजशास्त्रियों ने सभ्यता-संस्कृति की अनेक परिभाषाएं दी हैं जो पिछली दो-एक शताब्दियों से अधिक पुरानी नहीं हैं। स्वामी जी स्वयं इस प्रश्न से टकराते हैं और भारतीय मनीषा के अनुसार उत्तर देते हुए कहते हैं:-
‘मैंने देश के कोने-कोने में प्रश्न किया कि सभ्यता की परिभाषा क्या है, और मैंने यह प्रश्न अनेक अन्य देशों में भी पूछा है। कभी-कभी उत्तर मिला जो कुछ हम हैं, यही सभ्यता है। …कोई राष्ट्र हो सकता है समुद्र्र की लहरों को जीत ले, भौतिक तत्वों का नियंत्रण कर ले, जीवन की उपयोगितावादी सुविधाओं को पराकाष्ठा तक विकसित कर ले, किन्तु फिर भी सम्भव है कि वह कभी यह अनुभव नहीं कर पाए कि सर्वोच्च सभ्यता इसमें होती है, जो अपने स्वार्थ को जीतना सीख लेता है। पृथ्वी के किसी भी देश की अपेक्षा यह स्थिति भारत में अधिक उपलब्ध है, क्योंकि वहां शरीर सुख सम्बन्धी भौतिक स्थितियां अध्यात्म के अधीनस्थ मानी जाती हैं…..(वि.सा./खण्ड 1/ पृ. 266-क्या भारत तमसाच्छादित देश है? )
पूरी दुनिया के लिए अब समय आ गया है कि सवा सौ वर्ष पूर्व विवेकानंद जिस ओर इशारा करते हैं, उस पर गम्भीरता से सोचा जाए। सभ्यता की परिभाषा पर पुनर्विचार कर इसके मापदंडों की समीक्षा की जाए कि कहीं ये ही तो खोटे नहीं? अपने को सभ्य और विकसित कहलाने वाले लोग भी जब मुट्ठी भर विषरहित अन्न, लोटा भर शुद्ध निर्मल जल, सांस भर प्रदूषणरहित स्वच्छ आकाश और बांह भर नि:स्वार्थ आत्मीयता को तरसते देखे जाते हों, तो विकास और मूर्खता शब्द पर्यायवाची से लगते हैं।
मानवीय चेतना की उच्चतर अवस्था
आधुनिक भारत में पश्चिमी विचारकों ने एक और मूढ़ता को जन्म दिया। यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि सभी सामी मजहब एकदेवोपासक हैं। ये पश्चिमी विद्वान एकदेवोपासना को चेतना के विकास की उन्नत अवस्था और बहुदेवोपासना को अविकसित आदिम अवस्था मानते हैं। भारत जैसे प्राचीन देशों की प्रकृतिपूजा और बहुदेवोपासना को ये पैगनिज्म कहते हैं तथा पैगनवाद इनकी नजरों में अविकसित, निम्न और पिछड़ा होने की निशानी है। इन पश्चिमी विचारकों के प्रभाव में आए भारतीय विद्वानों ने भी हिंदू धर्म को विकसित सिद्ध करने के लिए वेदों और उपनिषदों की ऐसी व्याख्याएं करनी प्रारम्भ कर दी कि वास्तविक हिंदू धर्म एकदेवोपासक ही हैं। बहुदेवोपासना मानो इसकी विकृति हो। इसी की देखा-देखी में 19वीं सदी में ही भारतीय पुनर्जागरण के लिए होने वाले विविध प्रयासों में हिंदू धर्म के मजहबीकरण की छाया देखी जा सकती है। श्रेष्ठ मूल्य, नैतिक आदर्श और देशभक्ति की उत्कट भावना के बावजूद ब्राह्म समाज, प्रार्थना सभा, आर्य समाज जैसे संगठन इसका ज्वलंत प्रमाण है। किन्तु विवेकानन्द की गहन दृष्टि ने इस बहुदेवोपासना को हेय न मानकर सामी मजहबों के समक्ष इसे दृढ़तापूर्वक उच्चतर अवस्था माना। उन्होंने इस विविधता को हिन्दू धर्म का वैशिष्ट्य और वैश्विक धर्म बनने की सामर्थ्य मानते हुए हिंदुत्व को समझने की एक नई दृष्टि दी। वे कहते हैं:-
‘मुझे ऐसा एक भी वर्ष स्मरण नहीं, जबकि भारत में अनेक नवीन सम्प्रदाय उत्पन्न न हुए हों। जितनी ही उद्दाम धारा होगी, उतने ही उसमें भंवर और चक्र उत्पन्न होंगे-यह स्वाभाविक है। इन सम्प्रदायों को क्षय का सूचक नहीं समझा जा सकता, वे जीवन के चिह्न हैं। होने दो इन सम्प्रदायों की संख्या में वृद्धि-इतनी वृद्धि कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति ही एक सम्प्रदाय हो जाए, हर एक व्यक्ति। इस विषय को लेकर कलह करने की आवश्यकता ही क्या है? …(वि.सा./खण्ड 10 / पृ.-5, मेरा जीवन तथा ध्येय)
यहां हमें यह जानकर प्रसन्न और कृतज्ञ होना चाहिए कि विवेकानंद जो बात एक शताब्दी पहले कह रहे हैं, कतिपय विचारशील लोग उसे अब स्वीकार करने लगे हैं। इस कथित पैगनवाद में निहित अनेकान्तता मानव के विकास की आदिम स्थिति नहीं वरन् मानवीय चेतना की वह उच्चतर अवस्था है जो मनुष्यमात्र को वैचारिक स्वतंत्रता का अधिकार देती है। यह चयन की बहु,-बल्कि, अनन्त विकल्पात्मकता एक अति विकसित और उदार परम्परा में ही सम्भव है। जड़ और संकीर्ण समाजों में बहुदेवोपासना का ऐसा धार्मिक प्रजातन्त्र सम्भव ही नहीं है। इधर पिछले कुछ दशकों में आधुनिक विचारकों ने उत्तरआधुनिकता द्वारा प्रस्तावित बहुलतावादी और विकेन्द्रीयता के सिद्धांत के प्रभाव में अब जाकर पैगनिज्म की विशेषताओं पर दृष्टिपात किया है।
भारतीयता का श्रेष्ठतम स्वरूप
धर्म, अध्यात्म, योग आदि पर तो उनके विचारों का खूब उल्लेख होता रहा है, किन्तु धर्मेतर लौकिक विषयों पर उनके मौलिक विचारों का उल्लेख नहीं किया जाता। जबकि यह तथ्याधारित हैं कि आधुनिक भारतीयता का श्रेष्ठतम और समीचीन स्वरूप सबसे पहले विवेकानंद ने ही दिया। हम इसे समझ-बूझ नहीं पाए तो उसका कारण भी यह रहा कि किसी प्राचीन राष्ट्र के पुनर्निर्माण का मॉडल कैसा होना चाहिए, उसका ब्लूप्रिंट कैसा होगा, यह हम उतना ही जानते-मानते रहे जैसा हमे पश्चिमी विद्वानों ने सिखाया-पढ़ाया-रटाया।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं, वास्तविकता हैं कि आधुनिक भारत के निर्माण में यद्यपि अनेक महापुरुषों का अकल्पनीय योगदान है, किंतु विवेकानंद इस माला के सुमेरु हैं। वे सच्चे अर्थों में आधुनिक भारत के ‘राष्ट्रपुरुष’ हैं।
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